भूमिहीन जातियों का उत्थान जरूरी

                               भूमिहीन जातियों का उत्थान जरूरी

                                                                                                                      डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

बिहार सरकार की ओर से जातिगत सर्वे के आंकड़े सार्वजनिक किए जाने के बाद देश की राजनीति सामाजिक न्याय के मुद्दे पर आकर टिक गई है, क्योंकि अगले वर्ष लोकसभा चुनाव होने हैं। जातिगत सर्वे के आंकड़ों ने बिहार की राजनीति में आनुपातिक आरक्षण की मांग को बल प्रदान किया है। अभी इन आंकड़ों के आधार पर ज्यादा कुछ अधिक कहना उचित नहीं, लेकिन यह तय है कि देश की नजर अब अत्यंत पिछड़े समूहों पर आकर टिक गई है, क्योंकि बिहार में हुए सर्वे के अनुसार इस राज्य में सबसे बड़ी आबादी अत्यंत पिछड़े वर्ग की ही है। जो कुल आबादी के 36 प्रतिशत से भी अधिक है।

                                                                               

इससे बिहार की सामाजिक बनावट की स्थिति का तो पता चलता ही है, लेकिन इसके साथ ही शेष देश में अति पिछड़ों की सामाजिक स्थिति कैसी है, इसका पता भी लगना आवश्यक है। इसीके कारण नितीश कुमार ने जातिगत जनणना के लिए दवाब भी बनाना आरम्भ कर दिया है, अति पिछड़ा वर्ग सबसे अधिक गरीब है। इस वर्ग से सम्बन्धित अधिकांश जातियों के लोग विभिन्न प्रकार के कुटीर उद्योगों, सेवाओं, दस्तकारी, बागवानी करने, मछली पकड़ने, मिट्टी के बर्तन बनाने, बर्तन साफ करने, मालिश करने और बाल काटने आदि कार्यों से जुड़े हुए हैं। वैश्वीकरण के बाद इनकी स्थिति और भी अधिक खराब हो गई है। इन जातियों में गरीबी के चलते शिक्षा के प्रति जागरूकता की बेहद कमी है।

43 वर्ष पहले जब मंडल आयोग की रिपोर्ट आई थी तो इस आयोग के एकमात्र दलित सदस्य एल. आर. नाइक ने सिफारिशों पर हस्ताक्षर करने से साफ मना कर दिया था। अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते समय आयोग के अध्यक्ष बी. पी. मंडल ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर बताया था कि नाइक की असहमति नोट पर आम सहमति क्यों नहीं बन सकी और यह असहमति नोट इस रिपोर्ट के शुरुआती भाग का ही हिस्सा है।

जब वी. पी. सिंह ने मंडल रिपोर्ट को लागू किया तब भी उसके पहले पन्ने को अनदेखा ही कर दिया गया, जिसमें नाइक के असहमति नोट का जिक्र था। यदि कांग्रेस ने इस असहमति नोट पर ठीक से बहस की होती तो शायद मोदी सरकार को जस्टिस रोहिणी आयोग का गठन नहीं करना पड़ता और राहुल गांधी को ‘जिसकी जितनी आबादी, उसका उतना हक’ का नारा नहीं देना पड़ता। नाइक ने अपने इस असहमति नोट में लिखा था कि ओबीसी दो बड़े सामाजिक समूहों से बना एक वर्ग है।

                                                                                    

जिनमें से पहला ओबीसी, जिसे मध्यवर्ती पिछड़ा वर्ग बताया और दूसरा कारीगर ओबीसी वर्ग, जिसे दलित पिछड़ा वर्ग बताया गया। नाइक का मानना था कि ओबीसी के अंदर एक कृषक वर्ग भी है और दूसरा वर्ग उन जातियों का है, जो कारीगरी, बागवानी आदि कर जीवन-यापन करती हैं और ये जातियां ही मुख्यतः भूमिहीन हैं। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने से किसान जातियां तो समृद्ध हुई, परन्तु भूमिहीन जातियों की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया। इसे देखते हुए देश के 12 राज्यों ने ओबीसी आरक्षण को दो या दो से अधिक भागों में बांटने का काम किया।

बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने 1977-78 में मुंगेरी लाल कमीशन की रिपोर्ट लागू कर आरक्षण को दो भागों में बांटने का काम किया। आरक्षण के वर्गीकरण के कारण ही बिहार और तमिलनाडु की अत्यंत पिछड़ी जातियों की राजनीतिक और शैक्षणिक स्थिति में सकारात्मक बदलाव भी देखा गया। अति पिछड़ी जातियां भूमिहीन होने के साथ सामाजिक शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से बेहद कमजोर हैं। इसके चलते ही इन जातियों को आरक्षण का उचित लाभ भी नहीं मिल पाता है।

अतः ओबीसी को एक वर्ग के रूप में देखने के स्थान पर उसे उसकी विविधता में देखने की जरूरत है, क्योंकि ओबीसी सैकड़ों जातियों को मिलाकर बना एक वर्ग है। एल. आर. नाइक के अनुसार मध्यवर्ती उच्च ओबीसी अपेक्षाकृत संपन्न है, जबकि आर्थिक एवं सामाजिक रूप से अति पिछड़ी जातियां हाशिए पर हैं। नाइक ने अत्यंत पिछड़ी जातियों के हितों की रक्षा के लिए आरक्षण को दो भागों में विभाजित करने का सुझाव भी दिया था।

                                                                           

नाइक को डर था कि उच्च ओबीसी आरक्षण पर एकाधिकार कर लेगा। ठीक ऐसी ही सिफारिश छेदी लाल साधी आयोग ने भी की थी। इस आयोग का गठन अक्टूबर 1975 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एच. एन. बहुगुणा के द्वारा किया गया था। इस आयोग ने पिछड़े वर्गों की तीन श्रेणियां बनाई और कुल 29.5 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की। पहली श्रेणी में भूमिहीन और अकुशल मजदूरों को 17 प्रतिशत आरक्षण, दूसरी श्रेणी में कारीगरों एवं किसानों को 10 प्रतिशत आरक्षण और तीसरी श्रेणी में मुस्लिम पिछड़ी जातियों को 2.5 प्रतिशत आरक्षण देने का सुझाव दिया गया, लेकिन इस आयोग की सिफारिशों को लागू ही नहीं किया गया।

वेंकटस्वामी आयोग के नाम से ऐसा ही आयोग कर्नाटक सरकार ने वर्ष 1980 में गठित किया। इस आयोग ने वोक्कालिगा और लिंगायत समुदाय को अन्य जातियों की अपेक्षा अधिक समृद्ध बताया। इसके चलते सरकार उस आयोग की अनुशंसाओं को लागू करने से पीछे हट गई।

                                                                       

    अत्यंत पिछड़ी जातियों की समस्याओं पर चर्चा इसलिए आवश्यक है, क्योंकि उनमें और ओबीसी की समृद्ध जातियों में काफी भिन्नताएं उपलब्ध हैं। अति पिछड़ी जातियों की सामाजिक-आर्थिक रिपोर्ट तैयार कर यह जानना होगा कि उनकी समस्याएं किस प्रकार भिन्न हैं? चूंकि अति पिछड़ी जातियां बिखरी हुई हैं, इसलिए कोई भी राजनीतिक दल उनकी समस्याओं को सुनना ही नहीं चाहता। एक समस्या यह भी है कि हमने टाप-डाउन और ट्रिकल डाउन की नीति तो अपना ली है। इससे हर क्षेत्र के केवल कुछ ही लोगों को विशेष लाभ मिलता है और एक बड़ा समूह उसके लाभ से वंचित ही रह जाता है।

अति पिछड़ी जातियों की संख्या देश में सबसे अधिक है और वे ही सबसे अधिक वंचित भी रही हैं। हमें अति पिछड़ी जातियों के लिए लोहिया द्वारा दिया गया विशेष अवसर के सिद्धांत को अपनाना होगा और इसी के अनुसार आरक्षण का वर्गीकरण करना होगा, उसके बाद यह जातियां मुख्यधारा का हिस्सा बन सकेंगी।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।