रेशम कीट पालन की वैज्ञानिक विधि

                                          रेशम कीट पालन की वैज्ञानिक विधि

                                                                             डा0 आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा

    रेशम उद्योग कृषि पर आधारित एक उद्योग है, जो कृषक के आर्थिक विकास के लिए सबसे अधिक उपयोगी गा्रमोद्योग के रूप में स्वीकृत किया जाता रहा है, तथा इस उद्योग के विकास हेतु केन्द्र सरकार के द्वारा अनेक महत्वकाँक्षी योजनाओं का संचालन किया जा रहा है।

 वर्तमान समय के दौरान लगभग एक करोड़ लोग टसर उद्योग से अपनी आजीविका प्राप्त कर रहे हैं। इस उद्योग से अपनी आजीविका चलाने वाल 90 प्रतिशत आदिवासी लोग जो छत्तीसगढ़, बिहार, मध्यप्रदेश तथा पश्चिम बंगाल से आते हैं।

    भारत के अतिरिक्त चीन, जापान, फ्रांस तथा इटली आदि भी रेशम के प्रमुख उत्पादक देशों में आते हैं। अधिकतर गण लेपिडोप्टेरा के बहुत से कीट कोया बनाते हैं परन्तु इनके दो परिवार बाम्बीसिडी एवं सैटर्निडी के शलभों के द्वारा बनाये गये कोये ही व्यापारिक रेशम के योग्य होते हैं।

व्यापारिक रेशम के प्रकार-

    व्यापारिक रेशम तीन प्रकार का होता है, जिनमें मलबेरी, एरी तथा टसर को शामिल किया जाता है। इनमें भी बोम्बीक्स मोराई से प्राप्त होने वाला रेशम सर्वोत्तम होता है।

    रेशम के कीट की सूंडियां जब पूर्ण रूप से विकसित हो जाती हैं, तो वे अपनी लार से एक धागे जैसा पदार्थ उत्पन्न करती हैं, जिनका उपयोग वह अपने चारों ओर खोखला कोया बनाकर करती हैं, जिसके अन्दर वे स्वयं रहती हैं और बाद में ये प्यूपा में परिवर्तित हो जाती हैं।

रेशम के विभिन्न कीट एवं रेशम के प्रकार-

    बोम्बीक्स मोराई के अलावा अन्य कुछ रेशम-कीट गण लेपिडोप्टेरा के कुटुम्ब सैटर्निडी के शलभ भी होते हैं। इस कुटुम्ब के कुछ अन्य रेशम कीटों का विवरण इस प्रकार से है-

1.   ऐरी रेशम कीटः यह कीट मुख्य रूप से असोम राज्य के जंगलों में पाया जाता है। इस कीट की सूंडियां अरंड की पत्तियों को खाती है और इनके माध्यम से प्राप्त होने वाला रेशम ईंट के जैसा लाल अथवा सफेद रंग का होता है।

2.   मूँगा रेशम कीटः रेशम का यह कीट पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार एवं आसाम के जंगलों में पाया जाता है। इस कीट की सूंडी सिनेमोन एवं मेचिलस पौधों की पत्तियों को खाती हैं। जिससे इसके कोये का रंग दूधिया या पीले रंग का होता है।

3.   टसर रेशम कीटः रेशम का यह कीट बंगाल, आसोम, एवं उत्तर प्रदेश के जंगलों में पाया जाता है, जो साल, बेर, गूलर, अर्जुन (कोड़ा) तथा पाखर आदि की पत्तियों को खाता है और इसकी सूंड़ियां हल्का भूरा अथवा पीले रंग का कोया बनाती हैं, जो वृक्षों पर डण्ठल के द्वारा लटका रहता है।

4.   देवमूंगा रेशम कीटः रेशम के इस कीट को उत्तर प्रदेश एवं हिमालय के तराई क्षेत्रों में पाला जाता है। इस कीट की सूंड़ियां मैचिलिस तथा फाइकस पौधों की पत्तियों को खाती हैं।

5.   शहतूत का रेशम कीटः देश के अधिकतर भागों में पाला जाने वाला यह कीट, शहतूत की पत्तियों को ही खाती हैं। इसके कोये का रंग सफेद होता है और इसके माध्यम से प्राप्त होने वाला रेशम सर्वोत्तम क्वालिटी का होता है।

रेशम उद्योग के लिए आवश्यक सामगी-

1.   तिपाईयाँ- यह लकड़ी अथवा बाँस की बनी संरचनाएं होती हैं।

2.   जालः ये कपड़े से बने छोटे-छोटे जाल हो

 

ते हैं, जिनकी सहायता से बची हुई पत्तियां तथा कीटों कl मल साफ किया जाता है।

3.   लकड़ी की तश्तरियां।

4.   आर्द्रतामापी।

5.   पत्तियों को काटने वाले चाकू।

6.   ऊष्मा-उत्पादक एवं कूलर्स।

किसी स्थान पर रेशम उद्योग को स्थापित करने से पूर्व वहाँ एक शहतूत का बाग लगाना आवश्यक होता है, जिससे कीटों को खाने के लिए शहतूत की पत्तियां सदैव उपलब्ध रहें। कीटों का पालन कमरों के अन्दर किया जाता है, यदि यह कमरे खुले स्थान पर हो तो उनके चारों ओर बरमदों का होना आवश्यक है। साथ ही इनकमरों का हवादार और स्वच्छ रहना भी जरूरी है। कमरों के अन्दर लकड़ी की तिपाईयों के ऊपर रखकर उसमें हल्की सी रियरिंग करते हैं। चीटियों आदि से बचाव करने के लिए तिपाईयों के पायों के नीचे पानी से भरे बरतन को रख देते हैं। इस प्रकार हो रही रियरिंग से कीटों की प्रतिदिन सफाई की जाती है तथा अलग-अलग अवस्था वाले कीटों को एकत्रण अलग-अलग ही करना चाहिए।

