अनुपयोगी पालीथीन थैलियों का कृषि उत्पादन में योगदान

               अनुपयोगी पालीथीन थैलियों का कृषि उत्पादन में योगदान

                                                                                                                                            डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

                                                                                      

पॉलीथीन की उपयोगिता से हम सभी परिचित हैं, चाहे वैज्ञानिक प्रयोगशाला हो, रसोईघर हो या हो खेत खलियान। परन्तु इसके अंधाधुंध उपयोग से जहां प्रदूषण से पर्यावरण को खतरा पैदा हो रहा है, वहीं इसके चलते हम बेकार पॉलीथीन सामग्री विशेष रूप से थैलियों को अगर सावधानीपूर्वक उपयोग में लाया जाये तो कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी के रूप में उपयोगी सिद्ध हो सकती है। प्रायः यह देखा जा रहा है कि बस स्टैण्डों, रेलवे स्टेशनों के आस-पास का भीड़-भाड़ वाला क्षेत्र हो या चाय की दुकानों से लेकर गांव तथाशहरों तक, जहां भी कूड़ा-करकट डलता है, वहीं पॉलीथीन की भरमान से व्यापक रूप से गंदगी दृष्टिगोचर होती है।

जब तक इस प्रकार की थैलियों आदि का प्रचलन नहीं था, तब शहरों की गलियों आदि का कूड़ा-करकट भी खाद के रूप में आसानी के साथ उपयोग में लाया जाता रहा। परन्तु इस पॉलीथीन के प्रचलन से इस प्रकार के कूड़-कचरे में इन थैलियों के मिले रहने से गंदगी के ऊपर जीवन-निर्वाह करने वाले जंतु, यहां तक कि पालतू पशु भी प्रभावित हो रहे हैं। क्योंकि इस प्रकार की थैलियों में खाने-पीने का सामान रखने या फिर बच्चों द्वारा इन्हे मुंह में लेने से इनमें मौजूद घातक रसायन शरीरक विकास की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं।

                                                                      

प्लास्टिक की थैलियां प्राकृतिक रूप से विघटित न होने के कारण प्रदूषणकारी मानी जाती रही हैं और इन्हीं के चलते इन पर पाबंदी भी लगती रही है। पॉलीथीन सामान्य रूप से विघटित नहीं हो पाती और न ही सड़-गल कर जल्दी से खाद का रूप ले पाती ताकि इसका उपयोग कृषि में किया जा सके।

पुरानी लोकोक्ति है कि ‘खोटा सिक्का भी समय पर काम में आ सकता है’ वाली कहावत इस बेकार पॉलीथीन की थैलियों के लिये चरितार्थ होती हैं, जिन्हें प्रदूषण काकर की संज्ञा दी जा रही है। इस प्रकार की थैलियां भले ही हमारे घर या कार्यलय में किसी भी रूप में दिन प्रति दिन उपयोग में लायी जा रही हैं, जिनका इस्तेमाल कर हम बेरहमी से कूड़ेके ढेर में फैंक देते हैं, जो पर्यावरण को परोक्ष रूप से प्रभावित कर रही है।

कुछ गरीब लोग तो इन कूड़े की थैलियों को एकत्रिक कर पुनः पॉलीथीन निर्माण हेतु कल कारखानों तक पहुंचा देते हैं, परन्तु उसमें भी कहीं सही उपयोग इन अनुपयोगी थैलियों का पर्वतीय कृषि में विशेषकर सब्जी उत्पादन एवं बागवानी क्षेत्र में उपयोगी बनया जा सकता है, क्योंकि पर्वतीय क्षेत्रों में मैदानों की अपेक्षा तापक्रम तो कम रहता ही है, जिस कारण सामान्य रूप से खेतों में सीधे रूप से सब्जी आदि उगाना संभव नहीं हो पाता, क्योंकि वहां की भौतिक स्थित, ढलानदार तथा कम उपजाऊ भूमि होने के साथ-साथ नमी संचय एवं सिंचाई की कमी के कारण पर्वतीय क्षेत्रों के किसान सब्जी उत्पादन का कार्य मानसून की वर्षा प्रारम्भ होने पर ही करने को मजबूर होते हैं, जिन्हें बेमौसमी सब्जी की संज्ञा दी जाती है।

