वर्तमान में उपलब्ध संसाधनों एवं पर्यावरण का संरक्षण किस प्रकार सम्भव

     वर्तमान में उपलब्ध संसाधनों एवं पर्यावरण का संरक्षण किस प्रकार सम्भव

                                                                                                                                                               डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी

                                                                     

    संपोषित कृषि एवं जीवाँश कृषि दोनों को आमतौर पर किसी भ्रमवश एक-दूसरे का पर्याय ही अधिक मानते हैं। अतः यहाँ यह बताना आवश्यक हो जाता है कि सम्पोषित कृषि आपने आप में एक विस्तृत शब्दावली है जो जीवाँश कृषि को भी अपने अन्दर ही समाहित करती है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो जीवाँश कृषि सम्पोषित कृषि का ही एक रूप है, जिसके अन्तर्गत रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशियों आदि का प्रयोग पूर्ण रूप से वर्जित होता है। सम्पोषित कृषि के प्रमुख रूप से निम्न चार लक्ष्य होते हैंः

  • संसाधन संरक्षण
  • पर्यावरण का स्वास्थ्य
  • सामजिक एवं आर्थिक समानता
  • आर्थिक लाभ।

वैसे सिमटती भूमि, सिकुड़ते जल-संसाधन, निर्बाध गति से बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण तथा आनुवांशिक ह्रास को देखते हुए यदि सम्पोषित कृषि को अपनाना वर्तमान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी। वहीं यदि सम्पोषित कृषि को नही अपनाया जाता है तो यह सत्य है कि भविष्य में उपज में कमी एवं पारीस्थितिक असंतुलन का खतरा एक गम्भीर रूप भी धारण कर सकता है, जिससे खाद्यान्न उत्पादन कमी होने के साथ ही मानव जाति के स्वस्थ्य को भी गम्भीर चुनौतियों का समाना करना पड़ सकता है।

रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों पर पूर्णतः आधारित पारम्परिक कृषि से खाद्यान्न उत्पादन में तो अकल्पनीय वृद्वि हुई है, इसमें को सन्देह नही, परन्तु इसी के साथ भूमि का क्षरण, वनों का विनाश, बढ़ता पर्यावरण प्रदुषण, आनुवांशिकी ह्रास, भूजल-स्तर में निरंतर जारी गिरावट के जैसी गम्भीर समस्याओं का प्रादुर्भाव हुआ हैं उपरोक्त चुनौतियों के समक्ष यह सिद्वत के साथ महसूस किया जा रहा है कि पारंपरिक कृषि इस लम्बी दौड़ में टिकाऊ नही है।

इसी के फलस्वरूप सम्पोषित कृषि की अवधारणा का जन्म वर्ष 1981 में हुआ, जो कि प्राकृतिक संसाधनों तथा पर्यावरण के संरक्षण पर विशेष जोर देती है। सम्पोषित कृषि को सतत् कृषि, निर्वहनीय कृषि, समगतिशील कृषि तथा टिकाऊ कृषि आदि नामों से भी जाना जाता है।

सम्पोषित कृषि एवं पारम्परिक कृषि में विषमताएंः

                                                                 

                       

सम्पोषित कृषि के अन्तर्गत प्रबन्धन प्रक्रियाएं पारम्परिक कृषि से भिन्न होती हैं। इस प्रकार की कृषि में आनुवांशिक संसाधनों एवं जल-संसाधनों के संरक्षण के साथ मृदा संरक्षण के साथ मृदा संरक्षण पर विशेष जोर दिया जाता है। सम्पोषित कृषि में भूमि की उर्वराशक्ति को बढ़ानें के लिए एकीकृत पोषक प्रबन्धन, कीटों के नियंत्रण के लिए एकीकृत कीट प्रबन्धन और खरपतवार प्रबन्धन के लिए एकीकृत खरपतवार प्रबन्धन आदि को काम में लाया जाता है। इसके विपरीत पराम्परिक कृषि मेंमृदा की उर्वराशक्ति को बढ़ानें के लिए रासायनिक उर्वरकों तथा कीट एवं खरपतवार आदि के नियंत्रण के लिए विनाशकारी /हानिकारक रसायनों का प्रयोग किया जाता है।

देशी प्रजातियों की खेती करने पर जोर

                                                                   

