गुरु की कृपा

                                      गुरु की कृपा

                                                                                                                                                                        डॉ0 आर. एस. सेंगर

राजा बोले, ’गुरुदेव, गुरुकुल में यदि आप दंड देकर मुझे कुसंगति से बचने की प्रेरणा न देते, तो मैं आज राजा की जगह कोई अपराधी होता।’

उज्जैन के राजकुमार शातवाहन एक गुरुकुल में पढ़ते थे। जैसा कि बचपन में सभी करते हैं, शातवाहन भी शरारत किया करते थे। उनके विद्यागुरु शिवदास ने एक दिन शरारत करने के कारण उन्हें दंड दिया और अध्ययन में मन लगाने की प्रेरणा दी। गुरुजी ने चेतावनी दी कि भविष्य में दुष्ट किस्म के छात्रों के कुसंग से बचो। उसके बाद राजकुमार ने कुसंगति छोड़ दी। आगे चलकर राजकुमार शातवाहन उज्जैन के राजा बने।

                                                                         

गुरु शिवदास वृद्ध होकर वन में भगवान की आराधना करने लगे थे। वह भिक्षा मांग कर भोजन कर लेते तथा अपना शेष समय भगवान की आराधना में बिताते। एक दिन शिवदास अपने शिष्य के राजपाट की जानकारी लेने उज्जैयिनी नगरी पहुंचे। उन्होंने राजमहल के द्वार पर भिक्षा की गुहार लगाई। राजा शातवाहन उनकी आवाज सुनते ही महल के द्वार पर आए। अपने विद्यागुरु को देखते ही उनके चरणों में नतमस्तक हो गए।

वह बोले, ’गुरुदेव, गुरुकुल में आपके द्वारा दिए गए दंड ने ही मुझे आज राज पद तक पहुंचाया है। यदि आप मुझे दंड देकर कुसंगति से बचने की प्रेरणा न देते, तो मैं आज राजा की जगह कोई अपराधी होता।’ गुरु शिवदास अपने शिष्य की विनम्रता देखकर गद्गद हो उठे।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।