भारतीय कृषि विकास के कुछ विचारणीय पहलू

                 भारतीय कृषि विकास के कुछ विचारणीय पहलू

                                                                                                                                                  डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

                                                                         

    कृषि वर्तमान में भी देश के आर्थिक विकास का एक मुख्य आधार है और लगभग दो-तिहाई श्रम-शक्ति इसी में लगी हुई है। देश में खाद्यान्नों की खपत और गैर कृषि उपभोक्ता माल तथा सेवाओं की क्रय शक्ति का स्रोत भी कृषि ही है, अतः तीव्र कृषि विकास की आवश्यकता से भी इंकार नही किया जा सकता है।

    भारत के कुल खाद्यान्न उत्पादन में हालांकि 1950-55 से 1985-90 के मध्य के वर्षों में 2.6 प्रतिशत वार्षिक वृद्वि हुई है परन्तु जनसंख्या में भी 2.2 प्रतिशत वार्षिक वृद्वि हुई है। परन्तु इसके उपरांत खाद्यान्न उत्पादन के मामले में देश आत्-निर्भरता को प्राप्त किया हैं जिसे एक छोटी उपलब्धि नही माना जा सकता है फिर भी जब प्रति व्यक्ति की उपलब्धता पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है तो यह उपलब्धि भी संतोषजनक प्रतीत नही होती है। क्योंकि वर्ष 1989-90 में जब 17 करोड़ 30 लाख टन का शानदार खाद्यान्न उत्पादन हुआ ताक प्रति व्यकित वर्ष 1971 के 469 ग्राम प्रति व्यक्ति से घटकर अब 400 ग्राम प्रति व्यक्ति के स्तर पर आ पहुँची हैं, जो कि एक चिन्ता का विषय है।

इसके अतिरिक्त देश की लगभग 37 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा से नीचे अपना जीवन व्यतीत करने के लिए विवश है और इनके पास क्रय शकित का अभाव है अतः ऐसी स्थिति में खाद्यान्न उत्पादन के आंकड़ें तो शानदार प्रतीत हो सकते हैं, अतः तीव्र कृषि विकास को हासिल करने और भारत को आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए राजनीतिक शक्ति आक्र उसके साथ ही इच्छा शक्ति का होना भी उतना ही आवश्यक है।

    भारत को आर्थिक सुदृढ़ता प्राप्त करने के लिए जिन कुछ विशेष बातों पर तत्काल ण्यान दिये जाने की आवश्यकता है, उन बातों पर प्रस्तुत लेख के अन्तर्गत प्रकाश डाला जा रहा है-

    कृषि जलवायु की दशाओं और भूमि की विशेषताओं में अंतर होने के कारण खादों के उपयोग के साथ अन्य प्रकार के निवेशों का उतनी ही मात्रा में प्रयोग करने पर फसलों के उत्पादन भिन्न-भिन्न हो सकता है। इसी प्रकार उतने ही निवेशों का उतनी ही मात्रा में प्रयोग करने से फसल के उत्पादन में प्रत्येक वर्ष अंतर पाया जाता है।

                                                                                     

इस तरह से देश को विभिन्न जलवायु क्षेत्रों में विभाजित करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि एक क्षेत्र के अन्दर विभिन्नताएं कम से कम हों। पिछले कई वर्षों के दौरान देश को विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित करने के कई प्रयास किये गये। इनमें राष्ट्रीय कृषि आयोग (1976) और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद भी शामिल है। योजना आयोग ने भौतिक दशाओं, भौगोलिक स्थिति, मिट्टियों के प्रकार, भूगर्भिक संरचना, वर्षा, फसल चक्र एवं सिंचाई प्रौद्योगिकियों का विकास तथा देश में उपलब्ध खनिज साधनों के आधार पर देश को 15 कृषि-जलवायु क्षेत्रों में विभाजित किया गया हैं।

