गुम बच्चियों की कहानी

                                                    गुम बच्चियों की कहानी

                                                                                                                                              डॉ0 रेशु चौधरी एवं सरिता सेंगर

                                                                                

आस्कर पुरूस्कार के लिए चयन की गई डॉक्यूमेंट्री फिल्म फॉर डाटर्स, वर्ष 2016 की कहानी है। टयूनीशियन अहैरत ओल्फा हैमराऊनी, जिसने स्थानीय मीडिया को संपर्क किया और अपनी बेटियों को लीबिया से वापस लाने की गुजारिश की। इनकी बेटियों को आतंकी गतिविधियों के संदेह में हिरासत में लिया गया था। इस मां को अपनी बच्चियों की परवरिश में खासी मशक्कत करनी पड़ी। ट्यूनीशियन डायरेक्टर कऊधर बेन हानिया ने इनके बारे पढ़ा। बेन की वर्ष 2020 में अरबी में ‘‘द मैन हू सोल्ड हिज स्किन’’ को बेस्ट इंटरनैशनल फीचर ऑस्कर के लिए नॉमिनेट भी किया गया था। हमराऊनी को बेन ने काफी मशक्कत के बाद तलाशा और उसके जीवन में आयीं इन खौफनाक बातों को सहजतापूर्वक जाना।

यह एक जटिल चरित्र है, बेटियों को लेकर भयमुक्त और खुलकर बोलने वाली कट्टरवाद पर संशयवादी। उसकी छोटी बेटियाँ इपा और तापसिर उस समय 11 व 3 साल की थीं। जबकि बड़ी बेटियां पीफ्रेम व रहमा घर से क्यों गये, यह तय नहीं है। वे खुद गयीं या कोई जबरन उन्हें ले गया, यह भी स्पष्ट नहीं है। परिवार उनसे कभी मिला नहीं। हालांकि फिल्म को लेकर ये उत्साहित है। तीक्ष्ण नजर रखने वाली निदेशक ने गुम बच्चियों और उनकी मां के दर्द को पढ़ा और उसकी गहराई में जाना चाहा, यह काबिल-ए- तारीफ है। मगर चार बच्चियों वाली तमाम मांओं की कहानियां, जो कभी किसी को सुनायी नहीं जातीं। उनमें से तमाम अनकही ही रह जाती हैं। सारी दुनिया में ढेरों लड़कियां गुम हो जाती है।

                                                                             

अपने यहाँ ही होम मिनिस्टरी का डाटा कहता है. वर्ष 2019 से 2021 के दरम्यान 13.3 लाख औरतें/लड़कियां देश भर से गुम हो गयीं। अकेले वर्ष 2021 में 18 साल की उम्र से कम की नब्बे हजार बच्चियां देश भर में गुमशुदा हैं। इन बच्चियों को ना तो कभी खोजा गया है और ना ही इसकी कहीं सुगबुगाहट होती है। सरकारें विज्ञापनों से मीडिया को पाट देती हैं। स्लोगनों में बेटी बचाओ कहना जितना आसान है, हकीकत में उतना ही उन्हें बचाना मुश्किल है।

डॉटर्स यानी बेटियां चार हो या फिर दो अपने समाज में ही नहीं बल्कि तमाम एशियाई देशों में बेटियों का होना मांओं के लिए बेढब ही होता है। उन्हें परदों में रखो या फिर जंजीरें डाल दो। मेरे मोहल्ले में चार बेटियों वाला एक परिवार रहता था। शादी के लायक हो चुकी न लड़कियों की मां नहीं थी। पिता दारूबाज और दो बड़ी बहने अधेड़ हो चली थीं। वे बालों को सस्ते खिजाब से रंग कर, उदास आंखों से छज्जे पर जब-तब आया-जया करती थीं।

पिछले कई महीने से जो फिर साल हो गए थे, उनकी तीसरी बेटी गुम थी। इस पर आस पड़ोस में कुछ खुसर-पुसर भी हुई तो बड़ी बहनों ने कहा कि वह नाना के यहां गयी है। लेकिन दरअसल रोजाना की किचकिच से आजिज आकर वह तीसरी लड़की अपने आशिक के साथ निकल गयी थी। चालीस सालों तक परिवार में किसी ने नाम तक नहीं लिया। क्या उस लड़की को सपने

देखने कोई अधिकार नहीं था, वह गयी तो गयी। यहाँ दिल्ली में मेरे दफ्तर में काम करने वाली एक युवती चार बहनों में सबसे बड़ी थी। परिवार को गुजारे में मदद की लिहाज से उसने नौकरी की थी। वह ग्रामीण पृष्ठभूमि के दबंग पत्रकार से नैन-मटक्का कर बैठी। जो उसे अपने साथ लेकर घूमता फिरता और फिर रातों-रात उन दोनों ने शादी भी कर ली तो युवती का परिवार स्यापे करने लगा। काफी बवाला हुआ और बाद में वे लखनऊ चले गये। इसके कुछ समय बाद पोल खुली कि उन महाशय की पहले ही गांव में शादी हो चुकी थी। ग्रामीण पृष्ठभूमि की सादा सी पत्नी को गांव में छोड़ कर वह यहाँ प्रेम कर रहा थात्र तो युवती के परिवार ने भी उसे आवेश में छोड़ दिया था।

