जीवों से जीवों का सफाया : पौधों के बचाव का एक नायाब तरीका

      जीवों से जीवों का सफाया : पौधों के बचाव का एक नायाब तरीका

                                                                                                                                          डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 कृषाणु सिंह एवं मुकेश शर्मा

भारत में कृषि क्षेत्र के कुल उत्पादन का लगभग 26 प्रतिशत भाग प्रतिवर्ष पौधों में उत्पन्न होने वाले रोगों के कारण नष्ट हो जाता है, जो कि अपने आप में एक बड़ी हानि है। इस प्रकार यदि पादपों में होने वाले रोगों को एक सीमांत स्तर तक नियंत्रित कर लिया जाता है तो फसलोत्पादन को काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है।

आधुनिक एवं व्यवसाय प्रमुख खेती में भूमि, पानी तथा श्रम शक्ति का कम से कम प्रयोग कर उत्पादन करना ही मुख्य लक्ष्य है। वर्षो पुरानी रोग नियंत्रण की विधियाँ जैसे स्वच्छता, फसलचक्र, मिश्रित खेती, हरी खाद तथा अन्य जीवांशों का उपयोग, ग्रीष्मकालीन जुताई, बुवाई तथा रोपाई के समय में परिवर्तन इत्यादि वर्तमान समय में सघन खेती के सन्दर्भ में अव्यवहारिक लगती है। रोग प्रबन्धन हेतु फसलों में रोग अवरोधिता को स्थान दिया गया है।

                                                                              

इस विधि का प्रयोग यथा समय तथा यथासम्भव रूप से किया जा रहा है, परन्तु कुछ कारणों जैसे फसलों में रोग अवरोधिता के उत्पन्न होने में समय लगना तथा थोड़े समय में ही रोग अवरोधिता का रोगजनकों के निरंतर उत्परिवर्तित विकास का टूट जाना आदि से रोग नियंत्रण सर्वदा अपर्याप्त एवं असंतोषजनक ही रहा है।

हरित क्रॉन्ति की सफलता के पीछे विभिन्न रसायनों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया जाना रहा है। इससे फसलोत्पादन में तो भरपूर वृद्वि हुई परन्तु इसके साथ ही कई अन्य समस्याओं का पादुर्भाव भी हुआ। रसायनों के मूल्यों में निरंतर वृद्वि होने के कारण वर्तमान में इनका प्रयोग लाभदायक नही रह गया है, साथ ही इनके प्रभाव भी सीमित ही हैं।

    रोगजनकों में रसायनों के प्रति उत्पन्न प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न होने के कारण रसायनों का प्रभावहीन हो जाना तथा इनके द्वारा वातावरण पर बढ़ता दुष्प्रभाव, स्वास्थ्य के लि उत्पन्न खतरें, मृदा प्रदूषण, मृदा में उपस्थित लाभदायक जीवों पर दुष्प्रभाव, स्वस्थ खाद्य पदार्थों का प्रदूषित हो जाना आदि कारणों से इनका प्रयोग अब उपयुक्त एवं संतोषप्रद नही रहा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार रासायनिक विषाक्तता के कारण प्रतिवर्ष लगभग दस लाख लोग रोगग्रस्त होते हैं, जिनमें से लगभग 20 हजार लोगों की मृत्यु हो जाती है। इन समस्त कारकों एवं कारणों से किसी ऐसी तकनीक के द्वारा कम कर दिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप इस रोगजनकों के द्वारा उत्पन्न रोग में कमी आ जाती है, जिसको जैविक नियंत्रण कहते हैं।

                                                          

भारत में उपलब्ध जैव निसंत्रकों के व्यवसायिक उत्पाद

उत्पाद

जैव नियंत्रक

उत्पादक

बायोडर्मा

इकोडर्मा

ट्राइकोडर्मा विरडी

ट्राइकोडर्मा विरडी + ट्राइकोडर्मा हारजियानम

बायोटेक इंटरनेशनल लिमिटेड, नई दिल्ली।

मार्गो बायोकन्ट्रोल प्रा.लि.।

इकोफिट

डिफेन्स-एस.एफ.

