जलवायु परिवर्तन और जलवायु अनुकूल टिकाऊ खेती

                 जलवायु परिवर्तन और जलवायु अनुकूल टिकाऊ खेती

                                                                                                                                            डॉ0 आर. एस, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

जलवायु परिवर्तन अब सैद्धांतिक बौद्धिक पर चर्चा से बाहर निकलकर वास्तविकता बन चुका है साल 10 साल न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी की पूरी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव की खबरें आने लगी है जिससे आज पूरा विश्व ही चिंतित हो गया है यह दुष्प्रभाव लगभग हर क्षेत्र में मानवता के अस्तित्व पर संकट के रूप में उभरे हैं और कृषि इनमें सबसे प्रमुख है एक और विश्व की जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है तो दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों का उत्पादन और उत्पादकता कम होना एक आम समस्या बन रही है, ऐसे में जलवायु अनुकूल टिकाऊ खेती के रास्ते ढूंढना ही एकमात्र विकल्प बचा है वैज्ञानिक है इस तरफ अब ध्यान दे रहे हैं कि ऐसी तकनीक का विकास किया जाए जिनके माध्यम से हम देश में टिकाऊ खेती कर सकें और किसने की आय भी बढ़ा सके

संयुक्त राष्ट्र का आकलन है कि वर्ष 2050 तक दुनिया की जनसंख्या 900 करोड़ तक पहुंच जाएगी और उसकी खाद्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विश्व के मौजूदा खाद उत्पादन में लगभग 70 प्रतिशत की बढ़ोतरी करने की आवश्यकता होगी। लेकिन इसी तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि दुनिया भर में कृषि के सामने जलवायु परिवर्तन की चुनौती हर वर्ष पहले की तुलना में तेजी से बढ़ती जा रही है। इस चुनौती को कुछ आंकड़ों से समझा जा सकता है जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल आईसीसी 2018 की पांचवी आकलन रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के मौसम विज्ञान का अनुमान है कि वर्ष 2100 तक धरती की औसत तापमान में 2.5 से 5.8 डिग्री सेंटीग्रेड तक की बढ़ोतरी हो सकती है।

जबकि तापमान में सिर्फ एक डिग्री सेंटीग्रेड वृद्धि के साथ मक्के की उत्पादकता 7.4 प्रतिशत, गेहूं की उत्पादकता 6 प्रतिशत, चावल की उत्पादकता 6.2 प्रतिशत और सोयाबीन के उत्पादकता 3.01 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। यदि तापमान में यह वृद्धि दो डिग्री सेंटीग्रेड तक हो जाए तो अनाज के उत्पादन में 20 से 40 प्रतिशत तक की कमी आ जाती है। विशेष तौर पर एशिया और अफ्रीका महाद्वीप में चावल, गेहूं, सोयाबीन, मक्का, कपास और टमाटर जैसी फसले वायुमंडल के तापमान में वृद्धि के प्रति अत्यंत संवेदनशील है।

खाद एवं कृषि संगठन फाओ के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया भर में प्रमुख खाद्य फसलों के उत्पादन में बढ़ोतरी की दर लगातार कम हो रही है। अतः स्पष्ट है, कि बढ़ती जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन मिलकर खाद्य सुरक्षा को दुनिया के लिए भविष्य की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में पेश करने वाले हैं।

क्या है जलवायु अनुकूल टिकाऊ खेती

विश्व बैंक के अनुसार क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर मा भूपरिदृश्य के प्रबंधन का ऐसा समेकित समाधान है, जिसमें खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन की पूर्ती डर के अंत संबंधों को ठीक किया जाए। विश्व बैंक ने भूपरिदृश्य के तहत खेती की जमीन के अलावा पशुपालन, जंगल और मछली पालन को भी शामिल किया है। एक साथ तीन परिणाम को लक्ष्य कर काम किया जाता है। उत्पादन में बढ़ोतरी बदलते वातावरण को जीने लायक फसलों का विकास और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी। इन बातों को ध्यान में रखते हुए कृषि उत्पादन को बढ़ाने की बात की जाती है और इसी को जलवायु अनुकूल टिकाऊ खेती कहा जाता है।

