भारतीय कृषि में परम्परागत तकनीकों का महत्व

                  भारतीय कृषि में परम्परागत तकनीकों का महत्व

                                                                                               डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं डॉ0 कृषाणु सिंह

परम्परागत कृषि तकनीकें किसानों के अनुभवों पर आधारित, पारिस्थितिकी की माँग के अनुरूप, स्थानीय सभ्यता से जुड़ी तथा कृषक समाज में स्वीकार्य एवं किफायती और कृषि के लिए लाभकारी होती हैं। भारत के विभिन्न भागों में कृषकों के द्वारा अपनाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की परम्परागत तकनीकें अपनाई जा रही हैं, जिन्हें विज्ञान से जोड़कर अधिक प्रभावी और किसानों के लिए समृद्वशाली बनाई जा सकती है।

धान की ऊपरी पत्तियों को काटकर हरा चारा, वानस्पातिक विकास एवं उपज में वृद्वि

    धान रोपाई के लगभग 25-30 दिनों के बाद कृषक इनका ऊपर से 15-20 से.मी. भाग को काटकर उसे पशुओं के लिए हरे चारे के रूप में उपयोग कर लेते हैं। कटाई के उपरांत, हल्की सिंचाई एवं यूरिया 75 का कि.ग्रा./हैक्टर की दर से छिड़काव करने से तना बेधक कीट जो कि प्रारम्भ में पौध के अग्रशिरा भाग पर अंड़ें देते हैं, उनकी समाप्ति भी हो जाती है। इस प्रकार से इस तकनीक के माध्यम से पशुओं के लिए पर्याप्त रूप में हरा चारा, पौध का उत्तम वानस्पातिक विकास एवं भरपूर उपज एवं भूसा प्राप्त होता है।

                                                              

                                                                             चित्रः चारा हेतु धान की पत्तियों की कटाई

गेंहूँ की बालियों को सुखाना

    गेहूँ की फसल की कटाई के समय यदि वर्षा हो जाए तो ऐसे में गेहूँ की बालियों को सुखाने के लिए कोई सुरक्षित स्थान उपलब्ध न हो तो कृषक के समक्ष एक बहुत विकट परिस्थिति उभर कर आती है। उसके गाँव के अन्य कृषक जिनकी फसलें कट चुकी होती हैं, वे अपनी गाय, बकरी आदि पालतू पशुओं को चरने के लिए छोड़ देते हैं। ऐसी परिस्थितियों में किसान गेहूँ की बालियों के छोटे-छोटे गट्ठर अथवा बण्ड़ल बनाकर पौध के तनों पर रखकर सुखाते है तथा सूखने बाद इनको सुरक्षित स्थान पर ले जाकर इनकी मड़ाई एवं भण्ड़ारण करते हैं।

रोपित धान की सुरक्षित पौध रखने की तकनीक

    अपनी जमीन के प्रत्येक छोटे से छोटे टुकड़ें का उपयोग करने के लिए कृषक पौधशाला वाले क्षेत्र से पौध को उखाड़ कर उसमें भी रोपाई कर देते हैं। उखाड़े गये पौधों के वह छोटे-छोटे बण्ड़ल बनाकर एक ढेर के रूप में 6-8 दिनों के लिए सुरक्षित रखना होता है। इन पौधों को रोपाई अथवा गैप फिलिंग के लिए उपयोग में लाया जाता है।

                                                  

                                                       चित्रः धान की पौध को लम्बे समय तक संरक्षित रखना

लहसुन की गाँठ के विकास की तकनीक

    भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में फरवरी माह से तापमान के बढ़ने के साथ-साथ अन्य फसलों की तरह से ही लहसुन में तीव्र वानस्पातिक वृद्वि प्रारम्भ हो जाती है। लहसुन की खेती करने वाले किसानों में मान्यता है कि लहसुन के पौधे की अधिक वानस्पातिक विकास, इसकी गाँठ के विकास को भी प्रभावित करता है। इसके नियंत्रण के लिए कृषक मार्च माह में लहसुन की पत्तियों की आपस में गाँठ बाँध देते हैं, जिससे जमीन के अदर लहसुन की गाँठे बड़ी बनती है, साथ ही ख्ेत अगली फसल की बुआई के लिए यथा समय ही खाली हो जाता है।  

                                                                     

