किसान अधिक आय हेतु ग्रीष्मकालीन भिण्डी का उत्पादन करें

         अधिक आय हेतु किसान करें ग्रीष्मकालीन भिण्डी का उत्पादन

                                                                                                                         डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं डॉ0 कृषाणु सिंह

जैसा कि सर्वविदित है कि उत्तरी भारत में भिण्डी की वर्ष में दो फसलें ली जाती है यथा ग्रीष्मकालीन और वर्षा कालीन भिण्ड़ी, जबकि ग्रीष्मकालीन भिण्डी की फसल आर्थिक रूप से अधिक लाभकारी होती है, क्योंकि भिण्डी ग्रीष्मकालीन सब्जियों में अपना एक विशेष स्थान रखती है और इस समय बाजार में अन्य सब्जियों में कमी होने के कारण इस की मांग में वृद्धि होना स्वाभाविक है, जिससे उसका बाजार भाव भी अधिक ही रहता है। अतः ग्रीष्मकालीन भिण्डी के उत्पादन से कृषकों को अधिक लाभ मिलना ही चाहिए, परन्तु अक्सर ऐसा नहीं होता है, जिसका मुख्य कारण कृषकों को इसकी उत्पादन तकनीक की पूरी जानकारी का नही होना है, जिसकी जानकारी हमारे इस लेख में दी जा रही है।

                                                                      

  • बीज किसी प्रमाणित संस्थान से उन्नत किस्म का प्राप्त करें।
  • बीज को खेत में बोने से पूर्व बीज को उसे 24 घंटे तक पानी में भिगोयें, जो बीज पानी के ऊपर तैर जायें, उन्हें निकाल दें, जो नीचे पानी डूब जाये केवल उन्हीं बीजों की बुआई करें।
  • बीज को बोने से पूर्व खेत की पलेवा अवश्य करें।
  • बीज भिगोने के पश्चात् उन्हें 3-4 घंटे तक छाया में सुखाएं।
  • बीज को कवकनाशी से उपचारित अवश्य ही करें।
  • फसल की मांग के अनुसार पोषक तत्व समय पर दें।
  • बीजो को सदैव पंक्तियों में ही बोऐं, बीज को अधिक गहरा या उथला न बोऐं।
  • फसल की सिंचाई फसल की मांग के अनुसार करें।
  • फसल के पुष्पन काल में सिंचाई अवश्य करें।
  • फसल सुरक्षा के उपाय उचित समय पर अपनाऐं।
  • फलियों की तुड़ाई उचित समय पर ही करें।
  • फलियों को तोड़ने के उपरान्त ही कीटनाशकों व कवकनाशकों का प्रयोग करें।
  • फलियों के आकार के अनुसार श्रेणीकरण करके बाजार ले जाएँ।

भिण्ड़ी के उत्पादन की वैज्ञानिक तकनीक

                                                                       

जलवायु : भिण्डी गर्म जलवायु का पौधा है, भिण्डी के बीजों का अंकुरण भूमि के तापमान 20-25 डिग्री से. पर ही होता है यदि तापमान 20 डिग्री से कम होता है, तो भिण्डी बीज का अंकुरण कम होता है और पुष्पन के समय वातावरण का तापमान 40 डिग्री से. से अधिक होने पर फसल अच्छी नहीं होती है क्योंकि परागण व निषेचन क्रियाऐं बाधित हो जाती हैं, फूल झड जाते है अतः भ्ण्ड़ि के पौधों के फलने-फलने के लिए लम्बे एवं गर्म दिनों की आवश्यकता होती है।

भूमि : भिण्डी की खेती, विभिन्न प्रकार की भूमियों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। वैसे भिण्डी के लिए उचित जल निकास वाली दोमट या रेतीली दोमट मृदा वाली भूमि, जिसका पी0एच0 मान 6.0 तथा 6.8 के बीच हो को अच्छा माना जाता है। यदि भूमि हल्की अथवा भारी है तो उसमें पर्याप्त मात्रा में गोबर की खाद, वर्मी कम्पोस्ट का प्रयोग कर भिण्डी की अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है।