जलवायु परिवर्तन की वैश्विक चुनौती

आमतौर पर जब कृषि और जलवायु परिवर्तन की चर्चा होती है तो अक्सर कृषि को पीड़ित पक्ष ही माना जाता है। लेकिन कृषि और जलवायु परिवर्तन का आपसी संबंध दरअसल एक दुष्चक्र में फंसा है। जलवायु परिवर्तन से जितने खतरे में कृषि है, यह उतनी ही इसके लिए जिम्मेदार भी है। आईसीसी 2013 के मुताबिक कृषि, जंगल और भूमि के इस्तेमाल में बदलाव इंसानी गतिविधियों के कारण होने वाले ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में एक चौथाई भाग यानी 25 प्रतिशत की जिम्मेदार हैं। वायुमंडल में मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड की मात्रा में बढ़ोत्तरी का एक बड़ा स्रोत कृषि है। ग्लोबल वार्मिंग में योगदान के अलावा कृषि के वायुमंडल पर और भी कई दुष्प्रभाव है।

कृषि जंगलों के काटने और भूमि के इस्तेमाल में बदलाव के लिए जिम्मेदार है। जिस भूमि कार्बन डाइऑक्साइड को सहेजने वाले एक कुदरती बैंक की जगह उसे वायुमंडल में छोड़ने लगते हैं। ऐसे में विश्व की लगातार बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए दो चरणों में काम करने की आवश्यकता है। पहले ग्लोबल वार्मिंग के असर से वर्तमान उत्पादकता को बचाना और दूसरा तापमान में बढ़ोतरी के बावजूद कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी करना। इसलिए जब भावी पीढ़ियों के लिए खेती का एक टिकाऊ मॉडल विकसित करने की बात आती है, तो प्रयास न सिर्फ कृषि को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से बचाने का किया जाना चाहिए बल्कि कृषि के तौर तरीकों में ऐसे बदलाव किए जाने की भी आवश्यकता है, जिससे जलवायु परिवर्तन में इसकी भूमिका कम की जा सके।

दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि दुनिया को ऐसी टिकाऊ खेती के लिए जलवायु के अनुकूल खेती, जिसे क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर भी कहा जाता है, को अपनाने की आवश्यकता है। इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ही फाओ ने जलवायु अनुकूल खेती की रणनीति को प्रभावी तरीके से क्रियान्वित करने के लिए कुछ खास प्रक्रियाओं के पालन की सिफारिश भी की है।

बीज विकास कार्यक्रम

यह आवश्यक है कि खाद और कृषि उत्पादों की सुरक्षा के लिए बीजों में इस तरह अनुवांशिक बदलाव किए जाएं ताकि वह अपने प्राकृतिक माहौल में खेती के लायक ढाल सके। इसके लिए जीन बैंक तैयार किए जाएं और उनमें जलवायु परिवर्तन प्रतिरोधी बीजों का संरक्षण किया जाए। यह बहुत आवश्यक है कि बीजों के विकास के किसी भी कार्यक्रम में किसानों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए, क्योंकि जब तक किसान का उस पर पूरा भरोसा नहीं होगा तो उसे व्यावहारिक तौर पर खेतों में इस्तेमाल नहीं किया जा सकेगा। इसलिए ऐसे बीजों के विकास में किसानों की आवज को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

एकीकृत कीट प्रबंधन आईपीएम कार्यक्रम

जलवायु परिवर्तन के साथ ही फसलों पर कीटों, बीमारियों और आच्छादित खरपतवारों का खतरा भी बढ़ता जाएगा और इसे नियंत्रित करने के लिए तमाम मौजूद कीट प्रबंधन तकनीक को एकीकृत करने की आवश्यकता है। आईपीएम के अंतर्गत कीटों की जनसंख्या को बढ़ने से रोकने, मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण को कम से कम प्रभावित करने और कृषि पारिस्थितिकी तंत्र पर अनुकूल दुष्प्रभाव पैदा किए बिना ऐसी कीट प्रबंधन टेक्नोलॉजी को विकसित किया जाना है, जो किसानों के लिए आर्थिक तौर पर भी वहन करने योग्य हो। हमारे देश में इस दिशा में अच्छा कार्य किया जा रहा है जिससे इको फ्रेंडली तकनीक को बढ़ावा भी मिल रहा है।