जहां तक ग्रीष्मकालीन सब्जियों की उपलब्धता का प्रश्न है, पूरे पर्वतीय क्षेत्र में ग्रीष्म कालीन सब्जियां, जैसे लौकी, कद्दू, खीरा, बैंगन, टमाटर, मिर्च आदिर को मैदानी क्षेत्रों से ही मंगायेजाने का प्रचलन है, जोकि आम जनता के क्रय परिधि के बाहर होता है और साथ ही साथ दूरदराज के क्षेत्रों तक ताजी सब्जी उपलब्ध हो पाना सम्भव नहीं हो पाता है। ऐसी स्थिति में इन प्लास्टिक की थैलियों, डिब्बों, बोतलों आदि जो कूड़े के ढेर में पड़कर प्रदूष्ज्ञण उत्पन्न कर रहे हैं, को सब्जी उत्पादन में प्रयोग कर लाभकारी बनाया जा सकता है तथा यह प्रक्रिया प्रदूषण नियंत्रण में भी सहायक सिद्ध होगी। इनका कृषि उत्पादन कार्यों में निम्नवत उपयोग किया जा सकता है।

                                                                          

पौध नर्सरी में उपयोगिता: उन सब्जियों को, जिन्हें हम सीधे खेत मेंएक विशेष दूरी पर बोते हैं, जैसे कद्दू वर्गीय सब्जियाँ सामान्यतया यह कार्य खरीफ में मानसून आने पर ही सम्पन्न किया जाता है, अगर इस वर्ग की फसलों को ग्रीष्म ऋतु में अधिक उत्पादन एवं आय प्राप्त करने के उद्देश्य से सीधे खेतों में बोयें तो मार्च से जून की गर्मी में इन पौधों को खेतों में नमी की कमी के कारण सफलतापूर्वक लगाना संभव नहीं हो पाता है। पर्वतीय क्षेत्र में जिन भागों में सीमित सिंचाई सुविधा उपलब्ध है, वहां भी खेतों में सीधे रूप से बीज बोकर अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करना एक प्रश्नवाचक चिन्ह बन जाता है, परन्तु सिंचाई के इन सीमित साधनों की स्थिति में इन अनुपयोगी प्लास्टिक पौलीथीन की थैलियों आदि में सब्जियों आदि के बीज बोकर कृषि उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है, जिसके लिये जनवरी तथा फरवरी मध्य तक थैलियों में आधे-आधे अनुपात में क्रमशः मिट्टी व देशी खाद मिलाकर भर देना चाहिये।

साथ ही प्रत्येक थैली में 8-10 छोटे-छोटे छिद्र सूजे आदि से कर देने चाहिये ताकि अवांछनीय जल का निकास होता रहे। तत्पश्चात् इन थैलियों में 2-3 बीजों की बुआई कर प्रत्येक थैली को अच्छी तरह से सिंचाई कर पानी से तर कर देनाचाहिये। इस अवधि के दौरान वातावरण एवं भूमि का तापक्रम अत्यन्त कम होता है, जो बीज जमाव को भी प्रभावित करता है। इसके लिये काली पालीथीन से इन थैलियों को अच्छी प्रकार से ढककर व्यवस्थित कर दें। थैलियों में पर्याप्त नमी बनाये रखने के लिये समय-समय पर सिंचाई भी करते रहना चाहिये। बीजों का जमाव हो जाने पर काली पॉलीथीन को हटाकर सफेद पॉलीथीन/प्लास्टिक की इन नर्सरी के ऊपर डप्पर जैसी संरचना बना देना चाहिये ताकि पौधों को पर्याप्त तापक्रम मिलने के साथ धूप भी उपलब्ध होती रहे, जिससे पौधे अपना भोजन बनाने में सक्षम रहें। जिन किसानों के पास पाली हाउस या ग्लास हाउस जैसी सुविधा उपलब्ध हो, वे इन थैलियों को हाउस के अंदर रखकर नर्सरी तैयार कर सकते हैं।

                                                                                 