खाद एवं उर्वरक : खाद एवं उर्वरकों की आवश्यकता भूमि की उर्वराशक्ति पर निर्भर करती है। अतः मृदा परीक्षण के अनुसार ही खाद एवं उर्वरकों को उपयोग करना चाहिए, जिससे आर्थिक बचत होती है, मृदा परीक्षण की सुविधा के अभाव में और सामान्य प्रकार की उर्वरा शक्ति वाली भूमि में 10-15 टन गोबर की खाद/कम्पोस्ट खाद का प्रयोग बीज बोने से 35-40 दिन पूर्व ही खेत में करना चाहिए। भिण्डी की भरपूर पैदावार लेने हेतु 100 किलो नाइट्रोजन, 40 किलो फॉस्फोरस और 40-60 किलो पोटाश प्रति है0 की दर से डालनी चाहिए।

नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फॉस्फोरस व पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा को खेत की अन्तिम जुताई के समय देना चाहिए और शेष नाइट्रोजन को दो भागों में बांट कर, इसका पहला भाग बुआई के 30-36 दिन बाद व दूसरा भाग 60 से 65 दिन बाद खड़ी फसल में देना लाभकारी पाया गया है। यदि फसल फिर भी कमजोर हो तो 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का छिड़काव 1-2 बार कर सकते हैं, पुष्पन के समय यूरिया के घोल का छिड़काव करने से भी फसल अच्छी प्राप्त होती है।

खेत की तैयारी : खेत की प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल या ट्रैक्टर से करें और उसके उपरांत 2-3 बार हैरो / देशी हल से जुताई करके मिट्टी को भूरभूरा कर लें और एक बार पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए। खेत में थोड़ा ढाल अवश्य रखें, ताकि खेत से फालतु पानी को सुगमता से बाहर निकाला जा सके। खेत को सिंचाई भी सुविधानुसार छोटी-छोटी क्यारियों में बांट लेना चाहिए, जिससे कर्षण क्रियाएं सुगमता से की जा सके।

उन्नतशील किस्में ही बोए : भिण्डी की भरपूर उपज लेने हेतु केवल उन्नतशील किस्में ही उगानी चाहिए, क्योंकि ये किस्में स्थानीय किस्मों से अधिक ऊपज देती है साथ में रोगरोधी होने के अलावा जल्दी फलियां देती है। अतः कृषकों को उन्नतशील किस्में ही उगानी चाहिए। जिनके नाम नीचे दिये गए हैं-

1.   पंजाब-7 2. पंजाब-8, 3. पंजाब पदमिनी, 4. परमानी क्रान्ति, 5. हिसार उन्नत 6. अर्का अनामिका, 7. अर्का अभय, 8, वर्षा उपहार आदि।

बीज बोने को समय : ग्रीष्मकालीन भिण्डी की बुआई का उचित समय 15-फरवरी से 30 मार्च तक मैदानी क्षेत्रों में कर देनी चाहिए। देरी से बोने से उपज में भारी कमी हो जाती है। जबकि पर्वतीय क्षेत्रों में भिण्डी  की बुआई मार्च-अप्रैल माह में करनी चाहिए।

बीज की मात्रा : एक हैक्टेयर के खेत की बुआई के लिये 18-20 किलो बीज की आवश्यकता होती है।

बीजोपचार : 2-3 ग्राम थाइराम / कैप्टान नामक फफूंदीनाशक दवा की मात्रा को प्रति किलो बीज की दर से बीज को उपचारित करना चाहिए।

बीज बोने की विधि : बीज को 24 घंटे तक पानी में भिगोंए जो पानी की सतह पर तैरने लगे, उन्हें निकाल दें, जो बीज नीचे बैठ जाएं केवल उन्हीं को बोए, 24 घन्टे बाद बीज को छाया में सुखाकर पानी अलग करें। जल्दी अंकुरण के लिए बीज को एक कपड़े की थैली में बांधकर रख दें या सूखे खाद की गड्ढ़े में लगभग 30 से.मी. की गहराई पर दबाकर रखें। जब बीज में हल्का अंकुरण हो जाए तो पहले से ही तैयार खेत में 45 से.मी. की दूरी पर बनी पंक्तियों में हाथ या कल्टीवेटर की सहायता से 4-5 से.मी. की गहराई पर उकी बुआई कर दें।

