किसानों के नुकसान का भी सोचिए

                        किसानों के नुकसान का भी सोचिए

                                                                                                                                                                            डॉ0 आर. एस. सेंगर

                                                                

पहले हमारे भोजन में 10-12 प्रकार के अनाज शामिल होते थे। ऐसा इसलिए, क्योंकि हम खेतों में वही अनाज बोते थे, जो खेत मांगते थे। तब हमारी समूची खेती वर्षा पर आधारित हुआ करती थी. जिसमे औसतन चार वर्ष में एक साल सूखे का होता था। मगर आज सिंचाई के साधनों के कारण हम यही अनाज उगाते है, जो बाजार मांगता है।

अब कल्पना कीजिए कि बाजार ने सोयाबीन की मांग कर दी, तो किसान अपने उन बड़े-बड़े बांधों तक को तोड़कर सोयाबीन बो देता है, जो कभी तालाब की तरह कार्तिक तक भरे रहते थे, और बाद में उनमें या तो गेहूं, चना बोया जाता था या अगर सूखे का साल रहा तो समूचे बांध में कोदो बो दिया जाता था। पहले अनाज में ऐसा विभाजन नहीं था, जैसा आज मोटे अनाज आदि में है।

विभाजन था, तो सिर्फ यह कि कुछ तो खाने में कोमल थे, तो कुछ ज्यादा खुरदुरे। वर्षा पर आधारित खेती में सूखे के बाद किसानों को तुरंत राहत देने वाले अनाज की आवश्यकता महसूस होती थी। ऐसी स्थिति में डेढ़ माह में पकने वाले कुटकी, सांवा और काकुन महत्वपूर्ण अनाज थे। अस्तु उस समय इन अनाजों को गरीबों का भोजन ही कहा जाता था। हालांकि इसका एक परोक्ष लाभ यह भी था कि इन मोटे अनाजों को खाने वाले हमारे ग्रामीण कृषि आश्रित समाज को कभी मोटापा, रक्तचाप, मधुमेह जैसी बीमारियां भी नहीं होती थीं।

                                                                

वंशानुगत कारणों से यदि किसी को हुई. भी, तो वे उतनी असर नहीं डालती थी, क्योंकि इन अनाजों में औषधीय गुण मौजूद थे। मगर जब से हमारा भोजन मात्र गेहूं, चावल के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह गया अमूमन हर तीसरा व्यक्ति इन बीमारियों से पीड़ित है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।