    कृषि-जलवायु सम्बन्धी क्षेत्र आयोजन का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण पर बिना कोई विपरीत प्रभाव डालते हुए वैज्ञानिक प्रबन्ध विधि से खाद्य पदार्थों, रेशे, चारे एवं ईधन की निरंतर बढ़ती हुई माँग को पूर्ण करना है। मोटे तौर पर कृषि-जलवायु के अलावा इन क्षेत्रों के विभाजन के लिए आयोजना और संचालन आदि प्रमुख सिद्वाँत थे। प्रशासकीय तथा संचालनात्मक सुविधा के लिए क्षेत्रीय सीमाओं के सीमांकन के लिए जिले को एक न्यमनतम इकाई के रूप में उपयोग किया गया। बाद में यह अनुभव किया गया कि मोटे तौर पर यह 15 क्षेत्र विशेष कृषि-जलवायु दशाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं परन्तु जब विस्तृत संचलनात्मक आयोजना के उद्देश्य से विचार किया जाता है तो एकरूपता की जांच पर यह खरा नही उतरता इसलिए इन 15 क्षेत्रों का फिर से विभाजन कर इन्हें 73 उपक्षेत्रों अथवा उप-प्रदेशों में विभाजित किया गया।

एकरूपता वाले योजना आधार को तैयार कर लेने पर इनमें से प्रत्येक उप क्षेत्र के लिए विस्तृत संसाधन सूची बनाने का प्रस्ताव किया गया। इस प्रकार तैयार की गई संसाधन सूची का उपयोग विकास के वर्तमान स्तर और उपलब्ध तकनीकी जानकारी के ऊपर विचार करते हुए उसके लिए उपयुक्त नीतियों को तैयार करते समय किया गया। कृषि-जलवायु क्ष्ेात्रीय आयोजना दृष्टिकोण के संचलनात्मक पहलू के रूप में विभिन्न क्षेत्रीय योजना दलों के द्वारा जिला कार्ययोजना का कार्य अपने हाथ में लिया गया। इसके लिए सम्बद्व राज्य सरकारों के द्वारा कार्यक्रम को तैयार करना तथा उसका क्रियान्वयन किया जाना अति आवश्यक है।

सूक्ष्म जल-विभाजक प्रबन्ध

                                                                  

    भारत में कृषि योग्य भूमि का लगभग 70 प्रतिशत (यानी लगभग 14 करोड़ 40 लाख हेक्टेयर) भूमि वर्षा के द्वारा सिंचित अवस्था में आती हैं और यह फसलों को उउगाने के लिए प्रकृति पर ही निर्भर रहती है। अनुमान लगाया गया है कि देश में उपलब्ध सम्पूर्ण सिंचाई क्षमता के दोहन के बाद भी वर्ष 2020 ई0 तक लगभग 50 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि वर्षा पर ही निर्भर रहेगी। ऐसा देखा गया है कि वर्षा आधारित क्षेत्रों में उत्पादन प्रायः कम होता है, क्योंकि मौसम की दशाएं एवं मृदा से सम्बन्धित कुछ समस्याएं प्रायः वहाँ रहती हैं, इसलिए वातावरण तथा भौगोलिक दशाओं और संसाधनों के आधार को देखते हुए कृषि विकास की प्रमुख नीति तैयार की जानी चाहिए और उसमें जल-विभाजन के आधार पर भूमि एवं जल-संसाधन प्रबन्ध को सम्मिलत किया जाना चाहिए। सूक्ष्म जल-विभाजन प्रबन्ध यानी माइक्रो वाटरशेड मैनेजमेंट में कुल संसाधन संरक्षण शामिल है जिनमें भूमि, जल,  वन, चरागाह, बागवानी और कृषि पशुपालन को शामिल किया जाता है।

जल-विभाजन की व्यवस्था के लिए भौगोलिक दृष्टि से ऊँर्चा और निचाई को ध्यान में रखते हुए बाँध बनाने, मिट्टी का तल तैयार करने और नालियों की प्रणाली, सीढ़ियां बनाने, जमीन को समतल करने, भूमि के आकार को ठीक करने और नालों के किनारों पर बाँध बनाने तथा नियंत्रक बाँध बनाने जैसी संरचनाओं को तैयार करने और भूमि संरक्षण के ढाँचे तैयार करने और भूमि की ऊँचाई तथा निचाई के अनुसार बाँध बनाने और बीहड़ को रोकने के लिए आवश्यक कार्यवाई करने आदि जैसी बातें शामिल हैं। बिना जुताई वाली भूमि जिसमें जुताई करने योग्य बंजर तथा बेकार ड़ी हुई भूमि को विशेष प्रकार से खेती के योग्य बनाने की आवश्यकता होती है।

                                                               