                                                                        चित्रः बड़ी गाँठ हेतु लहसुन की पत्तियों को बाँधना

मक्के के भुटटे का पशु एवं पक्षियों से बचाव

    मक्के के भुट्टे को तोते, चिड़िया या बन्दर क्षति पहुँचाकर मक्का की उपज पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। इस नुसान से बचने के लिए किसान भुट्टे में दाना बनने के बाद उसे पुरानी पॉलीथिन अथवा कपड़े से बाँध देते हैं। ऐसा करने से तोते, चिड़िया और बन्दर आदि उसे खा नही पाते और कृषक को भरपूर उपज की प्राप्ति हो जाती है।

भूसे की उपलब्धत बढ़ाने के लिए धान के लुट्टेः

    किसानों के लिए धान की खेती प्राप्त होने वाला अनाज एवं भूसा दोनों ही समान महत्व रखते हैं। किसान प्रायः धान की ऐसी प्रजातियों का चुनाव करते हैं, जिनसे उन्हें अनाज एवं भूसा दोनों ही पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हो सके। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किसान धान की फसल की कटाई के पश्चात् उससे प्राप्त होने वाले अनाज का भण्ड़ारण भी करते है। पौधों के तनों के छोटे-छोटे गट्ठर बनाकर पेड़ की डालियों पर विशेष तरीकों से रख देते हैं।ं जिसे परम्परागत रूप से ‘‘लुट्टा’’ कहा जाता है। इसका उपयोग आवश्यकता के अनुरूप विशेष रूप से सर्दियों में किया जाता है।

सब्जियों में कीट एवं रोग-प्रबन्धन

    देश में बहुतायत में उपलब्ध बिच्छु घास एवं बकैन की पत्तियाँ जिनकी मात्रा 3-4 कि.ग्रा. को 4-8 लीटर गौ-मूत्र में घोलकर इस 24-48 घंटे के लिए घर में किसी ठण्ड़े स्थान पर रख देते हैं। इस समयावधि में इन दोनों वनस्पतियों का अर्क गौ-मूत्र में मिल जाता है। अब वनस्पति को निचोड़ कर इस घोल से बाहर निकाल लेते हैं। इस प्रकार से तैयार घोल की एक लीटर मात्रा को 15 लीअर पानी में घोलकर बहुत से किसान एक जैविक रोगनाशी के रूप में उपयोग करते हैं। यह विभिन्न सब्जियों जैसे-टमाटर, शिमला-मिर्च, बैंगन, लौकी, ककड़ी, खीरा, कद्दू, मूली एवं प्याज आदि फसलों में लगने वाली फँफूद जनित बीमारियों के नियंत्रण हेतु उपरोक्त घोल प्रभावी पाया गया है।

नियंत्रणः

परम्परागत कृषि यन्त्र ‘‘दिलार’’ से मृदा को तोड़ना

    खरीफ की फसलों की कटाई के पश्चात् खेत की जुताई करने पर बहुत से बड़े-बड़े ढेले निकलते हैं, जो कि विशेष रूप से धान रोपित खेतों में आसानी से देखे जा सकते हैं। इनके निराकरण के लिए कृषक परम्परागत रूप से बने निर्मित एक उपकरण ‘दिलार’ से बड़े-बड़े ढेलों को पीटकर उन्हें छोटे-छोटे ढेलों के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। इस प्रकार से अगली जुताई के बाद खेत समतल एवं उसकी मृदा भुरभरी हो जाती है और यह अगली फसल की बुआई के लिए उपयुक्त हो जाती है। यह यन्त्र स्थानीय बाजार/लुहार से लगभग 100-150 रूपये में खरीदा जा सकता है।

कृषि यन्त्र ‘रेक’ के द्वारा खरपतवार नियंत्रण के साथ नमी का संरक्षण भी

फ्राँसबीन, सोयाबीन, भट्ट तथा मंडुआ आदि फसलों की बुआई का समय अपैल-मई का महीना होता है। बुआई करने के पश्चात् यदि बारिश हो जाए तो इससे मृदा की सतह पर पपड़ी की एक तह बन जाती है, जिसके कारण फसल के अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं। इस समस्या के सामधान हेतु किसन 3-8 दाँत वाले रेक का उपयोग करते हैं। इस रेक को मृदा की सतह पर धीरे-धीरे चलाया जाता है जिससे वर्षा के कारण बनी यह पपड़ी टूट जाती है और पौधों का अंकुरण समुचित ढंग सक होता है। इसके अतिरिक्त रेक का प्रयोग करने से जमीन पर उगे खरपतवार भी उखड़ जाते हैं। अतः इस एक यन्त्र की सहायता से खरपतवार नियंत्रण के साथ-साथ नमी का संरक्षण भी समुचित ढंग से होता है।

