दलहन के उत्पादन में वृद्वि की नई तकनीक

                        दलहन के उत्पादन में वृद्वि की नई तकनीक

                                                                                                                                                               डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी

                                                                                              

     दलहनों की आशा के प्रतिकूल उत्पादकता (576 कि.ग्रा./है) होने का कारण यह नही कि उनकी अधिक उत्पादक क्षमता (1500 से 200 कि.ग्रा./है)  नही है। वास्तव में दलहनों के कम उत्पादन का प्रमुख कारण कृषकों द्वारा दलहनों को अधिक महत्व न देना तथा उनकी बुआई सीमान्त क्षेत्रों में करना है जहां कोई फसल ठीक प्रकार से नहीं उगाई जा सकती है। परम्परागत खेती में 90 प्रतिशत से अधिक दलहनी फसलों को बारानी क्षेत्रों में उगाया जाता है। इन क्षेत्रों की भूमि प्रायः कम उपजाऊ होती है तथा उनमें नमी धारण क्षमता भी ही कम होती है जिसके कारण अच्छी पैदावार प्राप्त नही हो पाती। इसके अतिरिक्त दलहनी फसलों का कीटों एवं रोगों के प्रति अधिक सुग्राही हाने के कारण लगभग  से 30 प्रतिशत उपज की हानि हो जाती है। दलहनें अनाज एवं प्रकंगु की अपेक्षा 2-3 गुना अधिक प्रोटीन बनाने में सक्षम होती हैं, यह सुरक्षित भा-संशिष्ट (फोटोसिंथेट) का भरपूर अधिक प्रोटीन का सेष्लेषण करती हैं। जबकि अनाजों एवं प्रकंगु में यही भा-संशिष्ट दालों में एकत्र होकर उपज को बढ़ानें अपना योगदान प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त दलहनों की खेती करने वाले कृषक सबसे अधिक गरीब हैं तथा वह उपलब्ध संसाधनों का अधिक लागत वाली फसलों जैसे- गेंहूँ, आलू, कपास, गन्ना इत्यादि फसलों पर व्यय को प्राथमिकता प्रदान करते हैं। उक्त समस्त व्यवधानों के बावजूद भी गत तीन दशकों के दौरान दलहनी फसलों के उत्पादन में वृद्वि दर्ज की गई है (सारणी-1)।

                                                         

सारणी-1: पिछले तीन दशकों में दलहनों की राष्ट्रीय उत्पादकता (कि0ग्रा0/है0)

क्र0सं0

फसल

60 का दशक

70 का दशक

80 का दशक

वृद्वि (%) में

1.

चना

601.9

634.5

669.6

11.2

2.

अरहर

652.2

695.8

740.1

13.5

3.

मूँग

276.2‘‘

310.3

389.3’

40.9

4.

उडद

297.5‘‘

314.9

392.3’

31.9

5.

मसूर

-

456.3’

567.7’

24.4

6.

मटर

-

609.2’

804.2’

32.2

‘‘अन्तिम 6 वर्षों का औसत”, ’9 वर्षों का औसत”

वास्तविकता तो यह भी है कि दलहनों की उत्पादकता कम नही है, किन्तु पूर्व में उल्लेखित कारणों से इनकी छवि उज्जवल नही है। जो तकनीकी पिछले दशकों में उपलब्ध कराई गई हैं, यदि उनका स्थानान्तरण भली-भाँति जनसाधारण (छोटे, मध्यम एवं बड़ें किसानों) आदि में किया जाए तो दलहनों की उत्पादकता में 100-200 प्रतिशत की वृद्वि कुछ ही वर्षों में प्राप्त की जा सकती है। वह नयी तकनीकी जो कि दलहन उत्पादन की वृद्वि का मुख्य साधन रही है और और जिसके उपयोग से भविष्य में भी उत्पादकता की वृद्वि की पुर्ण सम्भावनाएं हैं, उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार से है-

