नील-हरित शैवाल का उपयोगः धान की भरपूर फसल

                                                                    नील-हरित शैवाल का उपयोगः धान की भरपूर फसल

                                                                                                                                                   डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

नील हरित शैवाल अथवा काई (ब्ल्यू-ग्रीन एल्गी) का उपयोग धान की उपज बढ़ाने के लिए किया जाता है। धान विश्व का एक प्रमुख खाद्य है और इसकी खेती सम्पूर्ण विश्व में लगभग 145.5 लाख हेक्टेयर भूमि पर की जाती है जो कि खाद्यान्न फसलों में सर्वाधिक है।

                                                                  

विगत कुछ समय से अधिक उपज देने वाली प्रजातियों का चलन है, जिसके लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता भी अधिक ही होती है तथा इसकी आपूर्ति रासायनिक उर्वरकों के माध्यम से ही सम्भव हो पाती है। रासायनिक उर्वरक कीमत में उचच होने के साथ-साथ उनकी उपलब्धता सीमित होने के कारणस छोटे किसान इनका उपयोग करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कृषि प्रौद्योगिकी के अन्तर्गत धान में उपयोगी जैव उर्वरक नील-हरित शैवाल या काई की खोज वैज्ञानिकों की एक अति-महत्वपूर्ण उपलब्धि है। नील-हरित शैवाल रासायनिक उर्वरकों को पूरी तरह से तो स्थानान्तरित नही करते परन्तु इनका उपयोग करने से रासायनिक उर्वरकों के उपयोग कुछ सीमा तक सीमित अवश्य किया जा सकता है इसके सथ ही यह हमारी मृदा एवं वातावरण को स्वस्थ रखने में सहायता करता है।

क्या है नील-हरित शैवालः- यह एक प्रकार की प्रकृति द्वारा उत्पादित जैविक खाद है जो नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों का एक सस्ता एवं सुलभ विकल्प है एवं इसे नील-हरित काई अथवा ब्ल्यू-ग्रीन एल्गी भी कहा जाता है। जैसा कि इसके नाम से ही विदित है यह काई नीले एवं हरे रंग की होती है जो वायुमण्डलीय नाईट्रोजन का स्थिरीकरण कर उसे पौधो के लिए लिए निरन्तर प्राप्य बनाती है।

वस्तुतः नील-हरित शैवाल एक कम विकसित मिक्सोफाइसी कुल के  सूक्ष्म जीवाणु हैं ो बिना सहजीवन के (स्वतंत्र रूप से) म्यूसीलेज से आच्छादित मृदा तथा जल में जैविक कारक के रूप में पाये जाते हैं। इस शैवाल की 40 प्रजातियों में नाइट्रोजन का यौगिकीकरण पाया गया है जिनमें निम्न प्रमुख हैं- एल्यूसिरा, ऐनाबिना, नोस्टॉक, साइटोनिमा, सिलेन्डोस्परम, आसीलेटोरिया, ऐनाबिना, टेलिकोथिक्स, केलोथिक्स, रिबुलेरिया, एनाबीनोपसिस, कैम्पाइलोनिया, फिरैला, हैप्लोसाइफोन और माइक्रोकीट आदि हैं। नील-हरित शैवाल की बढ़वार पर पानी, तापमान तथा प्रकाश का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।

धान की फसल जिसमें कि रूके (स्थिर) एवं अधिक पानी की आवश्यकता होती है। नील-हरित शैवाल की वृद्वि तथा प्रगुणन के लिए महत्वपूर्ण परिस्थ्ज्ञितियाँ होती हैं। नील-हरित शैवाल की वृद्वि हेतु 25-450 सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है। यह शैवाल नाइट्रोजन के यौगिकीकरण के साथ-साथ सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में वायुमण्डल की कार्बन डाई-ऑक्साइड गैस को लेकर शर्करा में परिवर्तित कर देते हैं जो कि शैवाल की वृद्वि के लिए शक्ति प्रदान करता है।

    धान के जिन खेतों में हमेशा पानी भरा रहता है उनमें नील-हरित शैवाल छोड़े जा सकते हैंजो वायु से नाइट्रोजन प्राप्त कर पौधों को सीधे ही उपलब्ध करा सकती है। नील-हरित शैवाल का उपयोग धान में चाहे किसी भी पद्वति से बुवाई अथवा रोपाई हो, किसानों को 20-40 किग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टेयर के उपयोग में होने वाले व्यय से राहत प्रदान कर सकती है, क्योंकि वायुमण्डल में 70 प्रतिशत नाइट्रोजन तत्व (77,000/टन/हैक्टेयर) के रूप में उपलब्ध है, परन्तु इसका सीध-सीधा उपयोग पौधे नही कर पाते हैं।

