सेहत लिए लाभदायक बहेड़ा

                                                                                   सेहत लिए लाभदायक बहेड़ा

                                                                                                                                               डॉ0 राकेश सिंह सेंगर एवं मुकेश शर्मा

रासायनिक संगठन: इसके फल में बीटा-सिटोस्टेरॉल, गेलिक अम्ल, इलैजिक अम्ल, इथाइल गैलेट, गैलोइल ग्लूकोज, चेबुलैजिक अम्ल तथा कार्डियक ग्लाइकोसाइड-बेल्लारिकैनिन) ट्राइटर्पीन-बेल्लेरिक अम्ल के साथ-साथ इसके ग्लूकोसाइड-बेल्लेरिकोसाइड) अर्जुनजेनिन तथा इसके ग्लाइकोसाइड) छाल में बेल्लेरिकाजेनिन अ तथा ब तथा इसके ग्लूकोसाइड्स-बेल्लेरिकासाइड्स अ तथा ब पाये जाते हैं।

चिकित्सीय मूल्यांकन: विभीतक के फल का चूर्ण, फेफड़ों को फैलाने, ऐंठन को कम करने, कफरोधी, कफ निस्सारक, अवसाद एवं दमारोधी प्रभाव डालते हैं। रोगियों पर चिकित्सीय परीक्षा में 2-6 ग्राम तीन बार प्रतिदिन ताजे पानी के साथ खाँसी, श्वास, श्वास के साथ खांसी में उपयोगी है। फल का अल्कोहल में बना सत्व पित्त को बढ़ाने वाला होता है। 30 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम की मात्रा (डोज) रक्तचाप तथा श्वांस बल्कि अधिक मात्रा 60 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम रक्त चाप को कम करता है) फल- कैंसररोधी) पुष्प- शुक्राणुनाशक होता है ।

निर्मित योग यह आयुर्वेद तथा यूनानी की बहुत सी औषधीय योगों में प्रयोग किया जाता है। कुछ महत्वपूर्ण योगों/दवाइयों जैसे विभीतक तैल, त्रिफला चूर्ण, फलात्रिक्तादि-क्वाथ, तालिसादि-चूर्ण, लवन्गादि-वटी, खादिरारिष्ट, गोक्षुरादि-गुग्गुल तथा पूर्ण यूनानी यौगिक दवाई जिसको त्रिफला कहते हैं।

                                                                      

विभीतक या बहेड़ा (टर्मिनेलिया बेल्लिरिका) कुल- कोम्ब्रेटेसी), एक प्रसिद्ध एवं बहुपरिचित आयुर्वेदिक निर्मित-योग ‘त्रिफला’ का एक घटक द्रव्य है। इसके फल पकने पर हल्का भूरापन लिये हुये, मखमली रंग के होते हैं। पके फल का छिलका ही औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है तथा उत्तम माना जाता है। आयुर्वेदिक एव यूनानी चिकित्सा पद्धतियों में इसका अधिकांशतः प्रयोग किया जाता है तथा अनेक औषधीय योगों के निर्माण में एक घटक के रूप में प्रयोग किया जाता है। औषधीय दृष्टि से इसका अर्धपक्व फल विरेचक और पूरे पके फल को संकोचक माना जाता है। इसका उपयोग खांसी, गले के रोग, स्वरभंग, ज्वर, उदर, प्लीहा वृद्धि, अर्श, अतिसार, कुष्ठ आदि रोगों में होता है। यह मस्तिष्क के लिये बल्य है तथा नेत्र पर इसका लेप लाभकारी होता है। फल की गिरी (मज्जा) वेदनास्थापक, शोथघ्न और मदकारी होती है। इसका तेल बालों के लिये अत्यन्त पौष्टिक, रंजक, कंडूघ्न एवं दाहशामक है। है। मज्जा अथवा छिलका को भूनकर मुख में रखने से खाँसी में बहुत में लाभ मिलता है।