उन्नतशील प्रजातियाँ-

                                                                            

     देश के विभिन्न क्षेत्रों के लिए दलहन की अधिक एवं स्थिर उपज देने वाली प्रजातियों के विकास ने दलहनों की उत्पादकता वृद्वि में बहुत बड़ा योगदान प्रदान किया है। अपरम्परागत क्षेत्रों के लिए भी नई प्रजातियों का विकास किया गया है, जो कि अन्य फसलों के साथ फसलचक्र में काफी उपयोगी सिद्व हुई हैं। दलहनों की नई उन्नतशील प्रजातियों का विकास केवल पिछले दशकों में, 60 के दशक की अपेक्षा 5 गुना अधिक उत्पादन हुआ है। प्रजातियों के विकास के सम्बन्ध में गहन विवरण सारणी में दिया गया है।

तर्क संगत उत्पादन तकनीकी

     फसल अनुसंधान तकनीकी दलहनों में अधिक उत्पादकता में वृद्वि करने में अत्यन्त सहायक रही हैं। इस तकनीकी का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

ऽ    दलहनों के प्रारम्भिक विकास के लिए नाईट्रोजन का मिलना अतिआवश्यक है। अतः 18 कि.ग्रा. नाईट्रोजन/है0 देना पर्याप्त है। वहीं फॉस्फोरस की आवश्यकता 46 कि.ग्रा. प्रति है0 की दर से पूरी हो जाती है। नाईट्रोजन एवं फॉस्फोरस की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए 100 कि.ग्रा. डी.ए.पी./है0 की संस्तुति की गई है।

  • खरपतवार दलहनीं फसलों के लिए बहुत ही हानिकारक है, जिनके कारण फसल में 60 प्रतिशत तक की कमी आ जाती है। बुआई के 30 एवं 45 दिनों बाद निराई कर खरापतवारों का निकालना अत्यन्त आवश्यक है। इसके लिए रासायनिक खरपतवारनाशक के उपयोग की संस्तुति भी की जाती है। फसल उगाने से पूर्व पेन्ग्रामिथिलीन 1 से 1.25 कि0ग्रा0/है0 अथवा एनाक्लोर 1 कि0ग्रा0/है का छिड़काव करने से मौसमी खरपतवारों का ऐसा ही नियंत्रण हो जाता है जैसा कि दो बार निराई करने के उपरांत होता है।
  • समुचित उत्पादन तकनीकी के विकास से बसंत एवं ग्रीष्म ऋतु की मूँग तथा उड़द, शीघ्र पकने वाली अरहर, जो अरहर-गेहँू फसल चक्र के लिए उपयुक्त है, उत्तर-पूर्वी मैदानी क्षेत्रों के लिए राजमा तथा विभिन्न क्षेत्रीय जलवायु एवं अपरम्परागत क्षेत्रों में दलहनों का क्षेत्रफल बढ़ा है।
  • अरहर की देर से पकने वाली प्रजातियों में टाईप-17, पी.डी.ए. 10 तथा टाईप-7 से अधिकतम उपज परीक्षण्णें में सर्वाधिक उपज प्रदान की है। पी.डी.ए.-10 तथा टाईप-7 ने अधिक नमी में उगाने के लिए भी सहनशीलता का प्रदर्शन किया है। अरहर को समतल स्थानों में बोने की अपेक्षाकृत मेंड़ों पर उगाना अधिक लाभकारी पाया गया है।
  • फॉस्फोरस की प्राप्ति के लिए अमोनियम पॉलीफॉस्फेट (ए.पी.पी.) डी.ए.पी. के समकक्ष ही सिद्व हुआ है। देश में गंधक विभिन्न स्थानों पर 20 कि0ग्रा0/है0 तक उपयुक्त पाया गया है।
  • बौनी मटर के लिए उत्पादन तकनीक का विकास किया जा चुका है। विभिन्न प्रजातियों के परीक्षणों में अपर्णा (एच एफ पी 4) ने सर्वाधिक उपज प्रदान की है। समुचित पौध संख्या (50 पौध/वर्गमीटर) तथा फलियाँ बनते समय सिंचाई की उपज बढ़ाने में निर्णायक भूमिका रही है। दलहनें 20 कि0ग्रा0 नाईट्रोजन 40 कि0ग्रा0 फॉस्फोरस/है0 की दर से उपयुक्त पाई गई हैं।
  • चना की बुआई का उपयुक्त समय अक्टूबर का दूसरा सप्ताह होता है। डी0ए0पी0 को 125 कि0ग्रा0/है0 डालने से सर्वाधिक उपज प्राप्त की गई है। राजमा समतुल्य उपज राजमा आलू (2:1) से प्राप्त हुई है। अरहर पर आधारित अन्तरसस्य पद्वति में, अधिकतम अरहर  मूँग़/उड़द से प्राप्त की गई है।