जैव विविधता प्रबंधन

देश की लगभग सभी प्रमुख फैसलें जैसे मक्का, धान और गेहूं इत्यादि प्रायः मोनोकल्चर सिस्टम में उगाए जाते है, जिसमें बहुत ज्यादा कीटनाशकों और खरपतवारनाशकों की आवश्यकता होती है। लेकिन वर्ष 2006 में प्रकाशित एक शोध पत्र में कार्य लोक ने यह प्रमाणित किया कि ज्यादा विविधता वाली फसलों के साथ बेहतर रोग प्रतिरोधी क्षमता, आर्थिक स्थिरता और मुनाफा हासिल किया जा सकता है। इसलिए किसानों में इसे लेकर जागरूकता पैदा करने की जरूरत है।

जल उपयोग एवं प्रबंधन में सुधार

कृषिगत सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता पहले ही एक बड़ी समस्या के रूप में उभरने लगी है। जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रणाम के साथ ही यह समस्या भी बढ़ती जा रही है। वर्षा की मात्रा और उसकी आवर्ती में हो रहे अनिश्चित बदलाव जल स्रोतों के सूखने और भूजल के समाप्त होने के साथ ही आने वाले वर्षों में वर्षा सिंचित और सिंचाई के साधनों से युक्त दोनों ही तरह की खेती के लिए मुश्कलें बढ़ाने वाली है।

इसलिए टिकाऊ खेती के लिए जल संसाधनों का सही प्रबंधन शीर्ष प्राथमिकता में है। बेहतर जल प्रबंधन के लिए मिट्टी और पानी को बचाने के उपायों पर काम करना होगा। सिंचाई के पारंपरिक संसाधनों की जगह आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ावा देकर यह काम किया जा सकता है।

मिट्टी और भूमि प्रबंधन से जलवायु अनुकूल खेती

जलवायु परिवर्तन के साथ पानी का खड़ापन भी बढ़ेगा और वर्षा की अनिश्चितता भी बढ़ जाएगी। इससे वायुमंडल में नमी का अनुपात भी असंतुलित होगा और इससे बहुत कम नमी वाले इलाकों की मात्रा बढ़ेगी और जमीन भी तेजी से बंजर होगी। ऐसी जमीन को खेती के काम में लाने के लिए ड्राई लैंड फार्मिंग तकनीक बहुत कारगर है। सबसे खास बात यह है कि इस तकनीकी में किसानों को ना तो कोई अतिरिक्त खर्च करना होता है ना ही किसी मशीन की जरूरत होती है।

समय से मिट्टी तैयार करना, गहरी जुताई, पराली की मल्चिंग, जमीन की लेबलिंग, स्लोपिंग और मेड बांधने जैसे पारंपरिक तरीकों से ड्राई लैंड फार्मिंग में सफलता हासिल की जा सकती है। अनाज, मोटे अनाज, तिलहन, दलहन और कपास जैसी फसलों के लिए भी यह तकनीक अच्छे नतीजे देती है। मौजूदा समय में भी भारत में 80 प्रतिशत मक्का, 90 प्रतिशत बाजरा, लगभग 95 प्रतिशत दालें और 75 प्रतिशत तिलहन, ड्राई लैंड में खेती से ही आते हैं।

नवाचार तकनीक का इस्तेमाल बढ़ाना जरूरी

जलवायु अनुकूल कृषि उत्पादन के लिए नए और इन्नोवेटिव तौर तरीकों तथा तकनीक का इस्तेमाल को बढाए जाने की आवश्यकता है। फाओ की 2011 में प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया की घटिया बीजों से अच्छी फसल ले पाना संभव है। इसका मतलब है कि यदि जलवायु परिवर्तन से कम प्रभावित होने वाली फसलों की ओर बढ़ना है तो इसकी शुरुआत सही तरह के बीजों के विकास से करनी होगी। बीजों के साथ कृषि कार्य में प्रयोग होने वाली तकनीक के स्मार्ट मैनेजमेंट पर भी काम किए जाने की जरूरत है। यह तकनीकी न सिर्फ कम उत्पादन की समस्या पर केंद्रित होनी चाहिए बल्कि कृषि से उत्सर्जन को कम करने में भी सहायक होनी चाहिए।

फाओ ने इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए बाकायदा एक व्यवस्था का निर्माण किया है। जलवायु अनुकूल खेती के लिए देशों द्वारा अपनाई जानी चाहिए जो भी जलवायु परिवर्तन के भीषण परिणाम को जीनों के लिए विकसित किया जा रहे है।