इसमें सामाजिक वानिकी, बारानी भूमि बागवानी फसलें, चारा विकास और वनोद्यान आदि शामिल हैं।इनमें से कुछ कार्यक्रम विभिन्न योजनाओं जैसे भूमि-संरक्षण, व्यापक जल-विभाजक विकास कार्यक्रम, रोजगार गारंटी कार्यक्रम, आर.एल.ई.जी.पी., डी.पी.ए.पी. जैसे कार्यक्रमों में शामिलयोजनाओं की विविधता दृष्टिकोण के प्रभावी लागू करने में एक व्यवधान है। इस दृष्टिोण पर अमल करने में सामुदायिक सहभागिता भी आवश्यक है। अदगांव, पलामखेड़ा और नया गांव (महाराष्ट्र) जैसे अनेक गांवों में स्वयं सेवी संगध्इनों की सफलता इस तथ्य का अपने आप में एक पुख्ता प्र्रमाण है। इस लक्ष्य को ग्रहण करने के लिए दस कार्यक्रम को प्राथमिकता एवं उसमें पर्याप्त पूँजी निवेश की आवश्यकता भी पड़ती है। इसी प्रकार से एक दीर्घकालिक योजना को भी तैयार करने की आवश्यकता होती है।

समकेतिक कीट नियंत्रण कार्यक्रम

                                                                               

    फसलों की होने वाली हानियों को वास्तविक रूप से कम करना, खाद्यान्न उत्पादन में वृद्वि करने का ही एक तरीका है। विभिन्न कीटाणुओं एवं रोगों से फसलों को क्षति पहुँचती है। केवल भारत में ही प्रति वर्ष कीटों एवं रोगों के चलते 6 हजार करोड़ रूपये से लेकर 7 हजार करोड़ रूपये तक की हानि होने का अनुमान लगाया जाता है। हालांकि अन्य विकसित देशों की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति कीटनाशक दवाओं का प्रयोग कम किया जाता है। इस प्रकार से प्रयोग किये जाने वाली दवाओं के अवशेष पर्यावरण में शेष रह जाते हैं, जो कि हतारे खाद्य पदार्थों को दूषित करते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि कीटनाशक दवाओं का प्रयोग पर्यावरणीय खतरों की सम्भावनाओं से परिपूर्ण है। नई जानकारियों एवं नए प्रकार के दबावों के आधार पर कीटनाशकों का प्रयोग करने से होने वाले नुकसान को कम करने पर बल देते हुए एक कार्यक्रम चलाने की आवश्यकता हैं वर्तमान में अनुभव किया जा रहा है कि कीट नियंत्रण का कोई एक तरीका इस समस्या का स्थाई समाधान नही हो सकता। इसी प्रकार यह भी देखा गया है कि जब किसी एक बड़े क्षेत्र में प्रतिरोधी प्रजातियां उगाई जाती है तो वे अच्छा उत्पादन प्रदान करती हैं।

हाल ही में यह अनुभव किया गया है कि कीट-नियंत्रण के लिए एक सुनियोजित प्रबन्धन कार्यक्रम को संचालित करने की आवश्यकता है, जो कि पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित होने के साथ-साथ इससे होने वाली क्षति को भी नियंत्रित करने में भी सक्षम हों। इसी चिन्ता को लेकर समन्वित कीट प्रबन्धन (आई.पी.एम.) आरम्भ किया गया है। समकेतिक कीट प्रबन्ध की अवधारणा का तात्पर्य यह है कि सभी उपलब्ध विकल्पों का उपयोग इतना सही ढंग से किया जाए कि कीटों की आबादी आर्थिक देहरी के स्तर को पार नही कर पाए। विकल्पों का सबसे प्रमुख घटकों में जैविक नियंत्रण, फसल चक्र में परिर्वतन अथवा सामजस्य तथा सूक्ष्म जीवाणुओं का रोगमूल प्रयोग शामिल है।

कीट-नियंत्रण प्रबन्ध उपायों पर अमल तब ही सम्भव है जब उपयुक्त फैंसलों के लिए आवश्यक विचारों को विकासित कर लिया जाए। इस मामले में प्रगति मुख्य रूप से आर्थिक देहरी अवधारणा के व्यापक अनुप्रयोग पर निर्भर करती है जिसके लिए उचित एवं प्रभावी अनुश्रवण तथा कीटाणुओं की आबादी के विकास के पूर्वानुमान औी कीटों पर नियंत्रण रखने के प्रयासों और फसलों की परिणामित क्षति के मध्य सम्बन्धों के बारे में सटीक जानकारियां शामिल हैं। इसलिए इन जटिल सम्बन्धों को अधिक स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करने तथा व्यवहारिक उद्देश्यों के लिए उपयोगी कार्यों में वर्णित करने के लिए मूलभूत आंकड़ों को विकसित करने की आवश्यकता हैं और इस समूची व्यवस्था के लिए प्राथमिकता के आधार पर पर्याप्त धन के आबंटन की आवश्यकता है। श्रम-शक्ति और बुनियादी ढाँचे के सम्बन्ध में उपलब्ध अवसर के लिए अनुसंधान आधार को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है।

