महिलाओं की आत्मनिर्भरता

                        महिलाओं की आत्मनिर्भरता का सत्य

                                                                                   
                                                                                                                                                            डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा

कहते हैं कि प्रत्येक सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है। परन्तु पुरुषवादी सोच वाले समाज में स्त्री क्या और कितनी सफलता अर्जित कर पाती है? हालांकि, आत्मनिर्भर महिलाओं को ही ज्यादातर सफलता की सीढ़ियां चढ़ते देखा गया है। ऐसी असंख्य आत्मनिर्भर औरतें हैं, जिन्होंने शादी नहीं की, न ही संतानों को जन्म दिया। इसके उपरोत भी उनका जीवन व्यर्थ नहीं हुआ।

हिंदी सिनेमा की मश्हूर अभिनेत्री नीतू सिंह की सोशल मीडिया पर बेहद मजबूत उपस्थिति वास्तव में गौर करने लायक है। हालांकि यह प्रतिभा संपन्न अभिनेत्री अब भी फिल्मों में कभी- कभार दिख जाती हैं, लेकिन ऋषि कपूर जीवित रहते हुए शायद ही किसी अखबार, टेलीविजन, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और पार्टियों में उनकी ऐसी उपस्थिति दिखाई देती थी। बीते दिनों की इस सदाबहार अभिनेत्री को जनता जैसे भूल ही गई थी। परन्तु हाल के वर्षों में उन्होंने फिर से खुद को प्रासंगिक बनाया है।

कहा जाता है कि हर पुरुष की सफलता के पीछे किसी नारी का योगदान होता है। वैसे ही स्वयं नारी की सफलता के लिए भी आत्मनिर्भरता जरूरी है। इस प्रकार से कुछ महिलाओं के तो पति के गुजर जाने या फिर उसका साथ छोड़ देने पर कई महिलाओं को सफलता की सीढ़ियां चढ़ते देखा गया है।

अतः यह मानना भ्रामक ही है कि निचले तबके की स्त्रियों को ही पुरुष वर्चस्ववादी समाज का दबाव या अत्याचार सहना पड़ता है। क्योंकि उच्च वर्ग की महिलाओं को भी लगभग उतने ही समझौते करने पड़ते हैं।

बांग्लादेश की चर्चित अभिनेत्री परीमणि ने कुछ दिन पहले घोषणा की थी कि चूंकि उनके पति ने निरंतर उनका शारीरिक-मानसिक शोषण किया इसलिए अब वह अपने पति से सारे रिश्ते खत्म कर रही हैं। मानने का कारण है कि उनकी उस घोषणा के बाद उनके परिचितों, परिजनों का उन पर अपना फैसला वापस लेने का दबाव भी बना। कुछ लोग तो सोशल मीडिया पर उन पर उलजुलूल आरोप लगाने तक से भी बाज नहीं आए। फिर इसका नतीजा वही हुआ, जिसकी आशंका थी।

आखिरकार परीमणि को समझौता करना ही पड़ा, और फेसबुक पर पति से तलाक लेने की जो सूचना उन्होंने पोस्ट की थी, वह उन्होंने डिलीट कर दी। परिवार और समाज के दबाव में परीमणि को उसी पुरुष के साथ रहने के लिए विवश होना पड़ा, जिससे वह अलग होना चाहती थीं। ऐसे में जाहिर है, उन्हें फिर से वही शारीरिक-मानसिक शोषण का भी सामना करना पड़ेगा। फिर वह अंदर-बाहर से टूटती और घुटती ही रहेंगी। फिर भी उन्हें चुप ही रहना पड़ेगा

बांग्लादेश में असंख्य महिलाओं की चहेती परोमणि को असंख्य शोषित महिलाओं की तरह से ही गूंगी और सहनशील बनकर ही अपना जीवन बिताना पड़ेगा। और पति की सफलता के पीछे उनके योगदान को स्वीकार किया जाएगा। लेकिन उन्हें अपनी सफलता के लिए इंतजार करना पड़ेगा और क्या पता, पारिवारिक-सामाजिक दबावों के आगे समर्पण कर देने वाली परीमणि को वह सफलता कभी मिले ही न, जो कि वह चाहती हैं। क्योंकि वह सफलता शायद उन्हें अकेले रहने पर मिल सकती थी।

 

हमारे समाज में जिस तरह से महिलाओं के लिए पति की उपस्थिति जरूरी है, उसके बिना विवाहित स्त्री के जीवन का कोई मूल्य नहीं होता है, ठीक वैसे ही संतान का होना भी बहुत जरूरी है। यह हमारे समाज के कुछ पैमाने हैं, जिन्हें आज भी पहले की तरह से ही लागू किया जाता है।

दरअसल पति के साथ रहने और संतान को जन्म देने के जैसे मानक सैकड़ों-हजार वर्षों से स्त्रियों को बांध देने के लिए समाज के द्वारा लागू किए गए हैं। इस दुनिया में ऐसी असंख्य शिक्षित, आत्मनिर्भर और सजग महिलाएं हैं, जिन्होंने शादी नहीं की, और न ही संतानों को जन्म दिया उसके उपरांत भी उनका जीवन व्यर्थ नहीं हुआ।

महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में हमारे समाज का रवैया कैसा है, इसका पता बांग्लादेश की एक हालिया घटना से चलता है। वहां मजनूं नाम के एक लुटेरे व नशेड़ी को ढाका विश्वविद्यालय की एक छात्रा से बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। उसकी गिरफ्तारी के बाद पुलिस अधिकारी ने मीडिया में जो बयान जारी किया, उसके अनुसार, मजनूं का यह अपराध उसके पहले के अपराधों की तुलना में कहीं अधिक गंभीर है। उसने इससे पहले क्या अपराध किया था? से पता चलता है कि इससे पहले भी उसने कई गरीब और दिव्यांग लड़कियों के साथ यही घृणित अपराध किया था।

                                                                                   

पुलिस अधिकारी शायद यह कहना चाह रहे हो कि एक के बाद अपराध करने के कारण मजनूं का जुर्म ज्यादा गंभीर है। यह सही हो सकता है, लेकिन पुलिस अधिकारी के बयान से इसका भी आभास मिलता है कि एक पढ़ी-लिखी लड़की के साथ यौन अपराध गंभीर मामला है। जिस समाज में पुलिस-प्रशासन के उच्च पदों पर आसीन लोग तक स्त्री के खिलाफ अपराधों में फर्क करते हैं, उस समाज में महिलाओं को न्याय दिलाना बहुत आसान नहीं है।

यह मानने के कई कारण है कि गरीब, मजबूर और साधनहीन महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों के प्रति प्रशासन और व्यवस्था का रवैया अमीर, पढ़ी-लिखी और प्रभावशाली महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों से काफी भिन्न होता है। ऐसे में लोागें कौन यह समझाए कि यौन अपराध चाहे किसी के भी साथ हो, यह सदैव घृणित और निंदनीय होता है, और ऐसे प्रत्येक मामले में पुलिस-प्रशासन का रवैया एक जैसा ही होना चाहिए।

लेकिन जिस बांग्लादेश में वहां का समाज निरंतर कट्टरता की ओर बढ़ता जा रहा है, और जहां लड़कियों, स्त्रियों के प्रति लगभग प्रतिदिन ही नए दिशा-निर्देश जारी किए जाते हैं, वहां पर महिलाओं के प्रति होने वाले यौन अपराधों के खिलाफ एक जैसी सख्ती और प्रतिबद्धता की उम्मीद करें भी, तो कैसे! वहां के स्कूली पाठ्यपुस्तक में ही सलवार-कमीज और दुपट्टे में एक लड़की की तस्वीर छापकर कहां गया है कि लड़कियों के लिए यही उपयुक्त पोशाक है। इससये आगे इसमें कारण बताते हुए कहा गया है कि अपने शारीरिक बदलावों के कारण बड़ी होती लड़कियों को झुककर चलना पड़ता है। लेकिन ष्दि कमीज पर दुपट्टा रख लेने से वे सीधा होकर चल सकती हैं।

                                                                      

यह तो केवल एक नमूनाभर ही है। यह भी हो सकता है कि आने वाले दिनों में बुर्के वाली महिलाओं की तस्वीर छापकर यह बताया जाए कि महिलाओं के लिए यही सबसे उपयुक्त पोशाक है। बांग्लादेश के समाज में कट्टरवादी सोच के साथ कट्टरवादी पोशाकों के प्रति रुझान जिस प्रकार से बढ़ता जा रहा है, उस देखकर यह लगता नहीं है कि वहां बुर्के पर जोर देने का किसी प्रकार का कोई विरोध भी हो सकेगा।

अब यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि शरीर में बदलाव होने पर लड़कियों को शर्मिंदा क्यों होना चाहिए? और अतिरिक्त कपड़ा या पर्दा ही इसका हल क्यों होना चाहिए? क्या पुरुषों के शारीरिक बदलाव के बारे में भी यही तर्क दिया जाता है? हैरानी की बात तो यह है कि इस तरह के तर्क मौजूदा 21वीं सदी में भी दिए जा रहे हैं। इसके साथ ही इन कट्टरवादियों का तर्क यह भी है कि मर्यादा और गरिमा में रहने वाली लड़कियों और स्त्रियों के प्रति अपराध कम होते हैं।

स्पष्ट रूप से जाहिर है, कि यह एक कुतर्क ही है। स्त्रियों पर होने वाले अपराधों को कम करने के लिए महिलाओं का पर्दे और बुर्के में ढका रहना जरूरी नहीं है बल्कि उससे अधिक जरूरी यह है कि पुलिस-प्रशासन चुस्त-दुरुस्त हो, और इसके साथ ही समाज में स्त्रियों के प्रति जागरूकता पैदा करने का प्रयास गम्भीरता के साथ किए जाएं।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।