फन्जीनिल

ट्राइकोडर्मा विरडी

 

ट्राइकोडर्मा विरडी

होचेस्ट शैरिंग एग्रो इवो लि0 मुम्बई।

वॉकहार्ट लाइफ साइंस लि0 मुम्बई।

क्रॉप हेल्थ बायेप्रोडक्ट रिसर्च सेन्टर गाजियाबाद (उ0प्र0)।

बायोगार्ड

ट्राइकोडर्मा विरडी

कृषि रसायन एक्सपोर्ट प्राइवेट लि0, सोलन (एच0पी0)।

ट्राइको-एक्स

कैलीसीना एस.डी.

ट्राइकोडर्मा विरडी

एस्परजिलस नाइगर ए.एन.27

एक्सल इण्डरूट्रीज लिमिटेड, मुम्बई।

कैडिला फेरामेसीयूटिक्लिस लिमिटेड अहमदाबाद (आ0प्र0)।

कैलीसीना एस.

एस्परजिलस नाइगर ए.एन.27

कैडिला फेरामेसीयूटिक्लिस लिमिटेड अहमदाबाद (आ0प्र0)।

बायोकान

बायोशील्ड

पादप बायो कन्ट्रोल

ट्राइकोडर्मा विरडी

स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस

स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस

टी रिसर्च एसोसिएशन, जोराहट, असोम।

अनु0 बायोटेक लिमिटेड, फरीदाबाद, हरियाणा।

पादप रोग विज्ञान विभाग, जी0बी0 पन्त, कृषि एवं प्रौ0 वि0वि0, पन्तनगर।

 

बायोटैक

बैसिलस सबटिलस

टी रिसर्च एसोसिएशन, जोराहट, असोम।

जैविक रोगनाशक सूक्ष्म जीव

    पादप रोगों के जैविक नियंत्रण में उन सभी सूक्ष्म जीवों की जातियों, प्रजातियों तथा समूह सम्मिलत हैं जो कि हमारे वातावरण में ही उपलब्ध होते हैं। पादप रोगों के जैविक नियंत्रण में कवकों और जीवाणुओं का ही अधिकता में प्रयोग का कारण उनकी संख्या, क्षमता तथा कृषि कार्यों में सहभागिता के मुख्य कारण से है। कवकों की मुख्य प्रजातियाँ जेसे ट्राइकोडर्मा, ऐस्परजिलस, पेनिसिलियम, कीटोमियम तथा कोनियोपाइरियम पर अनुसंधान एवं प्रयोग परीक्षण कार्य चल रहा है। इसी प्रकार जीवाणुओं में बैसिलस सबटिलस तथा स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस पर अणिक बल दिया जा रहा है।

रोग जनक एवं रोग नियन्त्रण

                                                                   

    मुख्यतः मृदोढ़ रोगजनकों जैसे फ्यूजेरियम, फाइटोफ्थोरा, पीथियम, स्क्लोरोशियम स्क्लोरोटीनिया, राइजोक्टोनिया औ मैक्रोफोमिना का पूण रूपेंण अथवा आंशिक रूप से विनाश करके इनके माध्यम से उत्पन्न होने वाले रोगों जैसे मूल व पौध गलन, आर्द्र गलन, बीज सड़न, उकठा और अन्य रोगों के नियंत्रण में जैविक रोग नाशक सहायक सिद्व हुये हैं तथा इनका उपयोग किया जा रहा है।

क्रियाविधि

जैविक रोग नियंत्रक निम्न विधियों के अंतर्गत कार्य करते हैं-

जैविक रोग नियंत्रकों का प्रत्यक्ष प्रभाव

कवक परजीविताः कवक जैव रोग नियंत्रकों की क्रियाओं में कवक परजीविता एक अनुसंधान तथा प्रयोग परीक्षण पेनिसिलियम, कीटोमियम एवं कोनियोपाइरियम आदि पर चल रहा है। इसी प्रकार बैसिलस सबटिलस तथा स्यूडोमोस फ्लोरोसेंस पर अधिक बल दिया जा रहा है।

रोग जनक और रोग नियंत्रण

    मुख्यतः मृदोढ़ रोगजनकों जैसे फ्यूजेरियम, फाइटोफ्थोरा, पीथियम, स्क्लोरोशियम स्क्लोरोटीनिया, राइजोक्टोनिया औ मैक्रोफोमिना का पूण रूपेंण अथवा आंशिक रूप से विनाश करके इनके माध्यम से उत्पन्न होने वाले रोगों जैसे मूल व पौध गलन, आर्द्र गलन, बीज सड़न, उकठा और अन्य रोगों के नियंत्रण में जैविक रोग नाशक सहायक सिद्व हुये हैं तथा इनका उपयोग किया जा रहा है।

