शून्य जुताई की उपयोगिता एवं सघन कृषि

                     शून्य जुताई की उपयोगिता एवं सघन कृषि

                                                                                                                                                                               डॉ0 आर. एस. सेंगर

                                                             

‘‘वर्तमान में हम देश की लगभग 125 करोड़ लोगों की आबादी के लिए खाद्यान्न अपूत्रि करने में सक्षम हें और आने वाले समय में इस तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए खाद्यान्न की आपूर्ति करना अपने आप में एक बड़ी चुनौति होगी। इसके प्रमुख कारण है निरंतर कम होती जा रही जोत, तीव्र गति के साथ बड़ता औद्योगीकरण और कृषि के अलावा अन्य कार्यों के लिए भूमि की बढ़ती हुई आवश्यकता है।

अतः इन परिस्थितियों को देखते हुए प्रति इकाई क्षेत्र के उत्पादन में वृद्वि करने के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नही है और यह सब उस उसमय ही सम्भव होगा जब हमारे किसान भाई उन्नत किस्मों के बीज एवं वैज्ञानिक सस्य विधि के उपयोग के साथ-साथ सघन एवं टिकाऊ खेती को भी अपनाएं।’’

एक वर्ष में एक ही खेत से दो या दो से अधिक फसलों को लेना ही सघन खेती कहलाता है। उपलब्ध भूमि की उत्पादन क्षमता का अधिकतम उपयोग ही बहु-फसलीय खेती के सम्पूर्ण अर्थ को प्रकट करता है। इस विधि के अन्तर्गत एक वष्र में एक ही खेत में दो, तीन या फिर चार फसलों को उगाकर अधिकतम उत्पादन प्राप्त करना ही इसका उद्देश्य है। बहुफसली खेती प्रणाली को अपनाकर हम प्रति इकाई क्षेत्र एवं प्रति इकाई समय में अधिक उत्पादन ही नही अपितु बहुत से बेरोजगार लोगों को इसके अन्तर्गत इसी में व्यवस्थित कर बेरोजगारी की समस्या का छोआ ही सही लेकिन इसका असरदार समाधान भी कर सकते हैं।

बहुफसलीय खेती प्रणाली की मूलभूत आवश्यकताएं

                                                             

बहुफसलीय कार्यक्रम को सफलतापूर्वक संचालित करने के लिए कुछ आधारभूत आवश्यकताएं निम्नलिखित हैं-

  • इस कार्यक्रम के अन्तर्गत भूमि की भौतिक एवं रासायनिक संरचना का उत्तम होना सबसे महत्वपूर्ण शर्त है। मृदा की सतह समतल, मृदा का गठन उत्तम, बेहतर वायु संचार, पाी को रोकने की उत्तम क्षमता, उत्तम पारगम्यता, लवण रहित तथा भूमि जीवाँश से धनी और उर्वर होनी चाहिए जिससे कि वह सघन खेती को सहन कर सकें।
  • जिस क्षेत्र में सघन खेती करनी है वह क्षेत्र बाढ़ एवं सूखे से प्रभावित नही होना चाहिए और यदि ऐसी कोई समस्या है तो उससे निपटनें की तैयार पहले से ही होनी चाहिए। भूमि बहुवर्षीय खरपतवार जैसे काँस, दूब तथा मोथा आदि से भी ग्रसित नही होनी चाहिए।
  • किसान को फसलों के एलीलोपैथिक प्रभाव और साथ हर उसमें उगने वाले खरपतवारों आदि की जानकारी भी होनी चाहिए।
  • सघन खेती को उन्हीं स्थानों में सफलतापूर्वक किया जा सकता है, जिन स्थानों पर वाँछित मात्रा एवं समय पर सिंचाई की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध हो। फसल कह बुआई समय पर कर उनकी उत्पादन क्षमता का पूर्ण लाभ लेने के लिए सिंचाई का निजी साधन होना अति आवश्यक है।
  • सघन खेती में सामान्य खेती की अपेक्षा श्रम की आवश्यकता अधिक होती है और अब जबकि खेती के लिए श्रमिकों का मिलना दुर्लभ होता जा रहा है इसलिए इस कार्यक्रम को अधिक व्यापक बनाने के लिए श्रमिकों के अभाव वाले क्षेत्रों में कृषि यन्त्रों के विकास एवं प्रचार पर जोर देना होगा।
  • सघन खेती की सफलता कृषि साधनों की समय पर उपलब्धता पर निर्भर करती है। अतः कृषि साधनों की उपलब्धता में जो भी रूकावटें हैं उन्हे दूर करने के लिए इन साधनों को आवश्यकता के अनुुसार सफलता पूर्वक उपलब्ध कराने के प्रत्येक स्तर पर प्रयास करने होंगे।
  • एक खेत में अधिक से अधिक लेनें में विभिन्न प्रकार की समस्याएं जैसे रोग, कीट, भूमि की उत्पादकता, फसल पोषण आदि किसान के समक्ष आती हैं। अतः इस प्रकार की सभी समस्याओं के निदान के लिए किसान केा कृषि तकनीकी ज्ञान का होना बहुत आवश्यक है।

