न्यूनतम समर्थन मूल्य पर एक फिर से गहन विचार करने की आवश्यकता

न्यूनतम समर्थन मूल्य पर एक फिर से गहन विचार करने की आवश्यकता

                                                                                                                                           डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृषाणु सिंह

‘‘निजी क्षेत्र को दबाने और निर्यात बाजारों को खतरे में डालने के बजाय हमें लचीले और सम्पन्न बाजारों को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए।’’

अपने करियर की शुरुआत में पंजाब के एक किसान से मैंने पूछा था कि भू-जल स्तर जब लगातार नीचे जा रहा है, तब आप धान क्यों बोते हैं ? तो जवाब मिला था, ’आप जो चाहेंगे, मैं वही बोऊंगा, आप बस मुझे खरीद का उचित आश्वासन दीजिए।’ उसी वर्ष हरियाणा में मैंने एक पोल्ट्री किसान और उससे सामान खरीदने वाले व्यापारी से पूछा था कि सरकारी नीतियों ने उनके सहयोग को कैसे सुविधाजनक बनाया है? जवाब मिला कि सरकार ने केवल एक ही काम सही किया और वह यह था कि वह इस सबसे बाहर ही रही!

                                                                    

राष्ट्रीय राजधानी में किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि में काम कर रहे दो बिंदुओं को यहां विशेष रूप से रेखांकित किया जा सकता हैः पहला, यह कि कृषि में सरकार की हर जगह दखलंदाजी की कोई जरूरत नहीं है और दूसरा, यह कि सुनिश्चित आय समय के साथ किसानों की जोखिम उठाने की क्षमता को भी कम कर देती है।

फसल विविधीकरण को लेकर पंजाब के किसानों की जड़ता जगजाहिर है। वे न्यूनतम समर्थन मूल्य से लाभान्वित होते रहे हैं, परन्तु वह बाजार में मौजूद अवसरों से अक्सर चूक ही जाते हैं। पिछले साल ही, अधिकांश चावल उत्पादक राज्यों में गैर-बासमती चावल की कीमतें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से अधिक हो गईं, परन्तु ऐसे में भी पंजाब और हरियाणा के किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर डटे रहे, जिसके चलते उनको होने वाला लाभ सिमट कर ही रह गया।

                                                                   

यहां राजनीति का सवाल भी एक बड़ा सवाल है। पंजाब में मिलने वाली मुफ्त बिजली नीति के कारण भी उत्पादन लागत कम हो जाती है, जिससे धान के रकबे को भी पर्याप्त रूप से बढ़ावा मिलता है। मुफ्त बिजली नीति को छूने की किसी भी राजनीतिक पार्टी ने हिम्मत नहीं दिखाई है। ऐसे में किसानों ने विविधता संबंधी प्रस्तावों को भी ठुकरा दिया है।

यहां एक मिसाल है, गन्ना लाभकारी मूल्य कानून, जिसके तहत चीनी मिलें किसानों को गन्ने का भुगतान करती हैं, सरकार नहीं। ऐसी किसी व्यवस्था को व्यापक बनाने पर कोई विमर्श नहीं है, इसके बजाय आंदोलनकारी किसान 22 अन्य फसलों के लिए भी समान कानूनी समर्थन की मांग रहे कर रहे हैं!

एक अन्य मांग एमएसपी की गणना के लिए एमएस स्वामीनाथन के फार्मूले को लागू करने की है, जिसके मुताबिक, किसानों को खेती की व्यापक लागत (सी2) से 50 प्रतिशत अधिक मिलनी चाहिए। यहां एमएसपी की गारंटी से मांग और आपूर्ति संबंधी बाजार सिद्धांत विफल हो जाता है। एमएसपी में अतार्किक वृद्धि निर्यात को महंगा कर देती है। उदाहरण के लिए, सोयाबीन के उच्च एमएसपी ने हमें सोयामील निर्यात से वंचित कर दिया है। यदि हम इतनी ऊंची एमएसपी तय करते हैं, तो हमें अव्यावहारिक कीमतों के लिए भी तैयार रहना होगा। फसल के ऊंचे समर्थन मूल्य से ऊंची कीमतें पैदा होंगी।

                                                                    

यह भी ध्यान रहे कि 86 प्रतिशत भारतीय किसान छोटे और सीमांत श्रेणी के हैं और अधिकतर कृषि वस्तुओं के उपभोक्ता भी वे स्वयं ही हैं, ऐसे में इन्हें कितनी महंगाई मंजूर होगी? वास्तव में, हमें उपभोक्ताओं और किसान, दोनों की ही चिंताओं को संतुलित करना होगा, परन्तु ऐसे में क्या किसानों की आय में सुधार करने के लिए एक गारंटीशुदा एमएसपी ही सही उपाय होगा?

अनुपात से अधिक एमएसपी अव्यावहारिक ही है। निजी क्षेत्र को दबाने और निर्यात बाजारों को खतरे में डालने के बजाय हमें लचीले, संपन्न बाजारों को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। सरकारें कभी भी बाजारों की जगह नहीं ले सकती हैं, उन्हें बाजार में अनुकूल माहौल को बढ़ावा देना होगा, जिससे कि किसानों के लिए लाभ दर को सुनिश्चित किया जा सके।

उपभोक्ता और उद्योग की मांगों को पूरा करने के लिए देश को चावल और गेहूं के मुकाबले तिलहन, मोटे अनाज, मक्का और दालों जैसी फसलों को प्राथमिकता देते हुए अपने अनाज भंडार को भी व्यवस्थित करना होगा। इन फसलों के लिए एमएसपी वृद्धि जरूरी है, जो तिलहन और दलहन के बढ़ते आयात को देखते हुए भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।

व्यापारियों को सभी फसलों के लिए एमएसपी का भुगतान करने के लिए बाध्य करने का प्रयास महाराष्ट्र में 2018 में अप्रभावी साबित हुआ। हां, बाजार में ऐसे लोगों को नियंत्रित करना जरूरी है, जो कीमतों को अपने लाभ के लिए नीचे या ऊपर ले जाते हैं, जबकि उन्हें चिंता उत्पादकों की करनी चाहिए। कई ऐसे भी उत्पाद हैं, जो एमएसपी की वजह से भारत में महंगे हैं, पर जिनका सस्ते में आयात किया जा रहा है, इसलिए किसानों और उपभोक्ताओं के अनुकूल व्यापार नीतियां अधिक महत्वपूर्ण हैं। अतः हमारे नीति निर्माताओं को समर्थन मूल्य की रूपरेखा पर पुनर्विचार करना चाहिए।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।