    खाद्यान्न उत्पादन में वृद्वि की दृष्टि से अधिक उपज प्रदान करने वाली कुछ संकर प्रजातियों का उपयोग किए जाने के कारण विभिन्न फसलों की पारम्परिक देशी प्रजातियाँ या विलुप्त हो चुकी हैं या फिर वे विलुप्ति के कगार पर हैं। फसलों की विभिन्न देशी प्रजातियों साथ ही साथ उनकी जंगली प्रजातियों की क्षति को भी आनुवांशिक ह्रास के रूप में ही देखा जाता है। संकर प्रजातियों की अपेक्षा अधिक पोष्टिकता की दृष्टि से देशी प्रजातियों का संरक्षण भी आवश्यक माना जा रहा है।

देशी प्रजातियों में पोष्टिकता के अतिरिक्त अन्य उपयोगी गुण यथा रोग-रोधी, कीट-रोधी एवं सूखा-रोधी आदि भी होते हैं जो संकर प्रजातियों के सुधार में सहयोगी सिद्व हो सकते हैं।  जैव-विविद्यता का संरक्षण भी सम्पोषित कृषि के प्रमुख लक्ष्यों शामिल है, इसलिए इस प्रकार की कृषि में संकर प्रजातियों के साथ-साथ देशी प्रजातियों के संरक्ष्ण पर भी विशेष जोर दिया जाता है।

पोषण का एकीकृत प्रबन्धन

    पारम्परिक कृषि में रासायनिक उर्वरकों के अविवेकपूर्ण उपयोग से न केवल भूमि के क्षरण को बढ़ावा मिलता है, अपितु सतही एवं भूमिगत जल भी प्रदूषित हो जाता है। इसलिए सम्पोषित कृषि के अन्तर्गत मृदा की उर्वरा-शक्ति की बढ़ोत्तरी के लिए एकीकृत पोषक प्रबन्धन की अवधारणा पर बल दिया जाता है। एकीकृत पोषक प्रबन्धन में रासायनिक खाद, गोबर की खाद, हरी खाद, केंचुआ खाद, जैविक खाद तथा खली आदि का उपयोग किया जाता है।

जैविक खाद का उपयोग

                                                           

    जैविक खाद में फसलों में नाइट्रोजन की आपूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के नील-हरित शैवालों जैसे- एनाबीना, नॉस्टाक, आलोसाइरा, सिलंडोस्परम, साइटोनीमा, प्लंक्टोनीमा तथा ग्लियोकैप्सा आदि का उपयोग किया जाता है। नीलहरित शैवालों भूमि में नाइट्रोजन का स्थिरीकरण 15 से 45 कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टेयर की दर से करते हैं। इसके अतिरिक्त फर्न प्रजाति का पौधा अजोला पिन्नेटा का प्रयोग जैविक खाद के रूप में धान के खेतों में किया जाता है। अजोला एक जलीय पौधा है, जो कि आमतौर पर बरसात के मौसम में तालाब एवं टैंक आदि में एक बहुत बड़ी संख्या में उगता है। अजोला की मोटी परत 30 से 40 कि.ग्रा. नाईट्रोजन प्रति हैक्टेयर की आपूर्ति खेत में कर देती है।

    दलहनी फसलों के लिए फसलों के लिए एजोराइजोबियम, ब्रैडीराइजोबियम, मिसोराइजोबियम, राइजोबियम एवं साइनोराइजोबियम आदि जीवाणुओं का जैविक खाद के रूप में उपयोग किया जाता है। वहीं गैर-दलहनी फसलों जैसे- धान (ओराइजा सेटाइवा), गेंहूँ (ट्रिटीकम एस्टीवम), जौ (होरडियम वलगेयर), ज्वार (सोरगम वल्गेयर), मक्का (जिया मेज) तथा गन्ना (सैकरम आफिसिनेरम) आदि फसलों के लिए एजोटोबैक्टर, बेजरिकिया, क्लास्टिरिडियम, रोडोस्पाइरिलम, एजोस्पाइरिलम और हरबास्पाइरिलम जैसे नाइट्रोजन स्थिरीकृत जीवाणुओं का उपयोग किया जाता है। जीवाणुओं की इन प्रजातियों की नाइट्रोजन के स्थिरीकरण की क्षमता 20 कि.ग्रा. से 30 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर तक होती है।