भारत में जलवायु अनुकूल टिकाऊ कृषि

लोकसभा की वेबसाइट पर मौजूद एक संदर्भ नोट के मुताबिक भारत में 2010 से 2039 के बीच जलवायु परिवर्तन के कारण प्रमुख फसलों की उत्पादन क्षमता 9 प्रतिशत तक काम हो सकती है और यह समय के साथ बढ़ती ही जाएगी। अलग-अलग जगह और जलवायु की परिस्थितियों के मुताबिक यह कमी धान के लिए 35 प्रतिशत गेहूं के लिए 20 प्रतिशत, ज्वार के लिए 50 प्रतिशत, जौ में 13 प्रतिशत और मक्के में 60 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। तापमान में वृद्धि वर्षा की अनिश्चितता और सिंचाई के पानी में कमी के कारण वर्ष 2100 तक अधिकतर फसलों की उत्पादकता में 10 से 40 प्रतिशत तक की कमी आने की संभावना है।

वर्ष 2018 में भारत सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण में या अनुमान जताया गया था कि सिर्फ जलवायु परिवर्तन के कारण देश को साल भर में 9 से 10 अरब डॉलर का नुकसान हुआ होगा। भविष्य में इस तरह के नुकसान को यथासंभव कम करने के लिए भारत सरकार ने कई कदम उठाए जिनका विवरण यहां पर दिया जा रहा है-

जलवायु प्रतिरोधी कृषि पर राष्ट्रीय नवाचार

यह भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, का एक नेटवर्क प्रोजेक्ट है, जो 350 करोड रुपए के आवंटन के साथ फरवरी 2011 में लॉन्च किया गया था। इस परियोजना का उद्देश्य भारतीय कृषि की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना है। जिसमें फसलों के अलावा पशुपालन और मछली पालन भी शामिल किया गया था।

सतत कृषि के लिए राष्ट्रीय मिशन एनएमएसए

सरकार जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना के माध्यम से जलवायु गतिविधियों के लिए विशेष क्षेत्र में अलग-अलग राष्ट्रीय मिशन चलकर फ्रेमवर्क तैयार कर रही है। इस मिशन के तहत पर्यावरण अनुकूल तकनीक, बिजली बचाने वाले सक्षम उपकरणों, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, समेकित खेती इत्यादि पर जोर देकर मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन और पानी के इस्तेमाल की उन्नत क्षमताओं, कीटनाशकों के बेहतर इस्तेमाल और फसल बहुलीकरण जैसे उपायों से अलग-अलग क्षेत्र के लिए वहां की विशेषताओं के मुताबिक एग्रोनॉमिक गतिविधियां विकसित करने पर ध्यान दिया जा रहा है।

जलवायु परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय अनुकूलन फंड

इस फंड का गठन जलवायु परिवर्तन के प्रति ज्यादा संवेदनशील राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलित करने पर आने वाले खर्च की व्यवस्था हेतु किया गया है। वर्ष 2015 से 2016 के दौरान क्रियान्वित यह योजना मुख्य रूप से कृषि सहित कई ऐसे सेक्टरों पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए चलाई जा रही। यह ठोस अनुकूलन गतिविधियों की मदद कर रही है। इसके तहत पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उड़ीसा, मणिपुर, तमिलनाडु, केरल, मिजोरम, छत्तीसगढ़, मेघालय, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश एवं जम्मू कश्मीर आदि राज्यों में कई परियोजनाएं चलाई जा रही है।

जलवायु अनुकूल गांव

जलवायु अनुकूल गांव जिन्हें क्लाइमेट स्मार्ट विलेज भी कहा जाता है। यह स्थानीय स्तर पर किसानों को इस योग्य बनाने का एक संस्थागत प्रयास है, ताकि वे जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि पर होने वाले दुष्प्रभावों को अपने स्तर से कम से कम कर सके। सीएस को हरियाणा के करनाल और बिहार के वैशाली जिलों में प्रयोग के तौर पर शुभारंभ किया गया था। बाद में उन्हें पंजाब, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक आदि राज्यों में भी शुरू किया गया है। धीरे-धीरे जलवायु अनुकूल गांव में बढ़ोतरी की जाएगी। जिससे यह गांव आसानी से जलवायु परिवर्तन से निपटते हुए जलवायु अनुकूल टिकाऊ खेती कर सके।