इस वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को कुछ ‘‘नील-हरित शैवाल’’ मृदा में स्थ्रि करने की क्षमता रखते हैं। नील-हरित शैवाल वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को तो स्थिर करते ही हैं, स्वयं जैविक प्रकृति का होने के कारण नेक उपयोगी अम्ल जैसे बी-12, एस्कार्बिक अम्ल इत्यादि तथा विटामिन्स को भी स्थापित करते हैं जो धान के पौधों की उनकी बढ़वार में सहायता करते हैं साथ ही भूमि की दशा में सुधार लाकर धान के बाद की फसल उत्पादन को बढ़ाने में भी योगदान करते हैं।

स्थिर नाइट्रोजन मुक्त होकर पौधों के काम आती हैः- नाइट्रोजन स्थिरकारकों की कोशिकाओं में 5-50 प्रतिशत तक नाइट्रोजन विद्यमान होती है। काईयाँ प्रतिकूल दशाओं में ही क्यों न वृद्वि कर रही हों, इनकी कोशिका भित्ती में नाइट्रोजन यौगिक अवश्य ही उपलब्ध होते हैं। कोशिकाओं से म्यूसिलेज के साथ नाइट्रोजन के अंश उनकी बाह्य कोशिकीय नाइट्रोजन, पेप्टाइड यौगिक, एमीनो अम्ल, नाइट्रोजन नाइट्राइट आदि के रूप में मुक्त होते रहते हैं। कोशिकाओं के निरंतर पानी में घुलनशील होने से नाइट्रोजन के यौगिक मृदा में आते रहते हैं और सूखने पर कोशिकाओं के सड़ने पर भी स्वतन्त्र मृदा में पहुँचती हैं।

गड्ढ़ों मे नील-हरित काई का उत्पादनः- इस विधि में गड्ढ़ा बनाकर पॉलीथिन बिछा देते हैं, ताकि पानी के रिसाव को रोका जा सके या 6‘‘ग3‘‘ग 9‘‘ आकार की गेल्वानाइज्ड लोहे की चादर की एक ट्रे बनवा लेते हैं। इसके बाद आकार के अनुसार मिट्टी, सुपर फॉस्फेट एवं सूखी पपड़ी नील-हरित काई (मदर कल्चर) की डाल देते हैं। यदि गड्ढ़े का आकार 6‘‘ग3‘‘ग 9‘‘ है तो उसमें पॉलीथिन को बिछाने के बाद 10 ग्रिा0 भुरभुरी मिट्टी, जिसका पी.एच. 7 के आस-पास हो, को डाल देते हैं। अब मिट्टी के ऊपर 200-400 ग्राम सुपर फॉस्फेट डालकर लगभग 6‘‘ पानी भर देते हैं। मिट्टी जग गड्ढ़े की निचली सतह पर अच्छी तरह से बैठ जाए तो मृदा आधारित नील-हरित काई के कल्चर को लकड़ी के बुरादे के साथ मिलाकर 100-200 ग्राम प्रति गड्ढ़े की दर से उपचारित करते हैं।

    उपरोक्त विधि से तैयार किये गये गड्ढ़े में यतद कीड़ें तैरते दिखाई पड़े तो 1 मिलीलीटर मेलाथियॉन प्रतिलीटर पानी में मिलाकर छिड़काव कर कीड़ों को नष्ट कर देना चाहिए। यदि गड्ढ़ों में हरी काई दिखाई दे तो 0.05 प्रतिशत कॉपर सल्फेट के घोल का छिड़काव करना चाहिए। इससे भले ही गहरे रंग की रेशेदार काई नष्ट हो जाए जो नील-हरित काई के लिए हानिकारक होती है।

    अब 10-15 दिनों के उपरांत गड्ढ़ों के पानी के ऊपर नील-हरित काई की हल्की परत दिखाई पड़ने लगेगी जो समय के साथ मोटी होती चली जायेगी। करीब एक सप्ताह के बाद पानी का स्तर बनाये रखने के लिए गड्ढ़ें में समय-समय पर पानी डालते रहना चाहिए। इस प्रकार गड्ढ़ों में 20-21 दिनों तक काई को बढ़ने दिया जाए इसके उपरांत पानी को सूखने दें। पानी के सूख जाने पर नील-हरित काई की पपड़ियाँ स्वयं ही उचट जायेंगी, जिन्हें धूप में सुखाकर पॉलीथिन की थैलियों में भर दें। इसके बाद काई का गुणन करने के लिए मिट्टी नही डालनी पड़ेगी, बाकी ऊपर बताए गए सभी पदों का गुणन करें। इस प्रकार एक गड्ढ़े से एक बार में 1.5-2 किग्रा0 काई तैयार हो जाती है। इस प्रकार से तैयार काई का उपयोग दो-तीन वर्ष तक कर सकते हैं।

खेतों में नील-हरित काई का उत्पादनः- इस विधि के द्वारा काफी मात्रा में नील-हरित शैवाल का उत्पादन किया जाता है। सर्वप्रथम समतलता के आधार पर खेत में बड़ी-बड़ी क्यारियाँ बनाई जाती हैं। पानी के रिसाव को रोकने के लिए पॉलीथिन की चादर क्यारियों में बिछा देते हैं या ईटों फई स्थाई रूप से बना ली जाती है। इसमें प्रति वर्गमीटर के अनुपात में 3-4 किग्रा0 खेत की मिट्टी 100 ग्राम