जबकि गांव में पहली पत्नी खेती-बाड़ी को संभाल रही थी ऐसे में जीवन दुरुह रहा उसका। चार बहनों में से तीन का मां-बाप ने बाद में व्याह किया, यह कह कर कि उनकी बस तीन ही बेटियां हैं। जो आज अपने परिवार में खुश हैं, अपनी बड़ी बहन को भुला कर। मेरे दो दूर के रिश्तेदारों की चार बेटियां थीं। जाहिर है, यह बेटियां बेटों की चाह में पैदा की गयीं थीं। एक ने तो उन्हें ना ढंग की तालीम दिलायी, ब्याह के बारे में सोचा भी नहीं। यह मान कर की घर के किसी कोने में पड़ी रहेंगी। उनमें से एक लंबे समय तक मानसिक तौर पर अस्थिर रही, जिसने बाद में खुदकुशी कर ली।

                                                      

दूसरी लंबी बीमारी के बाद मौत के मुंह में जाती रही। दूसरे रिश्तेदार ने अधेड़ होने के बाद दो को ब्याह करा दिया तो दूसरी को ससुरालियों ने जिन्दा जला कर मार डाला और पहली मायके वापिस आ गयी। मां की मौत के बाद से उनके घर मातम ही पसरा रहता है। भीतर की असल कहानियां कभी सामने ही नहीं आयीं। चार बहनों में पहली दो तो व्याह दी गयीं। जबकि तीसरी का रंग थोड़ा तांबई था और वह कद की भी काफी छोटी थी जिस कारण से उसका रिश्ता नहीं मिलता था। दोनों बहनें आपस में लड़ी तो चौथी ने उसे अपने व्याह का रोड़ा कहकर उसपर तंज कर दिया और इस आवेश में वह फांसी लटक गयी।

आपस में सर फुटव्वल करने वाली चार अन्य बहनों में से एक ने तो सबक सिखाने के लिए अपने ऊपर किरोसिन उढेल कर आग ही लगा ली। उसे भारी मशक्कत करने के बाद पालकों ने बचा तो लिया परन्तु उसकी शक्लो-सूरत बिगड़ गयी और उसके लिए वर ढूँढ़ने में उसके बाप की ढेरों जूतियां घिस गयीं।

दोष तो औरतों को ही दिया जाता है। बच्चियों को सही ढंग से शिक्षित करने और उन्हें स्वावलंबी बनाने की जरूरत सबसे ज्यादा है। उनके मन में शादी/बच्चे जनने का शऊर डालने की बजाए आत्मनिर्भर होने और विपरीत परिस्थितियों से जूझने का जज्बा रोपा जाना चाहिए।

कहने-सुनने में तो फोर डॉटर्स एक सादा सा शब्द है। मगर इनके भीतर चवालिसों कहानियां दबी-छुपी रह जाती हैं। बेचारी लड़कियां खुद ही यह नहीं जान पाती कि उन चारों पांचों या छठों को क्या करना है? कैसे जीना है? कहाँ जाना है? वह अपनी इच्छा से तीसरी चौथी या पांचवी नहीं पैदा होतीं। मसला उनकी शिक्षा का होना चाहिए, शादी में दहेज का या ससुरालियों से न निभा पाने का दोष भी औरतों को ही दिया जाता है।

                                                                           

    ऐसे में बच्चियों को सही ढंग से शिक्षित करने और उन्हें स्वावलंबी बनाने की जरूरत तो सबसे ज्यादा है। उनके मन में शादी/ बच्चे जनने का शकर डालने की बजाए, आत्मनिर्भर होने और विपरीत परिस्थितियों से जूझने का जज्बा रोपा जाना चाहिए। इसके लिए सरकारों और व्यवस्था पर दबाव बनें कि वे बच्चियों की गुमशुदगी को लेकर सतर्क हो। बच्चे कहीं काफूर नहीं होते, उनकी खरीद-फरोख्त की जाती है। उनके साथ गुलामों की तरह सेक्स किया जाता है। उनके अंगों की तस्करी के लिए उन्हें मार दिया जाता है। खबरें तो यह भी है कि लड़कियों को आतंकवादी गतिविधियों में भी संलिप्त किया जाता है। मासूम बच्चों के मार्फत ड्रम्स की तस्करी भी की जाती है। इन पर कितनी ही मार्मिक फिल्में बन जाएं, उपन्यास लिखे जाएं या कविताएं रची जाएं, परन्तु बच्चों की गुमशुदगी रुकने वाली नही है।

लेखिका: सुभारती विश्वविद्यालय, मेरठ में सहायक प्राध्यापिका (असिसटेन्ट प्रोफेसर) हैं।