ग्लोबल वार्मिंग से खेती पर संकट

                              ग्लोबल वार्मिंग से खेती पर संकट

                                                                                                                                                         प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

                                                                

ग्लोबल वार्मिंग की भर्ती समस्या एवं इसके कारण दिन प्रतिदिन गहरा था जलवायु संकट आज संपूर्ण विश्व एवं मानवता के समक्ष एक ऐसी चुनौती बनकर खड़ा है जिसे ना तो नकारा ही जा सकता है और ना ही मुख दर्शक बनकर देखा जा सकता है। इस असंतुलित विकास में पर्यावरण संरक्षण को कोई प्राथमिकता नहीं दी गई है जिसके कारण भूमि की उत्पादकता स्थिर हो गई है। जैव विविधता खाद्य एवं स्वास्थ्य सुरक्षा संकट में है और ग्लोबल वार्मिंग जैसी विदेश का संपूर्ण मानव के अस्तित्व को ही चुनौती दे रही है। धरातल से परावर्तित होने वाली उसका वातावरण में ही फस जाती है और संपूर्ण विश्व का तापमान बढ़ा देती है।

परिणाम स्वरुप पृथ्वी के वातावरण में हरित गृह गैसों जैसे कार्बन डाइऑक्साइड क्लोरो फ्लोरोकार्बन मेथेन एवं नाइट्रस ऑक्साइड की सांद्रता आज बहुत उच्च स्तर पर पहुंच चुकी है। हरित गृह गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड एवं क्लोरोफ्लोरोकार्बन ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं भारत जैसे अत्यधिक जनसंख्या वाले देशों के लिए तो यह समस्या और भी जटिल है। ग्लोबल वार्मिंग जैसी भीषण समस्याओं से बचने हेतु सुझाव गए उपाय आज भी सिर्फ चर्चा का विषय अधिक है और उन्हें लागू करने में हमारा तथाकथित विकास ही प्रमुख रूप से आड़े आ रहा है। आज देश है यदि सुझावों पर अमल करें तो निश्चित रूप से हम इस समस्या से आसानी से निपट सकते हैं।

पिछले साल के कमजोर मानसून की वजह से महाराष्ट्र, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान के क्षेत्र में सूखे की स्थितियां पैदा हो गई थी जिनका असर अब तक दिखाई देता है, हो सकता है कि अगले साल भी इन्हीं इलाकों में से कुछ पर फिर सूखे की छाया पड़ जाए और किसानों के लिए मुसीबत खड़ी हो जाए। मौसम से किसानों की कमर तूती की ही आम जनता को भी महंगी सब्जी के साथ दलहन व तिलहन का संकट जीने के लिए तैयार रहना होगा। कृषि विभाग के आंकड़ों के मुताबिक जायद की फसलों की बुवाई लक्ष्य के सापेक्ष मात्र 12.572% हो सकी। सर्वाधिक नुकसान उत्तर प्रदेश के कई जिलों में देखने को मिला यहां पर ग्रीष्मकालीन मक्का, बाजारा, मूंग, उड़द, सूर्यमुखी कपास जायद धान में सब्जियां, हरा चारा व मूंगफली जैसी फसल की बुवाई सुनी ही जा रही है।

                                                                           

आगरा गोरखपुर एवं मुरादाबाद मंडलों में भी दो से साथ प्रतिशत की बुवाई संभव हो सकी थी। कपास, सूरजमुखी, बाजारा जैसे जायद फसलों से किसानों का मुंह पहले ही भंग हो चुका है। कपास की खेती आगरा व बरेली मंडल में ही होती है, परंतु इस बार मौसम की बेरूखी के कारण किसानों को कपास को छोड़ना पड़ा। सूरजमुखी और ग्रीष्मकालीन मूंगफली के क्षेत्रफल में वृद्धि कर रवि सीजन में सरसों, लाही और सूर्यमुखी को हुए नुकसान की भरपाई करने का किसी विभाग का मंसूबा भी पूरा नहीं हो सका। प्रदेश के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर अधिकतर किसानों ने यह फैसले लेना बंद कर दिया। इस बार कृषि विभाग ने विशेष अभियान चलाकर बुवाई करने की प्रयास किया, लेकिन कारगर साबित नहीं हो सके।

कृषि का विस्तारीकरण

किसानों की आय बढ़ाने के लिए कृषि का विस्तारीकरण जरूरी है। धान-गेहूं फसल चक्र अपना कर हम खाद्यान्न में आत्मनिर्भर तो हो गए, परंतु इससे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अत्यधिक हुआ। हमें कम पोषक तत्व एवं कम पानी चाहने वाली दलहनी, तेलहनी एवं मसाले वाली फसलों जैसे धनिया शॉप जीरा मेथी आदि को बढ़ावा देना चाहिए। उन्नत बीज, सही खुराक एवं सर्वोत्तम फसल प्रबंधन से धान-गेहूं की उत्पादकता दोगुनी की जा सकती है, अर्थात आधे क्षेत्रफल से भी उतना उत्पादन प्राप्त हो सकता है। शेष क्षेत्रफल कृषि के विस्तारित कारण के लिए उपयोग में लिया है जा सकता है। इसके साथ ही हमें सब्जियों और फलों की उन्नत खेती की ओर ध्यान देना होगा, इसके लिए प्रसार सेवा को चुस्त दुरुस्त करना होगा। कृषि के व्यवसायीकरण व कृषि आदानों के संक्षिप्त प्रयोग द्वारा ही कृषि उत्पादकता एवं लाभ को बढ़ाया जा सकता है।

जलवायु परिवर्तन से गहराता पानी का संकट

भारत सरकार ने जलवायु परिवर्तन 2008 को राष्ट्रीय कार्य योजना चालू की, जिसमें कई भयावह तथ्य सामने आए हैं। इस योजना में बताया गया है कि यदि जलवायु परिवर्तन की मौजूदा गति और प्रवृत्ति को नहीं रोका गया तो समुचित मानव जाति विशेष कर निधन हुआ विकासशील देशों का भविष्य अंधकार में हो जाएगा। इसमें खाद्यान्न उत्पादन में और कमी आने अनेक पुराने व नए रोग फैलने जैसे खतरों के अलावा सबसे अधिक जोर पानी की समस्या पर दिया गया है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भूगर्भ शास्त्र विलाप चंद्र शर्मा के अनुसार वर्ष 1990 से 2007 के बीच गोमुख ग्लेशियर गंगोत्री ग्लेशियर से 1.5 किलोमीटर तक पिघल कर छोटा हो गया है। हमारे देश के उत्तरी पूर्वी और पूर्वोत्तर हिस्सों का 40% भाग पहले से ही बाढ़ की चपेट में आता रहता है, जिससे लगभग हर साल 3 करोड लोग प्रभावित होते हैं। राजस्थान, गुजरात, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के बहुत से इलाके सूखे का शिकार होते रहते हैं। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड क्षेत्र पिछले 5 वर्षों तक भीषण सूखे की मार झेल रहा था। वर्ष 2009 में वहां संतोषजनक वर्षा हुई थी और इस वर्ष 2024 में भी  काफी काफी अच्छी वर्षा रिकार्ड की गई है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।