बुआई करते समय बीज की पारस्पारिक दूरी 15 से.मी. रखें और एक ही स्थान पर कम से कम 2 बीज अवश्य बोएं। पूरी तरह से अंकुरण हो जाने के बाद कमजोर पौधों को खेत से निकाल दें और पौधे से पौधे के बीच की दूरी 30 से.मी. कर लें, क्योंकि इससे पौधों का विकास और उनकी बढ़ोत्तरी अच्छी होती है।

सिंचाई एवं जल निकास की व्यवस्था : बीज के अच्छे अंकुरण के लिए खेत में पर्याप्त नमी का होना नितांत आवश्यक है। अतः भिण्डी की बुआई हमेशा पलेवा करने के बाद ही करनी चाहिए। ग्रीष्मकालीन भिण्डी की फसल में अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है अतः किसानों को चाहिए कि वह भिण्डी की सिंचाई प्रतिसप्ताह की दर से करते रहें क्योंकि सिंचाई की कमी से भिण्डी के पौधे सूख जाते हैं। भिण्डी में पुष्पन एवं परागण के समय भी खेत में पयाप्त नमी का होना आवश्यक है इससे फयिं का विकास एवं इनकी बढ़वार अच्छी होती है।

कीट नियंत्रणः फसल सुरक्षा उपाय

                                                                  

माहू : यह काले रंग का छोटा कोट होता है, जो पौधे के कोमल भागों का रस घूंसकर फसल को क्षति पहुँचाता है इसका प्रकोप अधिकतर नमी व अधिक तापमान पर होता है। इसकी रोकथाम हेतु रोगोर या मैटासिस्टॉक्स दवा का 0.1 प्रतिशत घोल (1मि.लि. दवा प्रतिलिटर पानी) का छिड़काव 10 दिन के अंतराल से 3-4 बार करना चाहिए।

हरा तेला (जैसिड) : ये हरे रंग के छोटे कोट होते है जो अधिक नमी होने पर अधिक क्षति पहुँचाते हैं ये पत्तियों की निचली सतह पर अधिक पाये जाते हैं। ये पत्तियों का रस घुसकर अधिक क्षति पहुँचाते हैं। इस कीट की रोकथाम माहू कीट के समान ही की जाती है।

सफेद मक्खी यह मक्खी छोटी व सफेद रंग की होती है, जो पौधे का रस चूस कर क्षति पहुँचाती है अधिक नमी और अधिक तापमान इसके प्रकोप को बढ़ावा देते हैं। पीतशिरा रोग फैलाने वाली मक्खी है। इस कीट की रोकथाम माहू व जैसिड के समान ही है।

कुतरा कीटः यह कीट पौधों के अंकुरण के समय नीचे से काट देते हैं पौधे काटने से पौधा सूख जाता है। ग्रीष्मकालीन भिण्डी में यह कीट अधिक लगता है। इस कीट की रोकथाम खेत में खरपतवारनाशकों का प्रयोग किया जा सकता है। यदि आप खरपतवारनाशी का उपयोग नहीं कर पाते है तो आप निम्न उपाय करें। बीज के अंकुरण के पूर्व खेत में आवश्यकता अनुसार हैण्ड हो या कल्टीवेटर की सहायता से समय-समय पर खरपतवार निकालते रहे। बीज बोने के 48 दिन बाद तक खेत को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए।

                                                                                

फलों की तुड़ाईः आमतोर पर बीज बोने के 40 दिन फलों का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है। फलों को कोमल अवस्था में ही तोड लेना चाहिए अन्यथा उनमें रेशा बन जाता है और फल सब्जी के लिए अनुपयुक्त हो जाते हैं। फलों की तुड़ाई फसल के अनुसार ही करें। फलों को तोड़ने के उपरान्त उनके आकार अनुसार श्रेणी करण करके उन्हें टोकरियों में भरकर बाजार भेजे।

पैदावार : ग्रीष्मकालीन भिण्डी की पैदावार कई बातो पर निर्भर करती है, जिनमें जलवायु, भूमि कि उर्वरा शक्ति, उगाई जाने वाली किस्म और फसल की देखभाल प्रमुख है। यदि उपरोक्त वर्णित तकनिक द्वारा भिण्डी की खेती कि जाये तो प्रति है. 70-75 क्विंटल उपज सुगमता से मिल जाती है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।