यूनानी मतानुसार यह पहले दर्जे में शीत तथा दूसरे दर्जे में रूक्ष होता है। यूनानी ’इत्रिफल’ दवा समूह जो कि आयुर्वेद की ’त्रिफला’ के समान होता है, के निर्माण में भी इसका उपयोग बहुतायत से किया जाता है। विभतक (यह शब्द तीनों लिंगों में होता है), अक्ष, कर्षफल, कलिद्रुम, भूतावास और कलियुगालय से सब संस्कृत नाम बहेड़े के हैं। बहेड़ा-मधुर विपाक वाला, कषाय रसयुक्त, कफ तथा पित्त का नाशक, रूक्ष, नेत्र तथा बालों के लिए हितकर, कृमि एवं स्वरभेद को दूर करने वाला होता है। बहेड़े की मींगी (गिरी)- प्यास, वमन और कफ एवं वायु का नाश करने वाली, लघुपाकी, कषाय रसयुक्त और मदकारक होती है।

औषधीय उपयोग: बहेड़ा का फल आयुर्वेदिक औषधि का एक महत्वपूर्ण घटक है जो कि बहुत से पेट विकार सम्बन्धी रोगों में प्रयुक्त किया जाता है। इसका अधपका फल विरेचक तथा पका हुआ फल संकोचक होता है जो कि आँत को बांधने में सहायक होता है। फल संकोचक, तीखा/कडुआ, मथुर, उष्णता प्रदान करने वाला, शोथहर, पीड़ानाशक, रेचक, कृमिनाशक, कफ निस्सारक, आंखों से सम्बन्धी रोग, बुखार और वमन को रोकने में सहायक, कायाकल्प/यौवन लाने में सहायक होता है। फल, खाँसी, दमा, फेफड़े की सूजन, अन्ननलिका के रोगों, अनिद्रा, जलोदर, मन्दाग्नि/अजीर्ण, पेट के फूलने में, हृदय सम्बन्धी विकारों, रुधिर साव में भूत्र सम्बन्धी विकारों हिस्टेमिन शीर्पित चर्मरोगों, कुष्ठ रोगों, व्रण/नासूर आदि में प्रयोग किया जाता है।

                                                                      

                                                                          Photo Triphla

प्राप्ति स्थान: बहेड़ा के वृक्ष साल सागौन तथा अन्य महत्वपूर्ण वृक्षों के समागम में पतझड़ वाले वनों में 3000 फीट की ऊंचाई तक दूर-दूर फैले हुये तथा झुण्ड या एक समुदाय में नहीं पाये जाते हैं। यह बहुधा भारतीय प्रायद्वीप के सभी भागों में पाया जाता है। इसको औषधीय पौधे के रूप में भी रोपित किया जाता है।

पौध वर्णन: इसके वृक्ष, सुन्दर, बड़े, विशिष्ट गुण वाली 2.5-5 सेमी मोटी छाल से युक्त तथा 40-60 फीट लम्बे और 6-10 फीट मोटाई वाले होते हैं। तना सीधा, बहुधा बड़ा होने पर चिकना हो जाता है। पत्तियाँ 10-20 सेमी. तक लम्बी चौड़ी, अण्डाकार या अण्डाकार-अभिलट्वाकार चर्मिल, सरल अग्रभाग गोल या क्रमशः लम्बा एकान्तर क्रम में स्थित एवं शाखाओं पर समूहबद्ध होती है। मुख्य नाड़ी 6-8 के जोड़े में फैली हुई मध्य नाड़ी दोनों तरफ से उभरी हुई तथा डंठल 4-10 सेमी लम्बा होता है। पुष्प हरिताम-पीत वर्ण के एवं सुगंधयुक्त होते हैं। नर तथा उभयलिंगी दोनों प्रकार के पुष्प कोणों में कमजोर विदण्डिक तथा डण्ठलों से बड़े मगर पत्तियों से छोटे होते हैं। नर पुष्प ऊपरी भाग पर तथा छोटे-छोटे पर्णवृन्त पर विदण्ड़िक तथा उभयलिंगी और वृन्तहीन होते हैं। बाह्यदल कोष रोमश होता है तथा इसके अग्र भाग के दाँत त्रिकोणीय एवं नुकीले होते हैं। फल लगभग गोल 1.25-2.5 सेमी.,, भूरे तथा सूक्ष्म पीले रोयेंदार (मखमली) तथा सूखने पर झुर्रियादार हो जाते हैं।