अच्छे अण्ड़ों को प्राप्त करनाः उत्तम फसल को प्राप्त करने के लिए श्रेष्ठ बीज की आवश्यकता होती है। स्वस्थ्य एवं उन्नत जातियों के अण्ड़ों को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित चरणों ाक पालन करना चाहिए-

1.   मादा अण्ड़ों की पहिचान एवं जांच करना।

2.   प्राप्त अण्ड़ों की सफाई करना।

3.   उत्तम नस्ल के अण्ड़ों को प्राप्त करना।

अण्ड़ों को पकाना-

    आमतौर पर अण्ड़ों को पकाने के लिए 550 फाॅरेहनाइट से 700 फाॅरेहनाइट का तापक्रम उचित रहता है और अण्ड़ों को ट्रे में रखकर टाँड़ पर रखना चाहिए, जिससे चीटियाँ ऊपर चढ़कर अण्ड़ों को नही खा सकें। इन अण्ड़ों से 10-12 दिन के अन्दर सूंड़ियाँ बाहर निकल आती हैं।

सूंड़ियों का रख-रखावः

    सूंड़ियों को भी ट्रे में मचान पर रखना चाहिए, इससे चीटियों एवं चिड़ियों आदि से सुंड़ियों का बचाव हो सके और इन सूंडियों को दिन में कई बार शहतूत की पत्तियों की कुट्टी उनके खाने के लिए दी जाती है। यह पत्तियों की कुट्टी भीगी हुई नही होनी चाहिए और समय-समय पर इन ट्रे की सफाई भी करते रहना चाहिए।

रोगी सूंडियों की पहचान कर उन्हे अलग करना-

    रोगी सूंडियाँ अक्सर पीली, सुस्त और आकार में अन्य सूंडियों की अपेक्षा कुछ छोटी होती हैं, जिन्हें छाँटकर नष्ट कर देना चाहिए। सूंडियाँ लगभग 30-35 दिनों में चार बार निर्मोककर पूर्ण रूप से विकसित हो जाती हैं और कोया का निर्माण करने के लिए सुरक्षित स्थान की तलाश करती हैं। सूंडियों को बांस से बने पिंजड़े में रखते हैं जिससे कि उन्हें कोया बनाने के लिए दूर नही जाना पड़ता है।

 कोया से रेशम प्राप्त करना-

    उत्तम प्रकार का रेशम प्राप्त करने के लिए सूंडियों के द्वारा बनाए गए कोये को लगभग दस दिन के पश्चात् गर्म पानी में उबाला जाता है या फिर धूंप अथवा भाप के द्वारा उन्हें गर्म किया जाता है, जिससे कि उनके अन्दर उपस्थित प्यूपा मर जाए, क्योंकि यदि काये के अन्दर प्यूपा जीवित रहता है तो अपनी प्रौढ़ावस्था के आने पर वे कोये को तोड़कर बाहर निकल आते हैं, जिससे रेशम के धागे कई छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो जाते हैं और इस प्रकार के रेशम निम्न कोटि के होकर रह जाते हैं।

कोये छांटना- उबालने के पश्चात् कोये आकार में छोटे हो जाते हैं, जिनमें एक जैसे रंग तथा चमक वाले कोये को अलग-अलग एकत्र कर लिया जाता है।

कोये को एद्योड़ना-

    पानी में उबालने के बाद कोये कोमल हो जाते हैं और उमें आपस में जुड़े हुए धागों की परत कुछ ढीली पड़ जाती है, जिनको उद्योड़ना सरल हो जाता है। चार या पाँच कोयों के बाहरी छोरों को मिलाकर एक विशेष प्रकार के लकड़ी के छिद्रों से गुजारते हैं, जिसे आईलेट या गाइड कहते हैं। इन छिद्रों का सम्बन्ध एक चक्र के साथ होता है और इस प्रकार चार पाँच धागें एक साथ ही इस चक्र पर लिपट जाते हैं। इन धागों को फिर दूसरी चरखी पर लपेटा जाता है और इस प्रकार से यह कच्ची रेशम तैयार हो जाती हैं।

    इस कच्ची रेशम से ऐंठा हुआ रेशम बनाने के लिए इन धागों को पुनः पानी में उबाला जाता है और रासायनिक अम्लों के घोल में अच्छी तरह से धोकर और साफ कर लेते हैं। इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद रेशम के धागों में काफी चमक आ जाती है। कई धोगों को ऐंठकर रेशम के पक्के धागों को तैयार कर लिया जाता है, जिसे फाइबर सिल्क कहते हैं।

    कुछ कोयों को उबाला नही जाता है जो नई फसल में बीज का कार्य करते हैं और इनमें से प्रौढ़ को बाहर निल देने दिया जाता है, जो नई फसल के अण्ड़ों को रखते हैं। इस प्रकार रेशम के कीट से प्राप्त रेशम मानव जाति के लिए एक अमूल्य देन है जो कि कटे घावों तथा फटी हुई धमनियों की सिलाई करने के काम में आती है। कैट गट का पूरा नाम कैटरपिलर-गट है जोे कि रेशम की सूँड़ी की आहार नाल से बनाई जाती है और यही सिद्व करता है कि रेशम का उद्योग एक लाभकारी उद्योग है।

लेखकः डाॅ0 आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ, में प्रोफेसर तथा कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग के विभागाध्यक्ष हैं और उपरोक्त लेख में दिये गये विचार उनके मौलिक विचार हैं।