पौध रोपण: नर्सरी माध्यम से उगाये गये पौधे आमतौर पर बुवाई के 30-35 दिन बाद रोपण हेतु तैयार हो जाते हैं। इन पौधों को खेतों में स्थानान्तरण के पहले भिन्न-भिन्न फसलों के लिये उनकी आवश्यकता के आधार पर गड्ढ़े बनाकर उसी मिट्टी में एक टोकरी गोबर की खाद तथा रासायनिक खाद फसल की आवश्यकतानुसार मिलाकर भुरभुरी मिट्टी में गड्ढ़े भर दें। प्रत्येक गड्ढे में पॉलीथीन बैग से पौधे भली-भांति निकार कर गड्ढे में एक थैली के पौधों की रोपाई कर दें। रोपाई के तुरन्त बाद इन रोपित गड्ढ़ों में सिंचाई कर देनी चाहिये। जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध न हो और फसलों की बुवाई मानसून आने पर ही की जानी है तो ऐसी स्थिति में 20-25 मई के मध्य इन बेकार पॉलीथीन थैलियों आदि में पौध तैयार कर लें, क्योंकि इन दिनों वातावरण गरम होता है, जिससे थैलियों की ढकाई आदि करना आवश्यक नहीं होता, परन्तु समय-समय पर सिंचाई अवश्य करतेरहना चाहिये।

इस समय की लगायी गयी नर्सरी से लगभग 20-25 दिन में ही पौधे खेत में रोपण हेतु तैयार हो जाते हैं और यही पर्ववीय क्षेत्रों में मानसूर प्रारम्भ होने का होता है। वर्षा प्रारम्भ होत ही इन पौधों को खेत में रोपाई कर देनी चाहिये। इस प्रक्रिया से लगायी गयी फसल साधारण किसानों की तुलना में लगभग एक महीना अगेती रहती है, जिस कारण वर्षा होने पर उगने वाले खरपतवारों से प्रस्पिर्धा में कमी आने के साथ-साथ इन पर आच्छादित होकर इनके नियंत्रण में भी सहायक सिद्ध होती है।

                                                                    

नमी संचय में उपयोग: आमतौर पर पर्वतीय क्षेत्रों के खेत ढलाऊ होते हैं, जहां पानी का उचित ठहराव नहीं हो पाता, जिस कारण भूमि में नमी संचित नहीं हो पाती है। इस प्रकार भूमि में यद्यपि किसान पलवार (मल्च) आदि इस्तेमाल कर रहे हैं, परन्तु जमीन से पानी का वाष्पन होना एक स्वाभाविक क्रिया है, जसे निश्चित रूप से इस प्रकार की अनुपयोगी थैलियों आदि से ढककर कम किया जा सकता है। इसमें पौधों के लिये पूर्व से बनाये गये थालों के ऊपर इस प्रकार की थैलियों को पलवार सामग्री के ऊपर समान रूप से बिछावन की तरह फैला दिया जाये तो वाष्पन क्रिया को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इस प्रकार पौधों की जड़ों के आस-पास तक पर्याप्त नमी बनी रहती है और पौधे अपेक्षाकृत तंररूस्त रहते हैं, जिससे फलों की संख्या तथा उपज में भी वृद्धि हो जाती है।

उपज एवं आर्थिकी: चूंकि थैलियों आदि में इस प्रकार से उगाये गये पौधे सामान्य रूप से उगायी गयी फसलों की तुलना में लगभग एक माह अगेते तसे होते ही हैं, जिसका उत्पादन एवं बाजार भाव अच्छा प्राप्त होता है। सामान्य किसानों की अपेक्षा इस प्रकार के अग्रणी किसान अपनी सब्जी उत्पादन आदि को यदि एक माह पहलेबाजार में ले जाते हैं तो अच्छी आय प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार का प्रदर्शन अनुसंधान केन्द्र, मझेड़ा पर किया गया और पाया गया कि एक नाली में (200 वर्ग मी.) लौकी की कुल औसत उपज 3.0 क्विंटल प्राप्त की जा सकती है, जिससे औसत बाजार मूल्य रूपये 250 प्रति क्विंटल की दर से 750.00 रूपये प्रति नाली आय प्राप्त की जा सकती है।

                                                                   

इसी प्रकार असिंचित दशा की स्थिति में इन थैलियों के पौधों को मानसून आने पर ढलानदार जमीन एवं झाड़ियों के पास रोपाई के पश्चात् ली गई फसल की औसत उपज 4.5 क्विंटल प्रति नाली आसानी से प्राप्त हो जाती है, जिसका बाजार भाग 50/- प्रति क्विंटल हरे चारे के भाव होते हुये भी 360 रूपया/नाली की कुल आय प्राप्त होती है। गर्मी के मौसम में सिंचित ढलान प्रक्षेत्र से रुपये 18,000.00 की आय प्रति हैक्टेयर में प्राप्त की जा सकती है। इस प्रकार से कृषि उत्पादक इन अनुपयोगी पॉलीथीन थैलियों आदि का सदुपयोग कर प्रदूषण कम करने के साथ-साथ अधिक आय प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।