रेशम कीट पालन उद्योग

                              रेशम कीट पालन उद्योग

                                                                                                                                  डॉ0 आर. एस. सेगर, डॉ0 कृषाणु सिंह एवं मुकेश शर्मा

भारत रेशम उत्पादन के क्षेत्र ने विश्व के दूसरे स्थान पर है, जबकि विश्व में प्रथम स्थान चीन का है। भारत में प्रतिवर्ष 8,200 मीट्रिक टन रेशम का उत्पादन होता है जबकि मांग लगभग 9,000 मीट्रिक टन प्रतिवर्ष है। यह उद्योग फसल की तुलना में अधिक लाभदायी है। रेशम उद्योग पर्यावरण की दृष्टि से भी एक लाभप्रद उद्योग है। एक श्रमजनित उद्योग होने के कारण इस उद्योग में विभिन्न स्तरों पर महिलाओं एवं शारीरिक रूप से कमजोर या विकलांग व्यक्तियों को भी इससे रोजगार मिलता है।

                                                          

शहतूत के रेशम को सबसे अच्छा माना जाता है। इससे बने रेशम का रेशा पतला, लम्बा और मुलायम होता है। यह अपने पानी सोखने के गुण, रंजन, ताप, सहनता रोधी गुणों और चमक के लिये जाता जाता है। यह बहुमूल्य वस्त्रों को बनाने की ही एक अच्छी नस्ल नही है बल्कि इससे पेराशूट, टायरों का अस्तर, विद्युत रोधन पदार्थ, कृत्रिम रक्त नलिकाये और शल्य सीवनों को भी बनाया जाता है। रेशन फीट के प्यूपों को दबाकर तेल निकाला जाता है, जिससे साबुन और प्लास्टिसाईजर आदि बनाये जा सकते है। मस्कर्डाइन कवक से ग्रस्त प्लास्टिसाइजर बनाये जा सकते है। मस्कर्डाइन कवक से ग्रस्त रेशन कीट अथवा प्यूपों का उपयोग, चीन में औषधि बनाने के लिये किया जाता है। फाइटोल, जो एक महत्वपूर्ण कच्चा माल होता है और जिसे विटामिन ई और के को बनाने में उपयोग किया जाता है तथा पर्णहरित का निष्कर्षण रेशम कीट की विष्ठा (मल) से किया जा सकता है। रेशम कीट की विष्ठा प्रोटीन से भरपूर होने के कारण मछली, सूअर, पशु और भेड़ आदि के लिये उत्तम अहार माना जाता है। इसके अतिरिक्त यह एक उच्चकोटि कार्बनिक खाद भी होता है।

रेशम कीट पालन का इतिहासः-

                                                                    

चीन रेशम कीट पालन का उदगम स्थल है। यह विश्व का पहला देश था, जिसने रेशम कीट को शहतूत की पतियों पर पाला, कोकून को रील किया और रेशमी वस्त्रों को तैयार किया। चीन में रेशमकीट पालन का इतिहास 5000 वर्षों से भी अधिक पुराना है। पुरातन काल से ही चीन को बड़ी मात्रा में रेश्म के वस्त्रों को बनाने के जाना जाता था। ग्रीक तथा रोमवासी लोग चीन को ‘सेरेस’ अर्थात रेश्म का देश कहकर पुकारते थे। नवी और ग्यारहवी शताब्दियों में रेश्म मिश्र, उत्तरी अफ्रीकी तट होते हुए स्पेन तक भी पहुंच गया था। इटली में रेश्म का आगमन 12वीं और 13वीं शताब्दियों में हुआ, परन्तु फ्राँस तक यह 15वीं शताब्दि तक भी नही पहुँच पाया था। रेश्म उद्योग की समृद्वि और विकासकाल में रूस के दक्षिणी भागों में रूस वासियों के द्वारा रेश्म के कीट का पालन आरम्भ कर दिया गया था।

जब रेशम कीट  कोया बनाने के लिये तैयार होता है तो यह पत्ती को खाना बन्द कर देता है और इसका रंग कुछ पारदर्शी हो जाता है। ऐसे रेश्मकीट को पेड़ से अलग कर किसी उचित स्थान पर कोया बनाने के लिये रख देना चाहिये। मौसम के अनुसार 48 से 72 पण्टे मे कोया का निर्माण पूरा हो जाता है। इस प्रकार से तैयार ककून (कोये) को तीन दिन तक उबलते पानी, भाप, ताप या धूप में रख जाता है, जिससे फीट मर जाते है। इस प्रक्रिया को ‘स्टिफेनिंग’ कहते है। ककून को उबलते पानी में डालने से रेशम के धागे मुलायम हो जाते है और उन्हें आसनी से अलग-अलग किया जा सकता है। एक रेशम कीट लगभग 1000 से 1500 मीटर लम्बाई का धागा बनाता है जो अपने समान मोटाई के स्टील के तार से भी अधिक मजबूत होता है। एक रेशम कीट अपने जीवन काल के अन्तिम तीन से चार दिनों में अपने सिर को इधर उधर हिलाकर अपने चारों ओर अपनी लार ग्रन्थियों के द्वारा स्रावित पदार्थ से एक ही धागे का खोल बनाता है और इस खोल को ही ‘‘ककून’’ कहते हैं।

रेशम कीट पालन से लाभः-

                                                                  