परंपरागत कृषि विकास योजना

यह एनएमएसए के तहत वर्ष 2015 में शुरू किए गए मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन का एक विस्तारित आयाम है, जिसका उद्देश्य गांव के क्लस्टर बनाकर उनमें जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा सके। यदि जैविक खेती इन क्षेत्रों में की जाती है तो वह जलवायु परिवर्तन के दौरान अधिक प्रभावित नहीं होगे और उसका उत्पादन ठीक हो सकेगा और लागत भी काम आएगी, जिससे किसानों की आय बढ़ सकेगी।

बायोटेक किसान

यह वैज्ञानिकों और किसानों की एक साझेदारी वाली एक योजना है, जिसे वर्ष 2017 में कृषिगत नवाचारों के लिए लांच किया गया था। इस योजना का लक्ष्य वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में होने वाले नवाचारों को किसानों से जोड़ना और उन्हें व्यावहारिक धरातल पर लाकर खेती में उपयोग करना है। इसके तहत अब तक देश के सभी 15 कृषि जलवायु क्षेत्र और आकांक्षी 110 जिलों में 146 बायोटेक किसान केंद्र स्थापित किया जा चुके हैं।

एग्री फॉरेस्ट्री पर उपमिशन

खेतों के मेड़ पर पेड़ लगाने के लक्ष्य के साथ यह मिशन वर्ष 2016-17 में शुरू किया गया था। इस मिशन के तहत गांव में खेती को बढ़ावा देने के साथ-साथ एग्रो फॉरेस्ट्री को भी बढ़ावा देना था। एग्रो फॉरेस्ट्री के कारण खेती कम प्रभावित हो सकेगी और अच्छा उत्पादन खेतों से लिया जा सकेगा। इस सोच के साथ एग्री फॉरेस्ट्री को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार द्वारा उप मिशन चलाया गया जिसके अच्छे परिणाम मिल रहे हैं।

राष्ट्रीय लाइव स्टॉक मिशन

इस मिशन की शुरुआत कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने वर्ष 2014-15 में की थी। इस मिशन का उद्देश्य मुख्य रूप से लाइव स्टॉक दुधारू पशुओं पर फोकस कर टिकाऊ उपायों द्वारा प्राकृतिक वातावरण का बचाव और जैव सुरक्षा सुनिश्चित करना, पशु जैव विविधता का संरक्षण करना और किसानों की आजीविका को और अधिक समृद्ध करना है।

राष्ट्रीय जल मिशन

जल स्रोतों के संरक्षण और इसकी बर्बादी को न्यूनतम स्तर पर लाने के लिए एक समेकित वॉटर रिसोर्स मैनेजमेंट तैयार करने के उद्देश्य एक मिशन की शुरुआत की गई है। इसके उद्देश्यों में कृषि क्षेत्र सहित अन्य सेक्टर में पानी के इस्तेमाल की क्षमता को 20 प्रतिशत तक बढ़ाना भी शामिल है। देश के कई भागों में राष्ट्रीय जल मिशन को चलाया भी जा रहा है और इसके अच्छे परिणाम भी प्राप्त हो रहे हैं।

भारत सरकार ने कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को समझने के लिए कई प्रयास शुरू किए हैं। सभी 572 ग्रामीण जिलों में कृषि पर जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा होने वाले जोखिम के आकलन के लिए विस्तृत अध्ययन किए गए हैं। आईसीएआर और एनएआरएस ने 650 जिलों के लिए जिला कृषि आपातकालीन योजनाएं तैयार की है, जिन्हें नियमित तौर पर अपडेट भी किया जा रहा है।

पर्यावरण के प्रति ज्यादा संवेदनशील सभी 151 जिलों में निकरा परियोजना के तहत एक-एक जलवायु रोधी, जिन पर जलवायु परिवर्तन का असर शून्य हो गांव विकसित किया जा रहे हैं और इन जिलों में क्षेत्र आधारित प्रौद्योगिकी का प्रदर्शन किया गया है। फसल के उत्पादन और उनकी उत्पादकता को बढ़ाने के लिए खाद्य नीति में पर्यावरण अनुकूल बदलाव किए गए हैं। करो के इस्तेमाल से अनाज उत्पादन में 1.366 करोड़ टन की वृद्धि से 1.148 करोड़ हेक्टेयर जंगल को कृषि योग्य भूमि बदला जाना है।