    ‘‘सेल्युलोलिस्टक जैविक खाद’’ के रूप में स्परजिलस, पेनिसिलियम, फ्यूजेरियम एवं ट्राइकोडर्मा जैसे कवकों का उपयोग कार्बनिक पदार्थों के विघटन की दर को बढ़ाने के लिए किया जाता है, जिससे प्रमुख पौषक तत्व कार्बनिक पदार्थ मृदा से मुक्त होकर पौधों के लिए उपलब्ध हो जाते हैं।

    सामान्य रूप से फॉस्फोरस, मृदा में अलुघनशील अवस्था में पाया जाता है, जिसका उपयोग पौधों के द्वारा नही किया जा सकता है। फॉस्फोरस को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित करने के लिए जैविक खाद के रूप में स्यूडोमोनास प्यूटिडा एवं बैसिलस सबटिलिस जैसे जीवाणुओं का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार के जीवाणुओं का प्रयोग करने से पौधों के लिए फॉस्फोरस की उपलब्धता कई गुना तक बढ़ जाती है। जीवाणुओं के अतिरिक्त कवकमूल कवकों को भी फॉस्फोरस को घुलनशील बनाने हेतु प्रयोग किया जाता है।

यह कवकमूल कवक फसलों के साथ सहसम्बन्ध स्थापित कर उन्हें फॉस्फोरस की आपूर्ति कराते हैं। इस प्रकार से कवकमूल कवकों की पौधों के लिए फॉस्फोरस की उपलब्धता बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं फसलों के लिए आमतौर पर ग्लोमस, इण्डोगोन, स्केलोरोसिस्टिस, अकोलोस्पोरो तथा गाइगास्पोरा जैसे कवकमल कवकों का उपयोग किया जा सकता है।

संरक्षित जुताई

                                                                    

    पारम्परिक जुताई प्रक्रियाओं के माध्यम से भूमि के अपरदन को बढ़ावा मिलता है। अतः सम्पोषित कृषि में जुताई की प्रक्रिया में इस प्रकार से व्यवहारीय बनाया जाता है कि जिससे भूमि के संक्षण को प्रोत्साहन मिल सकें। इसलिए पारम्परिक जुताई के स्थान पर संक्षित जुताई प्रक्रिया को अपनाया जाता है। संरक्षित जुताई के अन्तर्गत कृषि भूमि को न्यूनतम अव्यवस्थित किया जाता है, जिससे कि फसल अवशेष, मृदा की सतह पर ही बने रहें। फसल के अवशेष, मृदा को जल एवं वायु के अपरदन से सुरक्षा प्रदान करते हैं और इसके पश्चात् विघटित होकर मृदा की उर्वरा-शक्ति को बढ़ाते हैं। पारम्परिक जुताई की अपेक्षा संरक्षित जुताई मृदा के अपरदन को पचास प्रतिशत तक कम कर देती हैं।

    इसके अलावा मृदा के संरक्षण तथा उसकी उर्वरा-शक्ति को बनायं रखने के लिए मिश्रित सस्यन सहफसली पद्वतियाँ एवं फसल चक्र जैसी सस्य क्रियाओं को अधिक उपयोग किया जाता है। इस मिश्रित सस्यन दलहनी एवं गैर-दलहनी फसलों एक साथ इसलिए उगाया जाता है, जिससे कि मृदा में उपस्थित नाइट्रोजन का अधिकतम उपयोग किया जा सके।

जल संरक्षण पर विशेष जोर

                                                                              

    चूँकि जल एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों में से एक हैं। पारम्परिक कृषि कार्यों की पूर्ति के लिए जल के अविवेकपूर्ण दोहन से के फलस्वरूप ही भूमिगत जल में निरंतर गिरावट आ रही हैं। हरित क्रॉन्ति से प्रभावित भारतीय राज्यों जैसे- हरियाणा, पंजब एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि में भूमिगत जल स्तर में अभूतपूर्व गिरावट दर्ज की गई है। पंजाब में लगभग 75 प्रतिशत क्षेत्र का भूमिगत जल वर्तमान में सिंचाई के योग्य ही नही है।