- फरवरी-मार्च एवं सितम्बर में हरे चारे की बहुतायत होती है। अतः उन महीनों में जिनमें हरा चारा कम उपलब्ध हो पाता है। मई-जून एवं अक्टूबर-नवम्बर के लिए हरे चारे से साइलेज तैयार कर लीजिये अथवा उन्हें सुखाकर ही तैयार कर लें।

- चारे की अधिकाँश फसलें वृद्वि की लम्बी अवस्था रखती हैं और भूमि से पोषक तत्वों को कॉफी मात्रा में चूसती है। जिासके फलस्वरूप इन फसलों को काफी मात्रा में खाद एवं उर्वरकों की आवश्यकता होती है। इसके लिए निम्नाँकित चरणों को अपनाना चाहिए-

(अ) खेत में प्रतिवर्ष 400-500 कुं0/हैव गोर की खाद अवश्य डालें। संपर फॉस्फेट $ 1/2 चम्मच मेलथियॉन डाल दें। 4-5 इंच तक क्यारियों में पानी भरकर उसे अच्छी तरह से मिला दें तथा दूसरे दिन 100 ग्राम बारीक नील-हरित शैवाल (मदर कल्चर) पानी की सतह पर छिड़क दें। क्यारियों में समय-समय पर पानी देते रहें और पानी की सतह पर काई की मोटी परत जम जाने के बाद पानी देना बन्द कर दें और सूखने पर काई की पपड़ी को पैकेट में सुखाकर बन्द कर रख दें।

धान की नर्सरी के साथ नील-हरित काई का उत्पादनः- धान की पौध और नील-हरित शैवाल अथवा काई को तैयार करने के लिए लगभग एक जैसी ही परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। इसलिए धान की पौध की क्यारियों के साथ नील-हरित शैवाल पैदा करने के लिए भी कुछ क्यारियाँ बना ली जाती है शेष सभी प्रक्रियाएं पूर्व बताई गई विधि के अनुरूप ही होती हैं।

नील-हरित शैवाल अथवा काई का प्रगुणन करते समय ध्यान रखने योग्य कुछ तथ्यः-

1.   इसके लिए साफ एवं भुरभुरी मिट्टी का ही उपयोग करना चाहिए।

2.   नपाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का क्यारी में उपयोग करें।

3.   शैवाल की पपड़ियों की थैलियों को सूखे स्थान पर ही रखें।

4.   शैवाल की पपड़ियों को रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के साथ लिाकर न रखें।

नील हरित काई (शैवाल) की उपयोग करने की विधिः- नील-हरित शैवाल अथवा काई का उपयोग धान की रोपाई करने के 07 दिन बाद करते हैं तथा जिस खेत में इसका उपचार किया जाए उसमें पानी स्थिर एं लगभग 8-10 सेमी0 तक पानी सदैव भरा रखें। अब इस पानी में 10 किग्रा0 प्रति हैक्टेयर की दर से काई का छिड़काव करते हैं। कल्चर के डालने के बाद 5-10 दिनों तक पानी को स्थिर रखें। पानी के बहाव को रोकने कें लिए मेढ़बन्दी कर दें। खेत में काई डालने के बाद कम से कम 10 दिन तक पानी भरा रहना चाहिए।

                                                                                    

    सुपर फॉस्फेट की निर्धारित मात्रा फसल में रोपाई के समय ही डालनी चाहिए साथ ही आवश्यकता होने पर कीटनाशकों अथवा फफंूदनाशक दवाई डालें। यदि किसान अधिक उत्पादन चाहते है तो शैवाल के साथ फसल के लिए निर्धारित नत्रजन की मात्रा का 1/3 भाग यूरिया या अमोनियम सल्फेट के रूप में दे सकते हैं।

सावधानियाँः- फसल को उपचारित करते समय कुछ सावधानियाँ अवश्य रखनी चाहिए जो इस प्रकार वर्णित है- खेत में पानी सदैव 8-10 सेमी0 स्थिर रहे तथा धान की रोपाई के 07 दिन बाद ही उपचारित किया जाए। यदि इस समय सीमा के अन्दर उपचारित करते हैं तो पौधों की वृद्वि पर प्रतिकूल पभाव पड़ता है। जिस खेत की मृदा का उपचार करें उसका पी.एच. मान 6-8 के बीच ही होना चाहिए, तापमान 25-40 डिग्री सेंटीग्रेड होना चाहिए। खेत को सूर्य का प्रकाश पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना चाहिए। यदि खेत में गहरे रंग की काई दिखाई दे तो 0.05 प्रतिशत कॉपर सल्फेट का छिड़काव अवश्य करना चाहिए। 

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एवं कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग के प्रमुख हैं।