‘दनाला’ का उपयोग कर नमी संरक्षण एवं खरपतवार नियंत्रण

    चैती धान, मंडुआ, राहत और भट्ट आदि की बुआई मानसून की वर्षा से पूर्व सीमित नमी की स्थिति में की जाती है। मानसूनी वर्षा के बाद यह फसलें तीव्र गति के साथ वृद्वि करती हैं। जब इन फसलों का अंकुरण होता है तो अनेक प्रकार के खरपतवारों का अंकुरण भी इसी समय हो जाता है, जो फसल के साथ पानी, प्रकाश एवं पोषण के लिए प्रतिस्पर्धा कर इनकी वानस्पातिक वृद्वि पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। अतः इस प्रकार की स्थिति से पिटने के लिए कृषक देश के विभिन्न क्षेत्रों में एक ‘दनाला’ नामक हल-नुमा उपकरण की सहायता से अगस्त माह में खेत की जुताई कर देते हैं। जिसके कारण मृदा से निकलने वाली नलिकाएँ विखण्ड़ित हो जाती हैं, जिसके ख्लते खेत में नमी का संरक्षण लम्बे समय के लिए होता है और खेत में उगे खरपतवार भी उखड़कर नष्ट हो जाते हैं।

कुरमुला कीट नियंत्रक तकनीक

                                                            

    उक्त कीट असिंचित क्षेत्र में होने वाले चैती धान, मंडुआ, मादिरा एवं सोयाबीन आदि को सर्वाधिक हानि पहुँचाता है। इस कीट के नियंत्रण के लिए कृषक बकैन तथा राम बाँस की पत्तियों का प्रयोग बहुतायत में करते हैं। बकैन एवं रामबाँस की पत्तियाँ 2-3 कि.ग्रा., 6-8 लीटर पानी में डालकर रातभर के लिए छोड़ दिया जाता है और प्रातःकाल में इन पत्तियों को निचोड़ कर निकाल लिया जाता है अब यह घोल जैविक कीटनाशी के रूप में उपयोग करने हेतु तैयार है।

फसल में इस घोल का प्रयोग 2-4 बार किया जाता है। जिनमें से पहली बार खेत की तैयारी के समय अन्तिम जुताई के बाद 250 मि.ली. घोल को 15 लीटर पानी में मिलाकर इसका खंत में छिड़काव कर दिया जाता है। इसके बाद इसका दूसरी बार प्रयोग फसल की बुआई के 20-25 दिनों के बाद उपरोक्त दर से पौधों की जड़ों के समीप इस घोल को डालकर अपनी फसल को कुरमुला कीट से बचाते हैं।

तिलहनी फसलों में माहू कीट का नियंत्रणः

    रबी में तिलहन तथा पीली सरसों, तोरिया, लाही आदि प्रमुखता के साथ उगायी जाने वाली फसलें हैं। इन फसलों को जनवरी-फरवरी माह में माहू नामक कीट सर्वाधिक क्षति पहुँचाता है। इसके नियंत्रण के लिए आसानी के साथ उपलब्ध होने वाली वनस्पति, राम बाँस का प्रयोग कर सकते हैं। इसके लिए राम बाँस की पत्तियों को 2-3 कि.ग्रा. की मात्रा को 15 लीटर पानी में कूटकर डालते हैं, फिर इसके बाद इसे रातभर के लिए ऐसे ही छोड़ देते हैं। अब इस जैविक कीटनाशी की 250 मि.ली./नाली की दर से फरवरी माह में माहू कीट से प्रभावित तिलहन की फसल पर छिड़काव कर अपनी फसल का इस कीट के प्रकोप से बचाव करते हैं।

                                                                

                                                                                         चित्रः राम बाँस

धान की फसल का चूहों से बचावः

देश लगभग सभी भागों में चूहों के द्वारा धान की फसल को अत्याधिक हानि पहुँचाई जाती है, जिसे कारण धान की उपज में भारी कमी आ जाती हैं। चूहां से बचाव के लिए किसान खेत के चारों ओर धतूरे के पौधों को लगा देते हैं। सामान्यतः एक नाली क्षेत्रफल (200 मी2) के लिए 8-10 धतूरे के पौधों की संख्या पर्याप्त रहती है।