ऋणों की वसूली

                                                                                   

    आधुनिक कृषि में महंगे निवेश की आवश्यकता से इंकार नही किया जा सकता है। भारतीय रिजर्व बैंक के द्वारा नियुक्त अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण समिति की सिफारिशों के आधार पर ग्रामीण वित्त में सहकारियों की भूमिका का विस्तार करने के लिए देश में ग्रामीण ऋण की एक समकेतिक योजना को आरम्भ किया गया जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 1954 में सहकार ऋध आन्दोलन को भारी प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण समिति का एक प्रमुख निष्कर्ष था कि भारतीय दशाओें में कृषि ऋण के चंगुल न फसने के लिए सहकारी प्रणाली सवर्था उपयुक्त है। इससे सहकारी ऋण संस्थाओं के विकास को अधिक गति प्रदान करने के लिए केन्द्र तथा राज्य सरकारों का प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। जिसके फलस्वरूप सहकारी ऋण ढाँचें का अब एक सुदृढ़ आधार तैयार हो चुका है जिसमें प्राथमिक कृषि ऋण समितियां, जिला केन्द्रीय सहकारी बैंक और राज्य सहकारी बैंक तथा उनके साथ ही साथ सदस्यों को अल्पकालिक मंढौले तथा लम्बी अवधि के ऋण देने के लिए राज्य कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों का भी एक तन्त्र विकसित हो चुका है।

इस सुदृढ़ एवं शानदार बुनियादी ढाँचें के बावजूद कृषि ऋण के क्षेत्र में सहकारी समितियों का हिस्सा वर्ष 1969 में 80 प्रतिशत से कम होकर वर्ष 1987 में 42 प्रतिशत तक नीचे आ चुका था और आगामी पाँच वर्षों के दौरान इसके और नीचे खिसक कर 40 प्रतिशत तक हो जानें की सम्भावना है। ऋण में सहकारियों के हिस्से में आयी इस कमी का मुख्य कारण बहु माध्यम प्रणाली की नीति में अमल में लाना है जिसमें कृषि तथा सम्बद्व कार्यों के लिए ऋण प्रदान करने के मामलों में राष्ट्रीयकृत वाणिज्यिक बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को शामिल किया गया।

इसके परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में वाणिज्यिक बैंकों के संजाल का बहुत अच्छा विस्तार हुआ। बैंकों की शाखाओं में अभूतपूर्व वृद्वि होने के बावजूद इन तीनों ही ्रपकार के बैंकों में अतिदेयता (अेवीड्यूज) की समस्या जस की तस रही। बैंकों की शाखाओं के तेजी से विस्तार और वाणिज्यिक बैंकों के द्वारा ऋण आपूर्ति और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में शामिल होने का सिलसिला जारी रहा। क्योंकि नीति योजनाओं के कारगर ढंग से प्रबन्धन करने में उनकी विफलता के कारण वाणिज्यिक बैंकों की अतिदेयता वर्ष 1986 तक 43 प्रतिशत हो गई। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंको और प्राथमिक कृषि ऋण समितयों की अतिदेयता वर्ष 1986 में क्रमशः 51 प्रतिशत एवं 41 प्रतिशत तक थी। सहकारियों की अतिदेयता का बढ़ता हुआ स्तर बहुत अधिक चिन्ता का कारण रहा जिससे सहकारी ऋण ढाँचा एक प्रकार से पंगु सा हो गया। ऋण आवेदन पत्रों का दोषपूर्ण आंकलन और ऋण उपयोग की अपर्याप्त निगरानी के अलावा और कई कारण थे जैसे दैवीय आपदाओं का प्रभाव, जान-बूझकर अदायगियां न करना, ऋणों का दुरूपयोग और ऋण वसूली की प्रक्रियाओं में खामियों के कारण यह स्थिति उत्पन्न हुई। यह अत्यन्त आवश्यक है कि अतिदेयता की समस्या का दृढ़ता के साथ समाधान किया जाए।