सारणी-2: दलहन की उन्नतशील प्रजातियों के विकास का विवरण

क्र0सं0

फसल

60 का दशक

70 का दशक

80 का दशक

1990 का दशक

योग

1.

चना

5

18

31

4

58

2.

अरहर

6

17

24

4

51

3.

मूँग

6

15

27

3

51

4.

उड़द

7

13

15

3

38

5.

मटर

-

5

4

2

11

6.

मसूर

1

3

9

1

14

7.

लोबिया

2

10

13

1

26

8.

राजमा

-

2

5

1

8

9.

कुल्थी

-

3

3

-

6

10.

मोठ

1

1

2

-

4

11.

खेमारी

-

-

1

-

1

योग

 

28

87

131

19

268

फसल सुरक्षा

                                                        

     उन्नतशील प्रजातियाँ, जो अधिक उपज एवं अच्छे अनुकूलन के लिए विकसित की गई है, अधिकाँश के लिए सुग्राही है। अतः यह अत्यन्त आवश्यक हो गया है कि प्रभावकारी पौध संरक्षण तकनीकी का विकास उत्पादन तकनीकी के साथ ही किया जाए। कीट एवं रोग दोनों ही की रोकथाम के लिए अच्छी जानकारी विकसित की जाए।

हानिकारक कीट

दलहनें कई प्रकार के कीटों के लिए सुग्राही होती है तथा उनके द्वारा औसतन 20-250 लाख टन उपज की हानि प्रतिवर्ष होती है। कीटों के प्रभावकारी नियंत्रण के लिए कम लागत वाली तकनीकी विकसित की गई है।