धान की फसल के परिपक्व होने से पूर्व ही धतूरा पक जाता है और उसके बीज रास्तों पर गिर जाते हैं। इसके बाद जब भी चूहें खेत में प्रवेश करते हैं तो पहले रास्तें में पड़ें इन धतूरे के बीजों को खा लेते हैं और धतूरे के बीज का स्वाद कड़वा होने के कारण डरकर वहाँ से भाग जाते हैं और पुनः लौटकर नही आते हैं, इस प्रकार किसन अपनी फसल को चूहों के प्रकोप से बचा लेते हैं।

मधुमक्खी पालन

    चौडे पत्थर एवं मिट्टी से बनी दीवार के अन्दर करीब 1 फिट लम्बी व चौड़ी दीवार को तोड़कर इसक तल को समतल बना लेते हैं। इसके बाद अन्दर की दीवार को लकड़ी, मृदा एवं गोबर के लेप से बन्द कर देते हैं और इस प्राकर से बन्द करने से पूर्व इस रिक्त स्थान में थोड़ा-सा शहद, गुड़ एवं चीनी रख देते हैं। अब दीवार में बाहर की ओर छोटे-छोटे 6-8 ऐसे छिद्र बनाते हैं कि उनमें मधुमक्खियाँ आसानी से अन्दर एवं बाहर आ तथा जा सकें इस प्रकार धीरे-धीरे मधुमक्खियाँ छिद्र के माध्यम से गुड़ एवं शहद की ओर आकर्षित होती हैं, जिससे शहद बनने की प्रक्रिया स्वयं ही आरम्भ हो जाती है और पाँच से छह दिनों के अन्दर शहद तैयार हो जाता हैं शहद को निकालने के लिए कृषक अन्दर की दीवार को हल्का सा तोड़ते हैं।

एक डंडा जिसके एक सिरे पर कोई पुराना कपड़ा बाँधकर उसमें आग लगाकर दीवार के उस टूटे भग से अन्दर डालते हैं और इस प्रकार आग से डरकर मधुमक्खियाँ भाग जाती हैं और किसान आसान से शहद निकाल लेते हैं। इस प्रकार छः माह में 2-3 बातल शहद निकल आता है जिसकी बाजार में 500-600 रूपये प्रति बातल की दर से भाव मिल जाता है और कृषकों को अतिरिक्त कमाई हो जाती है। 

सब्जी एवं बीज भण्ड़ारण के लिए गोबर के घका प्रयोगः

    लौकी, ककड़ी, खीरा, कद्दू, करेला एवं मैरो आदि के बीजों को गोबर के घोल में अच्छी तरह से मिलाकर इन्हें छाया में सुखा लेते हैं। बीजों के अच्छी तरह से सूख जाने के बाद इन्हें किसी टिन अथवा प्लास्टिक के डिब्बें में भण्ड़ारित कर लेते हैं। इस उपचार से बीजों में कीओं का प्रकोप नही होता है।

अनाज का भण्ड़ारण

    अच्छी तरह से सूख्े हुए अनाज को मृदा अथवा टिन के कण्टेनर में भण्ड़रित किया जाता है। अनाज के बीज एवं ऊपरी सतह पर अखरोट, बकैन और तिमूर आदि की सुखी हुई पत्तियों को इसमें रखकर इस बरतन के मुहँ पर गोबर एवं मिट्टी के लेप से बन्द कर देते हैं। इस प्रकार बहुत से किसान बिना किसी रसायन का प्रयोग करते हुए अनाज का सुरक्षित भण्ड़ारण करते हैं। जबकि दलहन को भण्ड़ारित करने से पूर्व उनके बीज पर सरासों के तेल का लेपन भी किया जाता है।

दालों में तुलसी के सूखे हुए पत्ते डालने से भी उसमें कीट नही लगते हैं। चावल के भण्ड़ारण पात्र में 8-12 लाल मिर्च डालकर चावल को खराब होने से बचाया जा सकता है। हालांकि कुछ किसान अनाज एवं दालों में राख मिलाकर भी भण्ड़ारित करते हैं। किसी भी अनाज को कीटों से बचाने के लिए किसान नीम की सूखी पत्तियों का उपयोग भी करते हैं।

