महिला आरक्षण होना ही चाहिए पचास प्रतिशत

                   महिला आरक्षण होना ही चाहिए पचास प्रतिशत

                                                                                                                                            डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं सरिता सेंगर

सिर्फ तीस फीसदी ही क्यों, बल्कि पचास प्रतिशत आरक्षण महिलाओं के लिए होना ही चाहिए। इस पचास प्रतिशत में दलित और वंचित समाज की महिलाओं का कोटा भी आरक्षित होना चाहिए। आज आजादी के 75 वर्ष बाद देश की आधी आबादी को विधायिका में एक तिहाई आरक्षण का कानून पास करके पक्ष और विपक्ष भले ही अपनी पीठ थपथपा रहे हों परन्तु यह कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं है। जब महिलाएं देश की आधी आबादी है, तो उन्हें उसके अनुपात से भी कम आरक्षण देने का क्या औचित्य है?

क्या महिलाएं परिवार, समाज और देश के हित में सोचने, समझने निर्णय लेने और कार्य करने में पुरुषों से कुछ कम समर्थ हैं? परन्तु जो व्यवस्था की जा रही है, उससे तो यही प्रतीत होता है। यदि ईमानदारी से देखा जाए तो वे पुरुषों से अधिक सक्षम हैं, और हर कार्य क्षेत्र में नित्य अपनी सफलताओं के झंडे भी गाड़ रही हैं। यहां तक कि भारतीय सेना के लड़ाकू विमान की पायलट तक भी महिलाएं बन चुकी हैं। दुनिया की अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सीईओ तक भारतीय महिलाएं हैं।

अनेक देशों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद पर महिलाएं चुनी जा चुकी हैं, और वे सफलतापूर्वक कार्य करती रही हैं। ऐसे में अगर जमीनी स्तर पर देखा जाए तो उस मजदूरिन का भी ध्यान कीजिए जो कि नौ महीने तक गर्भ में बालक को रखे हुए भवन निर्माण आदि के कामों में कठिन मजदूरी करती है, और उसके बाद सुबह-शाम अपने परिवार के भरण-पोषण का जिम्मा भी उठाती है। अक्सर इतना ही काम करने वाले पुरुष मजदूर, मजदूरी करने के बाद या तो पलंग तोड़ते हैं. दारू पीकर घर में तांड़व करते हैं।

                                                                        

हमारे देश की वर्तमान राष्ट्रपति जिस समाज से आती हैं यहां की महिलाएं घर और खेती के दूसरे सब काम करने के अलावा ईंधन के लिए लकड़ियाँ भी बीन कर लाती हैं। ऐसे में कह सकते हैं कि देश के दूरदराज के इलाकों में महिलाओं को ऐसी ही कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। जब हर कार्य क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों से आगे हैं, तो उन्हें आबादी में उनके अनुपात के मुताबिक प्रतिनिधित्व देने में हमारे पुरुष प्रधान समाज को इतना संकोच क्यों होता है? जो अधिकार ‘‘आज के दौर में ग्राम प्रधान और नगर पालिकाओं के अध्यक्ष आदि पदों के लिए तथा महानगरों में मेयर पद के लिए जो सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं, उनका क्या हश्र हो रहा है. यह भी अपने आप में देखने और समझने वाली एक बात है। अब हिन्दी भाषी प्रांतों में एक नया नाम प्रचलन में है- ‘‘प्रधान पति’’ मतलब यह कि महिला आरक्षित सीटों पर चुनाव जितवाने के बाद उनके पति ही उनके दायित्वों का निर्वाह करते हैं।

यह सब महिलाएं प्रायः पति की ‘‘रबड़ स्टाम्प’’ ही बन कर रह जाती हैं। ऐसी हालत में आवशयक है कि प्रत्येक शहर के स्कूल एवं एक कॉलेज में एक नेतृत्व प्रशिक्षण सम्बन्धित कोर्स का संचालन किया जाए, जिसमें प्रवेश लेने वाली ऐसी महिलाओं को तमाम महिलाओं को ऐसी भूमिकाओं के लिए प्रशिक्षित किया जाए, जिससे कि वह भविष्य में अपने पतियों पर निर्भर न रहें।