सम्बर्धनः बहेड़ा के वृक्ष धूप में बेहतर लेकिन छाया में भी हो सकते हैं। छोटी उम्र के या कम अवस्था के पौधे लगभग एक या दो वर्ष तक अधिक छायादार स्थानों पर हो सकते हैं, परन्तु उसके बाद ये पौधे नष्ट हो जाते हैं। छोटी उम्र के पौधे पाले जिनमें पत्तियाँ सबसे अधिक उस उम्र में उगने वाले अन्य पौधों की अपेक्षा अधिक प्रभावित होती हैं। इसके वृक्ष कठोर तथा इसमें सूखे का कम प्रभाव होता है यद्यपि इसके वृक्ष रेगिस्तानी या सूखे स्थानों पर नहीं मिलते हैं। इसके वृक्षों का संवर्धन प्राकृतिक एव कृत्रिम दोनों प्रकार से किया जा सकता है।

प्राकृतिक: बहेड़ा के प्राकृतिक संवर्धन/प्रवर्धन के लिये निम्न दशाओं की आवश्यकता होती है, जैसे कि अच्छे बीज उत्पादित करने वाले वृक्ष, स्वस्थ एवं उत्तम जमाव वाले विस्तृत रूप से वितरित होने वाले बीज एवं नव स्फुटित पौधों की वृद्धि हेतु प्रथम तीन वर्षों तक समुचित छाया। प्रायद्वीपीय जंगलों में प्राकृतिक सम्वर्धन पर्याप्त मात्रा में होता है परन्तु शुष्कता की अवस्था में इसके भ्रूण की नमी के प्रति अति संवेदनशीलता के कारण इसके पौधे नष्ट हो जाते हैं। अतएव इसके जमाव व प्रारम्भिक वृद्धि के समय पर्याप्त नमी का होना आवश्यक होता है।

कृत्रिम: इसके परिपक्व फलों को नवम्बर तथा दिसम्बर के समय एकत्र किया जाता हैं तथा इसके गूदे को तुरन्त निकाल कर भण्डारण के पहले धूप में सुखाया जाता है। मार्च से मई के बीच में बीज को बोने से पहले इसे ठंडे पानी में एक दिन के लिये भिगोया जाता है तथा नर्सरी में बोने के बाद उसमें बराबर पानी दिया जाता है तथा पौधों की रोपाई एक वर्ष के बाद की जाती है। बीज का अंकुरण 14 दिनों में शुरू हो जाता है तथा एक महीने में पूरा हो जाता है। सामान्यतया 2-4 महीने पुराने कोमल छोटे-छोटे पौधे रोपाई के लिये उपयुक्त होते हैं।

उपयोग: इसकी लकड़ी की माँग वहाँ पर अधिक होती है जहाँ पर टिकाऊ तथा अच्छी लकड़ी भवन निर्माण सामग्री के लिये नहीं मिलती है। यह प्रायः/सामान्यतया खुरदुरे धुरे, गाडी सग्गड़, कोयले की खान के खम्भे, भवन निर्माण, तख्ता धरनी या बेड़ा बनाने में, पैकिंग के डिब्बों, नाव के अगल-बगल वाली सतहों, जहाज के तख्तो तथा लट्ठों के बेड़ों को बनाने में उपयुक्त होती है, क्योंकि इसको लकड़ी पानी के अन्दर अच्छी टिकाऊ मानी जाती है। फल कोग्लेजिन तथा चेबुलिक अम्ल के अलावा व्यावसायिक माइरोबालान के सभी गुण रखता है तथा यह चेबुलिक माइरोबालान (हरड़) के स्थान पर चमड़े को टैन करने में प्रयुक्त हो सकता है। टेनिन में दोनों प्रकार गाढ़ा तथा जलीय को समान/बराबर मात्रा में बहेड़े के फल तथा बबूल की छाल के सत्व को मिलाकर प्रयोग करके प्राप्त चमड़े का रंग हल्का तथा न फटने की सम्भावना रहती है, लेकिन केवल बहेड़े का फल प्रयोग करने पर थोड़ा गाढ़ा रंग हो जाता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालयए मेरठ में प्रोफेसर तथा कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग के प्रमुख हैं।

डिस्कलेमरः उपरोक्त विचार लेखक के अपने हैं।