किसान कल्याण पर फोकस रही उत्तर प्रदेश सरकार

  • उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए जिसका लाभ मिला किसानो को
  • बीते 7 वर्ष उत्तर प्रदेश की प्रगति एवं सकारात्मक बदलाव के रहे हैं। इस अवधि में कानून व्यवस्था, बुनियादी सुविधाओं के विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, समाज कल्याण, इंडस्ट्रियलिज्म तथा खेती और किसानी आदि सभी प्रमुख सेक्टरों में ठोस कार्य किए गए।
  • योगी सरकार की स्पष्ट एवं पारदर्शी नीति तथा योजनाओं के समयबद्ध क्रियान्वयन से आज उत्तर प्रदेश देश की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला राज्य बन चुका है।
  • प्रदेश के सभी क्षेत्र के समुचित विकास के लिए योजनाएं बनाकर उनके क्रियान्वयन के लिए पर्याप्त बजट प्रावधान किए गए हैं।
  • सभी योजनाओं की संरचना एवं क्रियान्वन में नारी, युवा, गरीब एवं किसान कल्याण को प्रमुखता प्रदान की गई है। कार्य की गुणवत्ता के लिए शीर्ष स्तर पर सतत अनुसरण किया जा रहा है।

प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में विकास दिखाई दे रहा है। प्रदेश को देश और दुनिया में नई पहचान मिली है। आज उत्तर प्रदेश केंद्र की सभी योजनाओं में अग्रिम है। कानून व्यवस्था, बिजली, पानी, सड़क, एक्सप्रेसवे, मेट्रो, एयरपोर्ट, महिला सुरक्षा, सरकारी नौकरी और स्वरोजगार समेत तमाम क्षेत्रों में आज प्रदेश आगे बढ़ा है।

प्रधानमंत्री के मार्गदर्शन में उत्तर प्रदेश में देश दुनिया की नई पहचान बन रहा है। यह बातें प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ जी द्वारा कही गई और सचमुच प्रदेश में या दिखाई भी पड़ रही है।

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ जी के नेतृत्व में कानून का राज्य स्थापित हुआ है। चाहे गरीबों के घर गैस कनेक्शन, बिजली, नल से जल देना हो या नई सड़कों व नए हाईवे का निर्माण डबल इंजन की सरकार ने हर क्षेत्र में अच्छा काम किया है। सरकार के ईमानदार प्रयासों की वजह से यूपी के लोगों में एक नया विश्वास पैदा हुआ है। आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक सहित हर क्षेत्र में विकास के कार्यों की जनता सराहना कर रही है।

किसान कल्याण पर फोकस रहा सरकार का

  • प्रधानमंत्री किसान सम्मन निधि के अंतर्गत 2.63 करोड़ किसानों को 64694 करोड रुपए हस्तांतरित
  • प्रधानमंत्री किसान सम्मानधन योजना के अंतर्गत प्रदेश के लघु एवं सीमांत किसानों को 60 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर ₹3000 की मासिक पेंशन
  • वर्ष 2017 से 29 जनवरी 2024 तक लगभग 46 लाख गन्ना किसानों को 233793 करोड रुपए से अधिक का रिकॉर्ड गन्न मूल्य का भुगतान
  • प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत लगभग 10 लाख विमित कृषकों को 831 करोड रुपए की क्षतिपूर्ति

बाणसागर अर्जुन सहायक और सरयू नहर सहित 20 परियोजनाओं को पूर्ण कर 23 लाख हेक्टेयर से अधिक अतिरिक्त सिंचन क्षमता का सृजन किया गया, जिससे 44 लाख से अधिक किसान को लाभान्वित किया गया

डार्क जोन में नए निजी नलकूप कनेक्शन देने पर लगा प्रतिबंध खत्म कर लगभग 100000 किसान लाभान्वित

 पीएम कुसुम योजना के अंतर्गत 51720 सोलर पंप की स्थापना

  • बुंदेलखंड क्षेत्र में एकल रवि फसल की सिंचाई हेतु सीजनल टैरिफ का लाभ एवं अस्थाई विद्युत संयोजन की सुविधा
  • प्रदेश में कृषि क्षेत्र की विकास दर 5.01 प्रतिशत प्राप्त करने का लक्ष्य

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।