तुमड़े (लौकी का सूखा हुआ खोल) का प्रयोग कर बीज का भण्ड़ारण

    आमतौर पर किसान बीज की पुडिया बनाकर अथवा उसे किसी पुराने कपड़ें में बाँधकर किसी पुराने डिब्बें में रख देते हैं। इस प्रक्रिया से बीज में नमी आ जाती हे और उसमें कीट आदि भी ल्र जाते हैं। जिससे इनकी जब बुआइ्र की जाती है तो इनका अंकुरण समुचित रूप से नही होता हैं बीज के प्रभावी भण्ड़ारण के लिए कृषक लौकी के खोल अथवा तुमड़ें का उपयोग करते हैं।

इसके लिए लौकी के गूदे और बीजों को निकालकर उस बचे हुए खोल को अच्छी तरह से सुखा लिया जाता है और पूरी तरह  से सूखे हूए लौकी के इन खोल में विभिन्न सब्जियों के बीज डाल दिए जाते हैं, और इनके मुहँ को अच्छी तरह से बन्द कर दिया जाता है। बुआई के समय लौकी के खोल के मुहँ को खोल कर बीज निकाल कर बुआई कर देते हैं।    

                                                             

                                                             चित्रः लौकी का सूखा हुआ खोल अर्थात तूमड़

पशुओ में खुरपका-मुँहपका रोग का नियंत्रणः

                                                             

 

    सबसे पहले रोगी पशु को अन्य पशुओं के झुण्ड़ से अलग कर किसी छायादार एवं ठण्ड़े स्थान पर रखा जाता है। इस रोग के निदान के लिए आडू एवं बकैन की पत्तियों को कॅटकर इनका पेस्ट बना लेते हैं, जिसमें 6-8 लाल मिर्च भी मिलाई जाती है। इस पेस्ट को पशु के घाव पर 5-6 दिन तक लगाते हैं। इसके नियंत्रण के लिए कृषक गूड़, हल्दी एवं सरसों के तेल का लेप तैयार करके भी लगाते हैं।

पशुओं की हड्डी टूटने का उपचारः

    विभिन्न प्रकार की दुघर्टनाओं के चलते कई बार पशुओं की हडडी टूट जाती है। इसके निदान के लिए चीड़ की पत्ती, गेरू (लाल मृदा), एवं चूनें के मिश्रण को गर्म कर पशुओं के प्रभावित अंग पर इसका लेप कर उसे किसी कापड़ें से अच्छी तरह से बाँध देते हैं और यह कुछ दिनों में ठीक हो जाता है।

रासायनिक उर्वरक, कीटनाशी रसायनों एवं विभिन्न उन्नत कृषि यन्त्रों के प्रयोग करने से वर्तमान में कृषि निःसन्देह समृद्व हुई है। वहीं एक निर्विवाद सत्य यह भी है कि इनके उपयोग से कृष में शैने-शैने अनेक समस्याओें जैसे- मृदा एवं पर्यावरण प्रदूषण, मृदा की उर्वराशक्ति में निरंतर कमी का आना कृषि उत्पादों का विषाक्त होना आदि समय के साथ बढती ही जा रही है। इनका निर्बाध रूप से प्रयोग करने के कारण फसल-कीटों में इनके प्रति प्रतिरोधी क्षमता में काफी विकास हो चुका हैं जिसके परिणाम स्वरूप साल-दर-साल इनकी मात्रा को बढ़ाकर प्योग करने से भी अब कीट नही मर रहे हैं।

इसके साथ ही इन अपेक्षाकृत महंगे संसाधनों के प्रयोग करने से कृषि के उत्पादन में व्यय की बढ़ोत्तरी भी हो रही है, जिसके कारण किसानों को वांछित लाभ की प्राप्ति में भी बाधां उत्पन्न हो रही हैं। इस सब के विपरीत सुदूर भारत के ग्रामीण अंचलों में कृषकों के द्वारा अनेक लाभदायक ऐसी परम्परागत कृषि तकनीकें अपनाई जा रही हैं, जिन्हे वे अपने पूर्वज कृषकों से सीखते हुए पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाते रहते है, का प्रयोग किया जा रहा है जो न केवल किफायती होने के साथ ही साथ पर्यावरण हितैषी भी होती हैं।

इनमें से अधिकतर तकनीकें अलिखित एवं क्षेत्र विशेष की समस्याओं पर आधारित होती हैं। इन पद्वतियों का विकास विज्ञान पर आधारित न होकर कृषको के द्वारा परम्परागत रूप से किया जाता रहा है और आज भी किया जा रहा है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।