सम्पोषित कृषि, अपने स्वरूप में आने के साथ ही जल संरक्षण पर विशेष जोर देती है। सम्पोषित कृषि के अन्तर्गत वर्षा जल के संचयन, एवं जलविभाजक प्रबन्धन पर विशेष बल दिया जाता है, जिससे कि कृषि कार्यों के लिए अधिक से अधिक वर्षा जल का उपयोग किया जा सके। इसके अतिररिक्त सम्पोषित कृषि में टपक सिंचाई जैसी सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों के प्रयोग करने पर अधिकतम बल दिया जाता है, जिनके अन्तर्गत कृषिगत कार्यों के अन्तर्गत न्यूनतम जल का उपयोग किया जाता है और इससे जल संरक्षण को बढ़ावा मिलता है।

चूँकि भूमि एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन हैं, इसलिए सम्पोषित कृषि के अन्तर्गत भूमि के संरक्षण पर भी विशेष बल दिया जाता है। पारम्परिक कृषि प्रणालियों का सर्वाधिक हानिकारक प्रभाव भूमि पर ही पड़ता है, और वर्तमान में स्थिति यह है कि भारतवर्ष की कुल भूमि यानि कि 329 मिलियन हैक्टेयर भूमि में से 178 मिलियन हैक्टेयर भूमि बजंर अथवा बेकार भूमि में परिवर्तित हो चुकी है। जिसमें से लगभग 7 मिलियन हैक्टेयर भूमि लवणता और लगभग 6 मिलयन हैक्टेयर भूमि जल जमाव से प्रभावित हैं पूर्व में रासायनिक खादों के अविवेकपूर्ण प्रयोग से मृदा के अपरदन में लगातार वृद्वि हो रही है और देश की लगभग 25 प्रतिशत जल अपमरदन से प्रभावित है।

एकीकृत कीट प्रबन्धन

    पारंम्परिक कृषि में कीटनाशकों के अविवेकपूर्ण उपयोग से पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य पर विपरीत एवं गम्भीर प्रभाव पड़ें हैं। कीटनाशक अन्तिम रूप से खाद्य-श्रृंखला में प्रवेश कर मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में कीटनाशाक डी.डी.टी. की सर्वाधिक मात्रा (13.30 पी.पी.एम.) भारतीय नागरिकों के शरीर में ही पायी जाती है। चूँकि सम्पोषित कृषि में पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ मानव के स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया जाता है, इसलिए इसके अन्तर्गत कीटों का नियंत्रण एकीकृत कीट प्रबन्धन के द्वारा किया जाता है।

एकीकृत कीट प्रबन्धन के दौरान यान्त्रिक, कर्षण एवं जैविक विधियों के द्वारा कीट प्रबन्धन किया जाता है और आवश्यकता होने पर कीटों के पूर्ण सफाये के लिए रासानिक कीटनाशकों का सीमित प्रयोग ही किया जाता है। इसके अतिरिक्त कीट-रोधी एवं रोग-रोधी फसल प्रजातियों का उपयेग कर रोगाणुओं एवं कीटों पर नियंत्रण किया जाता हैं।

कीटों के जैविक नियंत्रण में सूक्ष्मजीवों जैसे कि बैसीलस थूरेनजियेन्सिस, ट्रईकोडरमा विरिडी आदि का उपयोग किया जाता है। रूारफाा (एनोना स्क्यूमोसा), नीम (एजाडिराक्टा इंडिका), काबुली कीकर (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा), लहसुनिया (एडिनोकैलिमा एलिसियम) तथा लहसुन (एलियम सेटाइवम) के माध्यम से प्राप्त वानस्पातिक नाशी जीवनाशकों का उपयोग कीटों, कवकों, जीवाणुओं तथा विषाणुओं के नियंत्रण हेतु किया जाता है।

फसल चक्र पर विशेष ध्यान

    सम्पोषित कृषि के अन्तर्गत पादप रोगों के नियंत्रण हेतु फसल चक्र पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इस प्रणाली के तहत एक ही फसल को बार-बार नही उगाया जाता है और फसलों के परिवर्तन से फसल रोगाणुओं की संख्या पर नियंत्रण रहता है, जिसके परिणाम से फसलों में रोग लगने की आशंका भी कम रहती है।

खरपतवार का एकीकृत प्रबन्धन

    सम्पोषित कृषि प्रणाली के अन्तर्गत खरपतवारों के नियंत्रण हेतु एकीकृत खरपतवार का उपयोग किया जाता है। इसमें यांत्रिक, कर्षण एवं जैविक तरीकों से खरपतवारों पर नियंत्रण किया जाता है। यदि बहुत आवश्यक हुआ तो रासायनिक खरपतवर नाशकों का न्यूनतम उपयोग भी किया जाता है। यांत्रिक विधियों में खरपतवार को हाथ से अथवा अन्य कृष्गित यन्त्रों जैसे कि खुरपी आदि का उपयोग कर खरपतवारों को समूल नष्ट किया जाता है।