    इसके साथ ही प्रदेशों के मुख्यमंत्री कार्यालयों के द्वारा भी इसके सम्बन्ध में ऐसे दिशा निर्देश जारी किए जाने चाहिए कि इस प्रकार से चुनी गई समस्त महिलाओं के पति या उनके परिवार का कोई अन्य सदस्य उनका प्रतिनिधित्व करते हुए पाया गया तो यह एक दण्ड़नीय अपराध माना जाएगा। सम्बन्धित क्षेत्र का कोई भी जागरूक नागरिक इसकी शिकायत कर सकेगा। वर्तमान में हो तो यह रहा है कि चाहे तो जिला स्तरीय कोई बैठक हो या फिर प्रदेश स्तर की अथवा इन चयनित प्रतिनिधियों के प्रशिक्षण शिविर, प्रत्येक स्थान पर पत्नी का बॉडीगार्ड बनकर इनके पति ही मौजूद रहते हैं।

                                                                       

यहाँ तक कि चुनाव के दौरान और इनके जीत जाने के बाद भी इन महिला प्रतिनिधियों के तमाम होर्डिंग्स पर इनके चित्र के साथ ही इनके पतियों के चित्र को भी प्रमुखता से प्रचारित किया जाता है। इस परिपाटी पर चुनाव आयोग को भी प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। चुनाव के दौरान या जीतने के बाद भी कोई होर्डिंग ऐसा नही लगाया जाना चाहिए जिसमें ‘‘प्रधान पति’’ का नाम अथवा उसका चित्र अंकित हो।

    हमें यह नही भूलना चाहिए कि हमारे समाज में चली आ रही इन रूढ़िवादी बातों पर सदैसे से ही जोर दिया गया है कि घर की महिला जब भी घर के बाहर कदम रखेगी तो उसके साथ घर का कोई न कोई पुरूष अवश्य ही रहना चाहिए। ऐसी ही रूढ़िवादी सोच के चलते महिलाओं को घर की चाहरदीवारी के अन्दर ही सिमट कर रहना पड़ा, परन्तु जैसे ही यह सोच बदलनी आरम्भ हुई तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा प्रदान करने में किसी को कोई आपत्ति भी नही है।

    वर्तमान समय में महिलाएं पुरूषो के साथ प्रत्येक क्षेत्र में कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। आज कोई भी क्षेत्र ऐसा नही है, जहाँ महिलाएं अपनी प्रभावी उपस्थिती दर्ज नही करा रही हो। अतः महिलाओं को पुरूषों के मुकाबले किसी किसी भी क्षेत्र में कमतर नही आंका जाना चाहिए। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि नारी शक्ति वंदन विधेयक के माध्यम से इस सरकार ने एक अच्छी पहल तो की है परन्तु इसके उपरांत भी महिलाओं को आरक्षण का लाभ न मिल पाने के कारण विपक्ष सरकार को घेर रहा है।

                                                                   

    वैसे हमें इस भ्रम में भी नहीं रहना चाहिए कि सभी महिलाएं पाक-साफ या दूध की धुली होती हैं और बुराई केवल पुरुषों में होती है। पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग प्रांतों में निचले स्तर के अधिकारियों से लेकर महिला आईएएस और आईपीएस अधिकारी तक बड़े-बड़े घोटालों में लिप्त पाई गई हैं। इसलिए यह मान लेना कि महिला आरक्षण देने के बाद सब कुछ रातोंरात सुधर जाएगा, हमारी नासमझी ही होगी जैसी बुराई पुरुष समाज में है. वैसी ही बुराइयां महिला समाज में भी व्याप्त हैं क्योंकि समाज का कोई एक अंग दूसरे अंग से अछूता नहीं रह सकता पर कुछ अपवादों के आधार पर यह फैसला करना कि महिलाएं अपने प्रशासनिक दायित्वों को निभाने में सक्षम नहीं है- इसलिए फिलहाल उन्हें एक-तिहाई सीटों पर ही आरक्षण दिया जा रहा है-ठीक नहीं है।

यह सूचना कि भविष्य में उन्हें इनकी आबादी के अनुपात में हमारी सोच नहीं बदली और मौजूदा करें पर आरक्षण दे दिया जाएगा, सपने दिखाने जैसा है। महिलाओं के नाम पर वह खानापूर्ति होती रही तो पक्की बात है कि भविष्य में कभी कुछ नही बदलने वाला कुछ नहीं बदलेगा।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।