अवसाद और बर्न-आउट में अंतर

                        अवसाद और बर्न-आउट में अंतर

                                                                                                                                                         डॉ0 दिव्यांशु सेंगर एवं मुकेश शर्मां

“आमतौर पर बर्न-आउट को काम की अधिकता से जोड़ा जाता है, लेकिन हर मामले में ऐसा नहीं है”-

                                                                  

यदि आप अपने आपको इतना थका हुआ महसूस कि फोन पर किसी से बात करना तो दूर की बात है आप फोन की घंटी बजते ही उसे उठाकर दीवार पर फेंकने के लिए आतुर हो जाते हैं। आपको न तो अपना घर ही पसंद आ रहा है और न ही साथ रहने वाले लोग। शायद आपको नहीं पता कि थकान की यह लहर बर्न-आउट है या फिर किसी तरह का अवसाद। आप सही शब्द ढूंढने में पूरी तरह से नाकाम होकर अपने दोस्तों से बस यही कह पाते हैं कि मैं थक गया हूं।

इंग्लैंड की केंट यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की प्रोफेसर और लेखिका एंजेला नील-बार्नेट कहती हैं, “अमूमन बर्न-आउट को काम की अधिकता से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन हर मामले में ऐसा नहीं होता है।’’ वह कहती हैं, ‘जब लोगों को ऐसा महसूस होता है कि अपने दैनिक जीवन पर उनका नियंत्रण ही नहीं है, तो वे अपने कार्यों की छोटी-छोटी बातों में उलझ कर परेशान हो जाते हैं।

                                                              

    ऐसे लोग अपनी नौकरी के प्रति भी अनमने से दिखते हैं। जब लोगों को लगता है कि वे कुछ भी नहीं कर सकते तो वे सहानुभूति खोजने लगते हैं और वह न्यूनतम काम करने लगते हैं, जो उन्हें नौकरी पर बनाए रखने के लिए जरूरी हो।’ विश्व स्वास्थ्य संगठन भी बर्न-आउट को रोग न मानकर, काम से जुड़ी एक सामान्य घटना ही मानता है, जबकि वह अवसाद को एक रोग मानता है, जिसमें लोग उन गतिविधियों का आनंद उठाने में असमर्थ हो जाते हैं, जिन्हें कभी वे काफी महत्व देते थे।

वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जेसी गोल्ड के अनुसार बर्न-आउट और अवसाद दोनों में ही आप कम या ज्यादा सो सकते हैं, लेकिन अवसाद की अंतिम परिणति इस विचार के साथ हो सकती है कि अब जीवन जीने लायक नहीं है, जबकि बर्न-आउट में ऐसा नहीं होता।

अमेरिकी साइकिएट्रिक ऐसोसिएशन की डॉ रेबेका ब्रेडल कहती हैं कि इन दोनों में मुख्य अन्तर यह होता है कि जब आप काम से दूर होते हैं, तब बर्न-आउट खत्म होने लगता है, जबकि परिस्थितियां बदलने से अवसाद के स्तर में कोई कमी नहीं आती है। अवसाद की वजहें आनुवंशिक भी हो सकती हैं या फिर जीवन में किसी दर्दनाक घटना को सहने या फिर बड़े बदलाव से गुजरने वालों में भी अवसाद की समस्या हो सकती है।

                                                               

बर्न-आउट खुद भी अवसाद के लिए जमीन तैयार कर सकता है। डॉ गोल्ड के अनुसार, ‘अवसाद हो या बर्न-आउट दोनों में फर्क जरूर होता है, लेकिन किसी तरह का मूवमेंट दोनों स्थितियों में कारगर साबित हो सकता है।

प्रकृति को निहारते हुए दस मिनट की वॉक (व्यायाम की तरह नहीं) से काफी फायदा मिल सकता है। कुछ समय के लिए खुद को मोबाइल स्क्रीन से दूर रखने के भी जादुई नतीजे हो सकते हैं।’

Writer: Dr. Divyanshu Sengar, the Medical Officer of Pyare Lal Sharma Distric Hospital Meerut.