  • अनुसंधानों के माध्यम से ज्ञात हुआ है कि अरहर में फली बेधक मक्खी तथा चना में चना फली बेधक, मसूर में माहूँ या चेपा, ग्रीष्म ऋतु की दलहनों में थ्रिप्स, उड़द, मूँूग में जेसिड, भ्रँग, रोयेदार गिंडार तना बेधक मक्खी तथा मटर में तना बेधक मक्खी व फला बेधक मुख्य कीट व्याधियां हैं।
  • चना फली बेधक उत्तर भारत में विशेषकर उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में मार्च कें मध्य से इसकी प्रचुरता बढ़ जाती है। इसी तरह तना बेधक मक्खी का प्रकोप फरवरी-अप्रैल से अधिक होता है। शीघ्र एवं देर से पकने वाला अरहर पर भिन्न रूप के कीट हानि पहुंचाते है। इन्हीं परीक्षणों के द्वारा प्राप्त सूचनाओं के आधार पर नई अरहर एवं चने की प्रजातियाँ विकसित की जा रही हैं जो कीटों की प्रचुरता से बच सके। अरहर की बहार जाति फली बेधक के प्रकोप से बची रहती है।
  • चना फली बेधक की प्रचुरता का योनजा द्वारा पता लगाया जाता है ताकि इस कीट की गतिविधियों का निरन्तर पता चलता रहे। इसी सूचना के आधार पर चना फली बेधक का उत्तर भारत में अत्याधिक संख्या में बढ़ने का पता समय से पूर्व लगाया जा सकता है। और इसके नियंत्रण के बारें में समय रहते चेतावनी जारी की जा सकती है। इसी तरह प्रकाश ज्ञान द्वारा रोवेदार गिंडार, फली बेधक तथा भृंग आदि की गतिविधियों के बारे में भी पता लगाया जा सकता है। इस विधि के द्वारा इनके नियंत्रण के बारे में भी अच्छे परिणाम प्राप्त हुए है।
  • बहुत बड़ी संख्या में पित्रद्रव्य को उगाकर उनमें से अवरोधी प्रजातियों का चयन किया गया है जिन्हें अभिजनन कार्य में प्रयुक्त किया जा सकता है उन अवरोधी जातियों के नाम नीचे दिये जा रहे हैं।
  • अक्टूबर में बोया गया चना, फली बेधक के प्रकोप से बच जाता है। उसी प्रकार देर से पकने वाली अरहर की प्रजातियों में जो एक माह पूर्व पक जाती है फली बेधक कीट के द्वारा की जाने वाली हानि से बच जाती है। चने की अंतरासस्य गेहँू, जौ, सरसों तथा अलसी के साथ करने से फली बेधक कीट से कम प्रभावित होती हैं। अपेक्षाकृत केवल चना की बुवाई करने से ग्रीष्म ऋतु की मूँग व उड़द में समय से सिंचाई करने से पत्तियों को हानि पहुंचाने वाली थ्रिप्स की तीव्रता कम हो जाती है।
  • चना फली बेधक तथा फली बेधक मक्खी के परजीवी एवं थ्रिप्स के अतिरिक्त न्यूक्लीयर पॉलीहैड्रोसिस विषाणु का 500 गिंड़ार तुल्य का छिड़काव 10-12 दिन के अन्तराल पर करना विशेषकर बहुत ही असरकारक पाया गया है।
  • चना फली बेधक के लिए जीव के बीज की गिरी के सत (5 प्रतिशत) को साबुन (1 प्रतिशत) के साथ मिलाकर छिड़काव करने से अच्छा नियंत्रण होता है।
  • कई अच्छे कीटनाशी दवाओं की पहिचान कर ली गई है। छिड़काव के अन्तर्गत नियंत्रित फुहार देने वाली मशीनों से 20 प्रतिशत घोल का शुष्क कृषि में प्रयोग, चना में दीपक के नियंत्रण के लिए आल्ड्रिन घुलनशील से बीज को उपचारित करना, कार्बोसल्फान का उपयो चूषक कीट के लियंत्रण के लिए मँूग तथा उड़द में करना, बुवाई से पूर्व साहंतिक दानेदार कीटनाशियों का बूँदों में प्रयोग कीटों का आसानी से नियंत्रण करने के लिए बहुत ही प्रभावकारी सिद्व हुआ है।

सारणी-3: अवरोधी किस्मों के नामों की सूची

क्र0 सं0

दलहन

कीट

अवरोधी किस्में

1.

चना

फली बेधक

जी एल 645, आई सी सी 506, आई सी सी 7559-6, एन ई सी 876, पी डी ई 5, एस 7 एस 76

2.

अरहर

फली बेधक

आई सी पी 88-2 ई, 88-3 ई, 1903 3009, 7946, 8102-5, 8121, 10466 एमए2, पी डी ई 45-2

3.

मूँग

श्वेत मक्खी, जैसिड

एम एल 337, 422, 423, 428

4.