                                                                          

रकम का पुश्चक्रण करने के लिए वसूली की स्थिति में सुधार करने के साथ-साथ कवत्तीय स्थिति में सुधार लाना और सहकारी ऋण संस्थाओं की ऋण खपाने की क्षमता में उचित सुधार करना आवश्यक है। यह सुझाव भी दिया गया है कि जानबूझकर अदायगी से बचने वालों को न केवल सामाजिक दृष्टि से गलत व्यक्ति समझा जाए अपितु उसे अपराध मानकर उसे दण्डित किये बिना नही जाने देना चाहिए तथा आपराधिक कानूनों के तहत उन्हें कड़ी से कड़ी सजा देने का प्रावधान होना चाहिए। इससे ऋण संस्थाओं की क्षमता में सुधार लाने और ऋण भुगतान करने के मामले में किसानों को जिम्मेदारी के साथ कार्य करने में भी आवश्यक सुधार होगा, इसके साथ ही इसे दृढ़ता के साथ अमल करने की अवश्यकता है। यह भी आवश्यक है कि इन संस्थाओं के कामकाज और प्रबन्ध को राजनीतिक हस्तक्षेप और दबाव अथवा दबदबे से भी मुक्त ही रखा जाए। सरकार ने दस हजार रूपये तक के ऋणों को माफ करने की नीति बनाई है। अतः इसके दीर्घकालिक प्रभावों को ध्यान में रखते हुए इस पर सावधानी से विचार करने की आवश्यकता है।

विपणन

    विपणन किसानों की समृद्वि की कूँजी है। मात्र अधिक उत्पादन कर लेना ही आवश्यक नही होता अपितु सही समय और सही स्थान पर उस उपज को बाजार तक पहुँचाना भी उतना ही आवश्यक है। आमतौर पर लोग यह जानते हैं कि जब बाजार में मन्दी का दौर चलता है तो उससे वस्तुओं की कीमतें गिरती है और इससे अंततः किसानों को ही नुकसान उठाना पड़ता है। यह भी सब जानते है कि उत्पादक एवं उपभोक्ता के मध्य एक बड़ी श्रंख्ला है और उपीोक्ता जो कीमत अदा करता है उसका कीमत का एक बड़ा हिस्सा बिचौलिए ही हडप कर जाते हैं इसके लिए आवश्यक है कि उत्पादक की बिक्री योग्य अतिरिक्त उपज को बाजार में ले जाने के लिए और उसे उसकी उपज की उचित कीमत दिलाने और बिचौलियों के बिना काम चलाने लेने के लिए ग्राम तथा तालूका आदि के स्तर पर सहकारी मण्ड़ियों का एक मजबूत आधार निर्मित किया जाए।

उन्नत कृषि-आदान

    उत्पादन बढ़ानें, संचालन की लागत को कम करने और महंगे निवेशों का उचित और सामायिक अनुप्रयोग करके तथा कृषि-कार्यों में तंगी को कम करके और किसानों की आय को बढ़ाने के लिए उनकी कुशलता को अधिक से अधिक बढ़ाने के लिए उन्नत कृषि आदान, उपकरण और मशीनों आदि पर निवेश खेती में प्रमुख स्थान पर है। भारत में अधिकतर किसान सीमांत अथवा लघु श्रेणी के किसान हैं और उनके पास दो हेक्टेयर से कम जोत है और वह भी इस प्रकार छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटी है कि उन टुकड़ों में मशीनों का उपयोग करना काफी दुष्कर कार्य है। यदि खेत से खरपतवारों को समय से ही निष्काषित नही किया जाए तो फसलों के उत्पादन पर 25-27 प्रतिशत तक का प्रभाव पड़ता है। दसलिए यह आवश्यक ही नही बल्कि अनिवार्य भी है कि किसानों के द्वारा कृषि आदानों का और अधिक उपयोग किये जाने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए-

1. एक सुदृढ़ प्रसार तंत्र के माध्यम से किसानों को इसके बारे में जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

2. संचालन, मरम्मत और रखरखाव के मामले में किसानों, गांव के कारीगरों और मिस्त्रियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए।

3. किसानों को ऋण एवं रियायते आदि उपलब्ध कराई जानी चाहिए और इनकी बिक्री के पश्चात् भी सेवाओं को उपलब्ध कराना सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