कर्षण विधि के अन्तर्गत बुआई किए जाने वाले बीजों की साफ-सफाई पर विशेष जोर दिया जाता है, जिससे कि खरपतवारों के बीज फसलीय बीजों के साथ खेत न पहुँचने पाए। इसके अतिरिक्त इस विधि के अन्तर्गत फसल चक्र क्रियओं को अपनाकर भी खरपतवारों पर नियंत्रण किया जाता है। जैविक विधि से खरपतवार का नियंत्रण खरपतवारों के प्राकृतिक शत्रुओं जैसे कीटाणु अथवा रोगाणओं का प्रयोग करके भी खरपतवारों का नियंत्रण किया जाता है।

हरी खाद का उपयोग

                                                                       

    सम्पोषित कृषि में मृदा की उर्वरा-शक्ति को बढ़ानें के लिए हरी खाद जैसे ढैंचा (सेस्बेनिया रोस्ट्रेटा), बरसीम (ट्राइफोलियम एलेक्जेन्ड्रियम), सनई (क्रोटोलेरिया जुनसिया) तथा मसूर (लेन्स स्कुलेन्टम) आदि का भी उपयोग किया जाता है। हरी खाद के रूप में उपयोग किये जाने वाले इन पौधों में 2.5 सं 4 प्रतिशत तक नाइट्रोन की मात्रा उपलब्ध होती है। हरी खाद के रूप में प्रयोग की जाने वाली फसलों को खेत में उगाकर उनकी जुताई कर दी जाती है।

हरी खाद का प्रयोग करने से मृदा में नाइट्रोजन की वृद्वि के साळा ही साथ कार्बनिक पदार्थों की वृद्वि भी होती हैं और मृदा की संरचना में भी सुधार होता है। इसके फलस्वरूप मृदा के संरक्षण को बढ़ावा मिलकर मृदा की जल-धारण क्षमता में भी पर्याप्त वृद्वि होती है। नीम (एजाडिराक्टा इंडिका), करंज (पानगैमिया पिन्नेटा), महुआ (बैसिया लैटीफोलिया), रेड (रिसिनस कम्यूनिस) तथा तीसी (लाइनम सूसिटैसिस्मम) आदि की खली को कार्बनिक नाइट्रोजन खाद के रूप में उपयोग किया जाता है।

इसमें 4-6 प्रतिशत तक नाइट्रोजन की मात्रा होती है। यह खली मृदा की उर्वरा-शक्ति को बढ़ाने के साथ-साथ मृदा में उपस्थित हानिकारक कीटों एवं रोगाणुओं को भी नष्ट कर देती है।   

सम्पोषित कृषि के लाभ

    रासायनिक उर्वरकों एव नाशीजीव-नाशकों (पेस्टीसाइाइड्स) पर आधारित कृषि की अपेक्षा सम्पोषित कृषि में अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। इस प्रकार की कृषि से न केवल भूमि, जल, जैवविविधता एवं पर्यावरणको संरक्षण प्राप्त होता है, बत्कि उनसे प्राप्त होने वाले खाद्यान्नों में उच्च पोषण गुणवत्ता भी बनी रहती है और खाद्यान्न नाशीजीवनाशकों के अवशेषों से भी पूर्णतया मुक्त होते हैं। सम्पोषित कृषि, पारिस्थितिक संलुलन को बनाये रखने में भी सहायक सिद्व होती है।

चूँकि सम्पोषित कृषि के अन्तर्गत रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशको उपयोग नही होता या फिर बहत ही अल्प मात्रा में होता है, इस कारण से इस प्रकार की कृषि में लागत भी कम आती हैं भारत जैसे एक विकासशील देश के लिए यह अत्यन्त लाभकारी है, क्योंकि देश का अधिकाँश कृषक वर्ग कम पूँजी वाला तथा गरीब है, अतः इस कृषक वर्ग के लिए पारम्परिक खेती के व्यय को वहन करना अब एक महंगा सौदा बन चुका है, जो कि उनके आर्थिक रूप से पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण भी बनता जा रहा है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।