उड़द

श्वेत मक्खी, जैसिड

यू एल 239, यू जी 324

बीमारियाँ

                                                                          

  • रोग से बचाव के लिए दृढ़ दिशा निर्देशन किया गया जिसके अंतर्गत बहुत अधिक संख्या में पित्रद्रव्य का परीक्षण किया गया और उसमें से जो प्रतिरोधी/सहनशील प्रजाति/समपित्रैक प्राप्त हुआ उनमें कुछ विशेष को किसानों के यहाँ उगाने की संस्तुति की गई तथा अन्य को अभिजनन कार्य के प्रयोग के लिए रखा गया है। जिन प्रतिरोधी प्रजातियों को प्रजातियों को किसानों के यहाँ उगाने की संस्तुति की गई है उन्हें सारणी-3 में दर्शाया गया है।
  • अरहर में बांझ रोग के प्रसारक की रोग व्यापिकी एवं परिस्थिकी के अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि बहुवार्षिक एवं पूर्वमूलांकुर पौधे रोग को जीवित रखने एवं प्रारम्भिक बयार से संभावी योगदान देते हैं।
  • पीला चितैरी विषाणु रोग के रोगव्यापीकी अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि इसका प्रकोप बुआई के 50-60 दिन पश्चात् बहुत ही तीव्र हो जाता है। अतः रोगप्रसारक एवं विषाणु रोग दोनों के ही प्रभावकारी नियंत्रण हेतु बुआई से पूर्व फोरेट के सांहतिक दानेदार (10 किग्रा0/है) प्रयोग करें तथा मेलिथियान (0.1 प्रतिशत) के तीन अनुपूरक छिड़काव 7-10 के अन्तराल से करें।
  • देर से बुआई की जाने वाली मटर पर चूर्णी कवक रोग का प्रकोप अधिक होता है। नवम्बर के मध्य में बोयी जाने वाली फसल रोग से बच जाती है। यदि आवश्यकता हो तो कवकनाशाी का उपयोग बोने से नौ सप्ताह बाद करें।
  • मसूर की बुआई यदि अक्टूबर के मध्य में की जाए तो फसल रतुआ के तीव्र प्रकोप से बच जाती है। डायथेन एम-45 (0.25 प्रतिशत) का रोग पर प्रभावकारी नियंत्रण हो जाता है।

क्षेत्रफल में विस्तार

कम समय पकने वाली मूँग एवं उड़द को बहुफसली पद्वति में उगाना

     इन फसलों में कम समय में ही तैयार होने की सामथर््य के कारण यह सिंचित कृषि के विभिन्न सस्य पद्वति में समावेश कर जाती है। ग्रीष्म मँूग की क्षमता विभिन्न जलवायु में भिन्न रहती है। शीघ्र तथा एक साथ पकने तथा पीली चितैरी विषणु रोग के लिए प्रतिरोधिता के कारण बसन्त एवं ग्रीष्म ऋतु उत्तरी भारत तथा रबी में धान के पश्चात् दक्षिण भारत में इसका विस्तार हुआ है। जैसे जैसे सिंचाई की सुविधा बढ़ेगी, इसके क्षेत्रफल में और विस्तार होगा। उत्तर पूर्वी के मैदानी भागेां में किए गए अग्रिम पंक्ति प्रदर्शनों में पीडीएम-54 ने 1137 किग्रा0/है0 तक उपज प्रदान की है तथा वर्ष 1990 में 13 प्रदर्शनों की औसत उपज 996 किग्रा0/है0 थी। इसी प्रकार पंत मूँग-2 की औसत उपज 832 किग्रा0/है थी। वर्ष 1991 में 174 स्थानों पर प्रदर्शन किए गए, जहाँ उपज में भिन्नता प्राप्त हुई है। इसके परिणाम सारणी-4 में दर्शाये गये हैं।

अतिरिक्त क्षेत्रफल की सम्भावनाएं

     देश में 1986-87 में उड़द एवं मँूग का क्षेत्रफल क्रमशः 31.3 एवं 32 लाख है0 था। विभिन्न कृषि जलवायु एवं क्षेत्रों में इनके क्षेत्रफल में वृद्वि की सम्भावनाएं निम्नांकित हैं-