4. उधार पर उपकरणों को प्राप्त करने के लिए केन्द्र स्थापित किये जाने चाहिए जिससे कि छोटे किसान इन मशीनों को किराये पर लेकर अपने कार्य सम्पन्न कर सकें।

5. उपकरणों के हिस्से एवं अन्य कलपुर्जे आसानी के साथ उपलब्ध होने चाहिए।

खाद्य पदार्थों का प्रसंस्करण

                                                                       

    देश में खाद्य-प्रसंस्करण उद्योगों की वृद्वि की अत्याधिक सम्भावनाएं हैं और इस क्षेत्र में भारत विश्व में एक अग्रणी देश के रूप में उभर कर सामने आ सकता है। भारत के पास एक विशाल समुद्री सीमा और समुद्री संसाधन उपलब्ध हैं, पर्याप्त मात्रा में फलों, सब्जियों और खाद्याननों के उत्पादन के लिए आवश्यक जलवायु भी उपलब्ध है साथ मांस उत्पादन के लिए सर्वाधिक पशुधन भी उपलब्ध है। फलों और सब्जियों के उत्पादन में भारत विश्व में द्वितीय स्थान पर है। इसलिए भारत को निर्यात के लिए भारी मात्रा में खाद्य पदार्थों की संसाधित किस्में तैयार करने के लिए इस स्थिति का लाभ उठाना चाहिए और इसके माध्यम से विदेशी मुद्रा अर्जित करनी चाहिए और इसके साथ ही वृहद रोजगार के अवसरों का भी सृजन किया जाना चाहिए। वर्तमान समय में विभिन्न संसाधित खाद्य पदार्थों की मात्रा हमारे यहाँ उपलब्ध सम्भावनाओं की तुलना में नगण्य प्राय ही हैं इसलिए यह आवश्यक है कि इस क्षेत्र में विकास के लिए निम्नलिखित कदमों का उठाया जाना समाचीन होगा-

1. प्रसंस्कृत किये गये खाद्य-पदार्थों पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों, शुल्कों और अन्य उपकरों को कम किया जाए अथवा समाप्त कर दिया जाए क्योंकि इससे इनकी माँग को प्रोत्साहन मिलेगा।

2. दर्जा (ग्रेडिंग) निर्धारण करने के लिए मानक तैयार किये जाने चाहिए।

3. डिब्बाबंदी उद्योग को आधुनिक बनाने के लिए आवश्यक प्रयास किये जाने चाहिए।

4. बड़े स्तर शीत-भण्ड़ारण सुविधाओं को स्थापित किया जाना चाहिए।

5. प्रभावी बाजार प्रोत्साहन को प्राथमिकता प्रदान की जानी चाहिए।

6. परिवहन की प्रयाप्त सुविधाओं को तत्काल उपलब्ध कराया जाना आवश्यक है।

लाभकारी मूल्य

    भारतीय कृषि में तीव्र गति से परिवर्तन आ रहा है। पूर्व में परम्परागत तरीके से गुजारे लायक ही उत्पादन प्राप्त होता था, परन्तु वर्तमान समय में किसानों की आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन प्राप्त हो रहा है। इसलिये किसानों को उनकी उपज के रूप में प्रोत्साहन हदये जाने की आवश्यकता है क्योंकि अधिक अनाज के उत्पादन के लिए किसानों को प्रेरित करने तथा कारोबार में उनकी दिलचस्पी को बनाए रखने के लिए यह अतिआवश्यक है। इस तथ्य से कोई भी इंकार नही कर सकता कि किसानों को उत्पादन और उत्पादकता में पर्याप्त वृद्वि के लिए यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है कि उन्हें उनकी उपज का लाीाकारी मूल्य भी प्राप्त हो। इस नीति का किसानों की आय पर निर्णायक प्रभाव पड़ेगा। केवल इतना ही नही उन्नत तकनीकियों को अपनाने, उत्पादन बढ़ानें और ग्रामीण पूँजी को बढ़ाने के लिए नीति तैयार की जानी चाहिए।

                                                                