क्रियाविधि

जैविक रोग नियंत्रक निम्न विधियों के अंतर्गत कार्य करते हैं-

जैविक रोग नियंत्रकों का प्रत्यक्ष प्रभाव

कवक परजीविताः कवक जैव रोग नियंत्रकों की क्रियाओं में कवक परजीविता एक महत्वपूर्ण क्रियाविधि है। यह एक जटिल प्रक्रिया है जिसका लक्ष्य जीव की तरफ जैविक नियंत्रक की तीव्र वृद्वि जिसके अंतर्गत अंततः लक्ष्य जीव पर आक्रमण करके उसकी कोशका भित्ति को नष्ट कर देना सम्मिलत है। जैव कारक ट्राइकोडर्मा की विरोधियों के प्रति अनेक क्रियाओं में से कवक परजीविता एक मुख्य क्रिया है।

इस क्रिया में ट्राइकोडर्मा की रसायन पोषी विधि कवक परजीवी के द्वारा पोषी की पहिचान, कवक परजीवी के कवक तन्तुओं का लिपटना, प्रकिण्व का स्राव और पोषी कवक तन्तुओं का पूर्ण घेराव एवं उनकी मृत्यु शामिल है। ट्राइकोडर्मा रोग कारक जीवों के शरीर (माइसिलियम तथा स्कलोरोशियम) से चिपक कर उसकी बाहरी परत को प्रकिण्व के द्वारा गलाकर उसके अन्दर उपस्थित समस्त पदार्थ को उपयोग कर लेता है, जिसके कारण रोग कारक जीव नष्ट हो जाता है।

प्रतिजैविकताः जैविक नियंत्रक कुछ प्रतिजैविक और उपापचय पदार्थों को स्रावित करते हैं, जो रोग कारकों के लिए हानिकारक होते हैं और उनकी वृद्वि को रोक देते हैं। कवक और जीवाणु जैव नियंत्रकों के द्वारा कई प्रतिजैविक पदार्थ पृथक किये जा चुके हैं। इनमें ट्राइकोडर्मा वाइरेन्स से ग्लाइयोट्रॉक्सिन और ग्लायोनाटाइल्स आदि तथा जीवाणु जैव नियंत्रक से भी प्राप्त कुछ प्रतिजैविक पदार्थ असंख्य पादप रोगों के प्रति प्रभावी हैं।

प्रतिस्पर्धाः इस क्रिया में जैव नियंत्रक वातावारण में उपलब्ध पोषक पदार्थों, जल एवं स्थान आदि के उपयोग के लिए रोगकारकों से स्पर्धा करते हैं तथा स्थान, पोषक पदार्थ आदि के अप्रर्याप्त होने पर दो सूक्ष्मजीवों में प्रतियोगिता तथा इससे उत्पन्न हानिकारक प्रभाव को प्रतिस्पर्धा कहते र्हैं।

जैव नियंत्रकों का अप्रत्यक्ष प्रभाव

सर्वांगी रोगरोधिता को उत्पन्न एवं उत्तेजित करना (आई.एस.आर.)

                                                         

    पौधों में जैव नियंत्रक के द्वारा रोगरोधिता का विकास कुछ शोध पत्रों का विषय है और वैज्ञानिक अनुसंधान का एक प्रमुख विषय बनता जा रहा है। जीवाणु जैव नियंत्रक जैसे स्यूडोमोनास पौधों में शक्तिशाली रोग प्रतिरोधकता को उत्तेजित करने वाले कारक हैं।

वृद्वि कारकः जैव नियंत्रक पर विस्तृत अध्ययन करने के उपरांत ज्ञात हुआ है कि कवक अथ्वा जीवाणु जैव नियंत्रक का प्रयोग विभिन्न फसलों में वृद्वि एवं उपज बढ़ानें का कार्य भी करते हैं यह वृद्वि निम्न कारणों से हो सकती हैः