धान की परती भूमि में उगाना

     धान की परती भूमि में उड़द एवं मँूग का उगाना एक आश्चर्य जनक सफलता का द्योतक है। यह किसानों के लिए अत्यन्त लाभदायक सिद्व हुई है। इन दोनों फसलों की उत्पादन क्षमता एवं लाभकारी होने के आंकड़े सारणी-5 में दिये गये हैं।

     उड़द एवं मूँग के लिए उत्पादन तकनीकी, उपयुक्त उन्नतशील तथा पीली चितैरी विषाणु रोग के प्रति प्ररोधी प्रजातियों तथा पोध संरक्षण की समुचित तकनीकी का विकास कर लिया गया है।

राजमा

      राजमा को अत्यन्त लाभकारी फसल के रूप में उत्तरी-पूर्वी मैदानी क्षेत्रों के लिए चुना गया है। यह उच्च लागत एवं अच्छे प्रबन्ध के लिए उपयुक्त है तथा कृषक इसको गेंहूँ के स्थान पर बो सकते हैं। राजमा के पक्षांत यदि बसन्त/ग्रीष्म में मूँग/उड़द बोया जाये तो दोनों फसले सिंचित क्षेत्रों में गेंहूँ या चना से अधिक  लाभकारी पाई गई है। राजमा को आलू के साथ अन्तरासस्य के रूप में भी उगाया जा सकता है। राजमा की सबसे उत्तम प्रजातियाँ वी एल-63, पी डी आर-14 (उदय), एच यू आर-15 तथा एच यू आर-137 है। रबी में राजमा की खेती उत्तर-पूर्वी मैदानी क्षेत्र में अत्यन्त सफल मानी गई है तथा इसकी उपज 2-3 टन/है0 तक पाई गई है। वी एल-63 प्रजाति को खरीफ में सफलतापूर्वक उत्तरी पहाड़ियों की घाटियों में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।

शीध्र पकने वाली अरहर

                                                                

     अरहर की शीघ्र पकने वाली प्रजातियों ने, सिंचित क्षेत्रों में, अरहर-गेहँू फसल-चक्र में प्रवेश कर क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया है। उत्तरी भारत में यह एक सामान्य फसल-पद्वति बन चुकी है। आज सिंचत क्षेत्रों में 90 प्रतिशत से अधिक शीघ्र पकने वाली प्रजातियाँ बोई जा रही हैं। बारानी क्षेत्रों में भी शीघ्र पकने वाली प्रजातियाँ सफल रही है क्योंकि बरसात के पश्चात् पानी के अभाव तथा सर्दियों में पाला आदि से बचाव रहता है तथा अधिकतम उपज प्रदान करती है। अरहर के परम्परागत क्षेत्रों में जहाँ सिंचाई के साधन बढ़ने से रबी में गेहँू का क्षेत्रफल बढ़ रहा है, शीघ्र पकने वाली प्रजातियाँ (यू पी ए एस-120, आई सी पी एल-87, आई सी पी एल-151, टाईप-21, पूसा-33, पूसा-855, विशाखा) देर से पकने वाली प्रजातियों का स्थान ग्रहण कर रही हैं। हाल ही में संकर अरहर आई सी पी एच-8 ने प्रवेश किया है जो मध्य क्षेत्र में सर्वाधिक लोकप्रिया प्रजाति टाईप-21 को हटाने में मदद करेगी। संकर अरहर से 20-25 प्रतिशत अधिक उपज अरहर-गेहँू फसल चक्र में प्राप्त हो जायेगी लगभग 100 लाख है0 क्षेत्र को गेहँू के क्रम में पंजाब, हरियाणा, उत्तर-पश्चिमी राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के सिंचित क्षेत्रों में शीघ्र पकने वाली अरहर के हेतु प्राप्त किया जा सकता है।

सारणी-3: दलहनों के रोगों