किसानों को उनकी लागत पर पर्याप्त लाभ सुनिश्चित कर बड़े स्तर पर होने वाले बाजार के उतार-चढ़ाव से उन्हें सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए। इसके लिए उपज की कीमतों को एक ऐसे स्तर पर बनाया रखा जाए जिससे संसाधनों के उपयोग की क्षमता में वृद्वि हो। खेती की उपज के लिए कम कीमतों को ही उचित ठहराने के लिए प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि सर्वाजनिक धन के द्वारा पर्याप्त निवेश के कारण कृषि के उत्पादन में बढोत्तरी हुई इसलिए अधिक उत्पादन का लाभ गैर-कृषकों को भी दिया जाना चाहिए। एक विश्लेषण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वास्तव में मृद्रा-स्फीति और समायोजित कुल मूल्य के बाद किसान और अधिक गरीबी के गर्त में घिरता चला गया। इसके लिए यह आवश्यक है कि कृषि उत्पादन और निवेश के लिए सूझ-बूझ के साथ मूल्य नीति को अपनाया जाना चाहिए जिससे कि किसान बचत कर सकें और उत्पादन बढ़ोत्तरी के लिए अपनी भूमि में समय पर निवेश कर सकें।

अधिक आबंटन

    वर्तमान में देश के समक्ष क्षेत्र, धर्म, जाति और भाषा, नइत्रदी जल का आबंटन, परियोजना प्रभावित लोगों के पुनर्वास जैसी अनेक गम्भीर समस्याएं सदैव ही रही हैं इसलिए इस सूची में ग्रामीण-शहरी टकराव के रूप में एक ओर समस्या को इस सूची में जोड़ देना देश के लिए वांछनीय नही होगा। कुछ लोगों के मन में एक गलत आमधारणा यह है कि सार्वजनिक धन का एक बड़ा हिस्सा कृषि और ग्रामीण विकास में निवेशित कर दिया गया है और जिसके कारण कृषि क्षेत्र को काफी हद तक लाभ पहुँचा हैं और उससे ग्रामीणों के जीवन स्तर में भी सुधार आया है, परन्तु कुल पूँजी के बारे में सूचना तथा कृषि में कूल पूँजी निर्माण का यह दावा असफल सिद्व होता है। कृषि में पूँजी निर्माण का हिस्सा 1970-80 के 17.2 प्रतिशत से घटकर 1988-89 में 12.3 प्रतिशत हो गया है।

विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में योजना के व्यय पर यदि सरसरी तौर पर देखा जाए तो ग्रामीण कार्यक्रमेां जैसे कृषि, कृषि विकास और सिंचाई के व्यय में कमी आई है। प्रथम पंचवर्षीय योजना के 37 प्रतिशत से घटकर यह छठीं पंचवर्षीय योजना में 23.9  प्रतिशत और सातवीं योजना में 21.2 प्रतिशत रह गई। भारत जैसे देश में, जहाँ 75 प्रतिशत लोग अपनी आजीविका के लिए कृषि पर ही निर्भर करते हैं। योजना के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कृषि एवं ग्रामीण विकास की उपेक्षा को सहन नही कर सकते इसलिए यह आवश्यक है कि इन क्षेत्रों के लिए और अधिक योजना धनराशि को आबंटित किया जाना चाहिए।

    भारत की समृद्वि विशाल जन-शक्ति और इसके समृद्व प्राकृतिक संसाधनों के अंतर्गत निहीत है। योजना के लक्ष्यों को तीव्र गति से प्राप्त करने के लिए इन संसाधनों का पूरा-पूरा दोहन करना आवश्यक है। विभिन्न राज्यों में कृषि और सम्बद्व क्षेत्रों में सुप्रशिक्षित स्नातक और स्नाकोत्तर छात्रों को तैयार करने में कृषि विश्वविद्यालय सक्रिय रूप से जुड़े हैं जो ग्रामीण विकास के लिए अनुसंधान तथा विस्तार के क्रियाकलापों को तीव्र गति से अग्रसर करेंगे, इसलिए राज्य सरकारों का यह दायित्व है कि वह पर्याप्त धनराशि और बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध कराकर इन कृषि विश्वविद्यालयों को मजबूत बनाएं।

यदि हमें तीव्र गति से आर्थिक विकास को प्राप्त करना है तो मात्र अपने अनुभवों के आधार पर किसान पर्याप्त सफल उत्पादक की भूमिका को नही निभा सकता है। उसे तो पमरे स्तर पर एक कृषि प्रबन्धक के रूप में उभारना होगा जो उद्यमशीलता की क्षमताओं और कौशल के साथ सुसज्जित होगा।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।