  • जड़ में रहने वाले हानिकारक सूक्ष्म जीवों के नियंत्रित होने से।
  • पौधों में वृद्वि कारकों का सीधा उत्पन्न होना।
  • जड़ वृद्वि के कारण पोषक तत्वों का अधिक अवशोषण, नाइट्रोजन के अवशोषण में वृद्वि और सूखे के प्रति सहनशीलता आदि इसी क्रियाविधि के उदाहरण हैं।

अनुपलब्ध पादप पोषक तत्वों की घुलनशीलता और पृथकता

    मृदा में विभिन्न पोषक तत्वों का घुलनशील अवस्था से अघुलनशील अवस्था में जटिल परिवर्तन होता है जो जड़ों के माध्यम से उनकी उपलब्धता एवं अवशोषण को अत्याधिक प्रभावित करता है। मुख्यतः सूक्ष्म जीवों के द्वारा आयरन और मैंगनीज की ऑक्सीकृत अवस्थाओं की घुलनशीलता और पादप रोगों पर उनके प्रभाव से सम्बन्धित अध्ययन किये जा चुकें हैं। जीवाणु जैव नियंत्रक स्यूडोमोनास की प्रजातियाँ कुछ यौगिकों (साइड्रोफोर) को उत्घ्पन्न करती हैं, जिनमें आयरन के प्रति आकर्षण होता है।

आयरन युक्त साइड्रोफोर पादप रोग कारकों के लिए उपलब्ध नही होते हैं, जिस कारण उनकी क्रियाशीलता कम हो जाती है, परन्तु पादप जड़ें आयरन को अपचयन के बाद सीधे ही अवशोषित कर सकती हैं।

रोगकारक एन्जाइम की अक्रियाशीलता

    कुछ रोगकारक जीवित पौधों में उत्पन्न रोग विशेष प्रकार के एन्जाइम के उत्पादन पर निर्भर होते हैं। कभी-कभी जैव नियंत्रकों के प्रयोग के बाद ऐसे पदार्थों को उत्पन्न करते हैं जो रोग कारकों की कोशिका भित्ति को नष्ट करनें में सहायता करते हैं, जिससे रोग कारक की पौधों को संक्रमित करने की क्षमता कम हो जाती है। कुछ इस प्रकार के विवरण भी प्राप्त हुये हैं जिनमें ट्राइकोडर्मा की विभिन्न प्रजातियां पौधों पर प्रयोग करने से उपापचय पदार्थ उत्पन्न करती हैं। उदाहरण के लिए प्रोटिएसेस जो सीधे ही रोगकारक के पेक्टिनोलाइटिक, क्यूटीनोलाइटिक और सेल्युलोलाइटिक एन्जाइमों को सक्रिय/निष्क्रिय कर देते हैं।

जैव उत्पाद

    वैज्ञानिकों एवं सरकार के द्वारा पिछले दशक से जैविक रोगनाशकों (बायोपेस्टीसाइड) के विकास पर अत्याधिक ध्यान दिया जा रहा है। इस क्षेत्र में अनुसंधान सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही संस्थाओं में काफी तेजी से चल रहे हैं जिसके फलस्वरूप आज कई औद्योगिक इकाइयाँ जैव उत्पादों का व्यवसायिक उत्पादन कर रही हैं, कई प्रकार के व्यवसायिक जैव उत्पाद आज बाजार में उपलब्ध हैं तथा उनका प्रयोग पादपों के विभिन्न रोगों के नियंत्रण हेतु सफलतापूर्वक किया जा रहा है।

‘‘पादप रोगों के जैविक नियंत्रण में कवकों और जीवाणुओं को ही अधिकाँशतः उपयोग में लाये जाने का मुख्य कारण सूक्ष्मजीवियों की संख्या, क्षमता तथा कृषि कार्यों में उनकी सहभागिता ही मुख्य है। कवकों की कई प्रमुख प्रजातियां जैसे ट्रइकोडर्मा, ऐस्परजिलस, पेनिसिलियम, कीटोमियम तथा कोरियोपाइरियम पर अनुसंधान तथा परीक्षण कार्य चल रहा है।‘’