रेशम उद्योग कृषि पर आधारित एक ऐसा महत्वपूर्ण उद्योग है जो श्रमजनित होने के कारण, इस उद्योग में रोजगार के भरपूर अवसर माजूद होते है। इसके साथ ही यह उद्योग अन्य कृषि फसलों की अपेक्षा अधिक लाभकारी है। इस उद्योग को सूखाग्रस्त क्षेत्रों में भी स्थापित कर सफलतापूर्वक नियमित आय प्राप्त की जा सकती है। इस उद्योग से महिलाओं को श्रम एवं अतिरिक्त समय का सदुपयोग कर, उन्हें धन की भी नियमित प्राप्ति होती है। यह उद्योग महिलाओं के लिये हर प्रकार से उपयोगी है क्योंकि यह घरों पर भी स्थापित किया जा सकता है। कोया के उत्पादन एवं विपणन से महिलाओं की भागीदारी और उनकी आय भी बढ़ती है। इसके साथ ही रेशम उद्योग में शिक्षित एवं अशिक्षित दोनों ही प्रकार की महिलाये आसानी से कार्य कर सकती है।

रेशम कीट उद्योग में न तो किसी विशेष पूजी की आवश्यकता होती है और न ही जमीन आदि पर अधिक खर्च करने की। इस उद्योग से पूरे वर्ष आमदनी प्राप्त होती है तथा कम लागत और समय में  ही उत्पादन आरम्भ हो जाता है। रेश्मकीट पालक यदि स्वयं ही चरखा चलाकर धागरण अर्थात रीलिंग करने लगते हैं तो उनकी आमदनी और बढ़ जाती है, क्योकि बाजार में तैयार धागा 2,000 रूपये प्रति किलोग्राम जबकि कोये (ककून) 300 से 400 रूपये प्रतिकिलोग्राम की दर से ही बिकता है। यदि चरखा के द्वारा उत्पादित धागे से कपडा बुनाई तथा वस्त्र तैयार किये जाये तो यह आमदनी ओर भी अधिक बढ़ सकती है। विदेशी बाजार में मी रेशमी कपड़ा और उससे बनें सिले सिलाए वस्त्रों की अच्छी मांग है। अतः रेशमी कपड़ों का निर्यात कर उससे विदेशी मुदा भी अर्जित की सकती है।

रेश्म उद्वाग में रोग एवं अन्य समस्याएंः-

                                                                     

    रेश्म के कीटों में लने वाली बीमारियां रेश्म उद्योग के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है, और इन बीमारियों के चलते ही सम्पूर्ण विश्व में रेश्म उद्योग को प्रतिवर्ष करोड़ों रूपये की हानि उठानी पड़ती है। रेश्म कीट की कुछ प्रमुख रोगों का विवरण नीचे दिया जा रहा है-

1. पेवरीनः- रेश्म उद्योग का यह एक बहुत ही घातक रोग है, जो रेश्म कीटों को दो प्रकार से प्रभावित करता है- पहला अनुवांशिक और दूसरा संक्रमण। इस रोग से ग्रस्त होने वाले कीट का रंग पीला-भूरा हो जाता है और उसकी त्वचा झुर्रीदार एवं तेजहीन हो जाती है। इससे बीमार रेश्मकीट सुस्त हो जाता है और इनके शरीर पर काले-भूरे धब्बे बन जाते हैं। यह रेशम कीट ककून बनाने से पहले ही मर जाते हैं अथवा ककून का निर्माण बहुत धीमी गति से करते हैं। इस रोग से प्रभावित रेश्मकीटों का पेट फूल जाता है और यह बहुत मुलायम हो जाता है।

    इस रोग से बचाव के लिए रेश्मकीट पालने का स्थान एवं ट्रे एवं उपयोग में आने वाले तमाम उपकरणों को जीवाणु रहित बनाकर ही काम में लेना चाहिए। रेश्मकीट के अंड़ों को 2 प्रतिशत फार्मेलीन के घोल में डुबोकर कुछ देर बाद इन्हें स्वच्छ जल से साफ कर लेना चाहिए।

2. ग्रोसरिकः- रेश्म के कीटों में यह रोग बहुत कम अथवा बहुत अधिक तापमान में रखने पर होता है। इससे प्रभावित रेश्मकीट का रंग पीला हो जाता है और उसके शरीर पर सूजन आ जाती है और कीट का शरीर कई स्थानों से फट जाता है तथा वह पत्तियों को खाना भी बन्द कर देता है। इस रोग को रेश्मकीट का पीलिया रोग भी कहा जाता है।

    इस रोग से बचाव के लिए रेश्मकीट के अंड़ों को 2 प्रतिशत फार्मेलीन के घोल में डुबोकर कुछ देर बाद उसे स्वच्छ पानी से धो लेते हैं। रेश्म कीटों का पालन स्वच्छ और हवादार स्थान पर करने से यह रोग नही लगता है।

3. मस्कार्डिनः- इस रोग से ग्रस्त होनेद वाले रेश्मकीट के शरीर में कवक का प्रकोप बढ़ जाता है। इससे प्रभावित रेश्मकीट सुस्त होकर भोजन का सेवन नही करते हैं और इससे संक्रमित होने के 5 दिनों के अन्दर ही यह कीट मर जाते हैं। इस रोग से मरने वाले कीटों का रंग लाल, हरा एवं पीला पड़ जाता है।

    रेश्म के कीटों में मस्कार्डिन के लक्षण पाए जाने पर रेश्म के समस्त कीटों पर 2 प्रतिशत फार्मेलिन का छिड़काव कर उन्हें अखबार से ढक दिया जाता है। इस प्रकार आधा घएटे के बाद अखबार को हटाकर रेश्मकीटों को ताजी पत्तियां खाने के लिए छोड़ देना चाहिए।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।