जैव रोग नियंत्रकों को प्रयोग करने की विधियाँ तथा बीजोपचार

    बीज की सतह को जैव नियंत्रकों से उपचारित करना इन कारकों को प्रयोग करने सर्वाधिक प्रचलित विधि हैं। इस विधि के अन्तर्गत जैव नियंत्रक को पानी में घोलकर लेई के रूप में उपयोग किया जाता है। इसमें कुछ चिपकाने वाले पदार्थ जैसे पेल जैल, कार्बोक्सिल मेथाइल सेल्युलोज, गोंद और टाक चूर्ण आदि का प्रयोग किया जाता है। ये जैव कारक बीज की सतह पर इन चिपकने वाले पदार्थों के द्वारा अच्छी तरह से चिपक जाते हैं।

बीज बायोप्राइमिंग

    पौध बीज बायोप्राइमिंग विधि के अंतर्गत पौध का मृदा में स्थापन सरल बनाने के लिए बीज को बुआई से पूर्व जलोपचारित किया जाता है और फिर बीज को जैविक नियंत्रक के घोल से लेपित कर गरम एवं आर्द्र दशाओं में जड़ें निकलने से ठीक पहले तक रखा जाता है और बीज की बुआई शीघ्र ही कर दी जाती है। बायोप्राइमिंग उस वातावरण में किया जाता है जहाँ पर वायु, तापमान और बायोप्राइमिंग जल माध्यम की जल क्षमता और उपचार की अवधि को नियंत्रित किया जाता है।

ट्राइकोडर्मा के बीजाणुओं को बीज पर जमाने की क्रिया कृषि के लिए एक आदर्श उपाय है और इसी प्रकार ट्राइकोडर्मा की संख्या रोग कारकों के आने से पहले ही काफी बढ़ जाती है। साधारण बीज की सतह उपचार की तुलना में बीज बायोप्राइमिंग अधिक लाभकारी विधि है। इसके परिणामस्वरूप पौध तीव्रता और समानता के साथ निकलती है और मृदा की विपरीत दशाओं जैसे निम्न ताप या अत्याधिक मृदा आर्द्रता में आसानी से उग जाती है।

जड़/ट्यूबर/कन्द/राइजोम/कतरन उपचार

    सब्जियों और धान आदि की पौध की जड़ों को रोपाई से पूर्व जैव नियंत्रक के घोल में डुबाया जाता है। इसी प्रकार वह फसलें जो पौध इकाइयों जैसे ट्यूबर, बल्ब, राइजोम अथवा कतरन आदि विधियों से उगाई जाती हैं, को भी उपयुक्त सान्द्रता वाले जैव नियंत्रक के घोल में डुबाया जा सकता है। सामान्यतः इसमें 8-10 प्रतिशत जैविक जीवनाशी का प्रयोग किया जाता है।

मृदा उपचार      

    मृदा उपचार के लिए जैव नियंत्रकों को कूड़ में, पौधे कं आधार पर अथवा सम्पूर्ण खेत में गोबर की खाद में मिलाकर फैलाया जाता है। खेत में गोबर की खाद के साथ डालने से पहले जैव नियंत्रक को गोबर की खाद में मिलाकर 10-12 दिन तक निवेशित करने के बाद डालना अधिक लाभदायक रहता है। ध्यान रहे कि इस दौरान खेत में पर्याप्त नमी का होना अति आवश्यक है।

पर्णीय छिड़काव

    पर्णीय रोगों के प्रबन्धन के लिए जैव नियंत्रकों का जल में घोल बनाकर पौधों के वायवीय भागों में संध्या काल में छिड़काव किया जाता है। यह छिड़काव कम ऊंचाई वाली फसलें जिनमें अधिक नमीं अधिकतर समय के लिए मृदा में बनाये रखनी पड़ती है, के लिए अधिक लाभकारी है।

एकीकृत रोग-प्रबन्धन में जैव नियंत्रक की भूमिका

     एकीकृत रोग-प्रबन्धन में जैव नियंत्रक की विधियों को एक साथ अथवा एक क्रम में प्रयोग किया जाता है। जैव नियंत्रकों के एकीकृत रोग प्रबन्धन के रूप में प्रयोग करने के अनेक लाभ हैं और यह कई कृषि विधियों के साथ प्रयोग करने के अनुकूज होने के कारण फसल प्रबन्धन में सफलता पूर्वक प्रयोग किया जा सकता है। विभिन्न जैव नियंत्रकों की कर्षण क्रियाओं जैसे मृदा का भौतिक उपचार, कवकनाशी तथा रोगरोधी प्रजातियों के साथ विभिन्न पादप रोगों के प्रबन्धन हेतु एकीकृत रूप में सफलतापूर्वक किया जा रहा है।

राइजोक्टोनिया सोलेनाई के द्वारा विलाडीत मृदा में जैव नियंत्रक के साथ मृदा में जैव नियंत्रक मृदा ऊर्जायन पादप रोग नियंत्रक की क्षमता को बढ़ाने में सहायक है और निवेश द्रव्य की बढ़वार कम कर देता है। जैव नियंत्रक के साथ उखाद या खरपतवारनाशी का एकीकृत रूप में प्रयोग पादप रोगों के नियंत्रण में सफल सिद्व हो चुका है।

    सामान्यतः प्रतिजैविक पदार्थों का कवक जैव नियंत्रक पर कोई विशेष प्रीाव नही होता है और जीवाणु जैव नियंत्रक, कवकनाशी के विरूद्व निष्क्रिय होते हैं तथा अधिकतर कवकनाशी (कॉपर, मरकरी वाले कवकनाशियों को छोड़कर) भी जीवाणु जैव नियंत्रकों के प्रति प्रभावहीन ही रहते हैं। ट्राइकोडर्मा हारजिएनम, ट्रा0 विरडी तथा ट्रा0 वाइरेन्स जैव कारक कार्बोक्सिन और ऑक्सीकार्बोक्सिन के विरूद्व प्रतिरोधी होते हैं।

इसलिए जैव नियंत्रकों के केवल अनुकूल प्रतिजैविक पदार्थों/कवकनाशियों के साथ मिश्रित अवस्था में प्रयोग किया जाता है। यह केवल कवकनाशियों और प्रतिजैविक पदार्थों के प्रयोग को ही कम नही करता है बल्कि जैविक नियंत्रण को भी प्रभावी बनाता है।

जैव नियंत्रण के लाभ

  • रासायनिक रोगनाशकों की अपेक्षा अत्याधिक किफायती होता है।
  • मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण पर कोई दुष्पं्रभाव नही होता है।
  • मृदा में उपस्थित अन्य लाभदायक जीवों के ऊपर भी कोई दुष्प्रभाव नही देखा गया तथा मृदा में पौधों के लिए लाभकारी जीवों की संख्या व उनकी क्षमता में उल्लेखनीय वृद्वि करता है।
  • मृदा प्रदूषण शून्य है, जल, वायु एवं मृदा आदि स्वच्द एवं स्वस्थ रहते हैं।
  • इनके प्रयोग से कृषिगत कार्यों में जल की आवश्यकता कम होती है।
  • रोगजनकों में इनके प्रति प्रतिरोधकता भी विकसित नही हो पाती है।
  • अनुपलब्ध अकाब्रनिक रासयनिक तत्वों को घुलनशील बनाकर पौधों के लिए उपलब्ध कर उनकी वानस्पतिक वृद्वि एवं उपज को बढ़ाने में सहायक सिद्व होता है।
  • फलों एवं फसलों के स्वाद में बढ़ोत्तरी होती है।
  • जैविक खेती में जीवनपाशकों का नियंत्रित करने का एकमात्र अच्छा उपाय है।
  • इसके प्रयोग से उत्पादित फलों एवं सब्जियों को अधिक समय तक ताजा रखा जा सकता है।

सावधानियाँ

  • उपचारित बीज की बुवाई से पूर्व यह सुनिलश्चित् कर लें कि मृदा में उचित नमी उपलब्ध हो।
  • इसका प्रयोग सेल्फ लाइफ के अन्दर ही किया जाना चाहिए।
  • बायोएजेण्ट से उपचारित बीज को रासायनिक उर्वरकों के साथ मिश्रित नही करना चाहिए।

    अब हमारे कृषक भी रासायनिक उर्वरकों के विपरीत प्रभावों को समझकर जैविक खादें आदि को अधिक से अधिक अपनाना चाहते हैं जिससे उसकी मदा जीवंतता सुरक्षित रह सकें। वातावरणीय प्रदूषण एवं खाद्यान्नों को रोगनाशकों (रासायनिक) विषाक्तता से बचाये रखने हेतु बायोएजेन्ट को प्रयोग करें और उनके सीमित लाभ तथा विस्तृत आर्थिक जाभ से लाभान्वित होने का लाभ उठायें।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।