भूपरिष्करण का आरम्भ

                                                                              

    भारत में शून्य भूपरिष्करण की शुरूआत वर्ष 1980 में हुई। इमपीरियल कैमीकल इन्डस्ट्री के द्वारा पैरक्वाट नामक शाकनाशी के प्रचार के साथ शून्य भपरिष्करण के साथ भूपरिष्करण का विस्तार हुआ। शून्य भूपरिष्करण से गेंहूँ की बुआई फैलेरिस माइनर नामक खरपतवार के नियंत्रण में सहायक होती है। आज हरियाणा एवं पंजाब में इस तकनीक का उपयोग वृहत स्तर पर किया जा रहा है, जिसके प्रभाव से एक दशक में गेंहूँ की उपज में लगभग 18 प्रतिशत तक की वृद्वि दर्ज की गई है।

निरंतर 3-4 वर्षों तक शून्य भूपरिष्करण के अपनाए जाने से खरपतवार की समस्या एवं खरपतवारनाशी की आवश्यकता में भी कमी आती है। भारत के उत्तरी राज्यों जैसे कि उत्तर प्रदेश, पंजाब एवं हरियाणा आदि में खरीफ की फसल कटाई के बाद रबी की फसलों जैसे गेंहूँ, अलसी तथा सरसौं आदि की बुआई के लिए शून्य भपरिष्करण को अपनाया जा रहा है।

सघन खेती से हानियाँ

  • सघन खेती के दौरान विभिन्न प्रकार के उच्च मूल्य वाले आदानों जैसे कि रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, रोगनाशक आदि का उपयोग किया जाता है, जो कि प्रदूषण को बढ़ावा देते हैं तथा इसके साथ ही मानव तथा पशुओं में विभिन्न प्रकार के रोगों एंव सक्रमणों को भी वृद्वि प्रदान करते हैं।
  • खेतों में विभिन्न प्रकार के यन्त्रों के उपयोग एवं परम्परागत विधि से भूमि की तैयारी करने से जीवाश्म इंधनों के उपयोग में बढ़ोत्तरी हुई है। यह उतपादन लागत एवं पर्यावरण प्रदूषण के साथ-साथ वैश्विक तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) की वृद्वि में भी एक सहायक के रूप मे कार्य कर रहे हैं। सघन खेती से मृदा अपरदन में भी वृद्वि हो रही है और साथ ही भूमि की उर्वराशक्ति भी क्षीण हो रही है।
  • विभिन्न प्रकार के रसायनों के उपयोग से न केवल नाशीजीव ही समाप्त होते हैं अपितु मित्र जीवों का नाश भी होता है, जिससे जैव विविधता में भी निरंतर ह्रास हो रहा है।

सघन खेती को अपनाने में मुख्य कठिनाईयाँ एवं उनके समाधान

    एक सफल सघन खेती के लिए यह आवश्यक है कि किसान इसके सिद्वाँतों को अपनाएं। सघन खेती की एक सबसे बड़ी समस्या भूमि को तैयार करने की है। परम्परागत विधि से खेत की तैयार तब ही की जा सकती है, जब कि खेत जुताई करने के योग्य हो जाए। परम्परागत विधि से खेत की तैयार करने में समय के साथ-साथ ईंधन की खपत एवं भूमि की तैयार में भी अधिक खर्च आता है।

इसके साथ ही पर्यावरण प्रदूषण तो होता ही है साथ में दूसरी फसल की बुआई भी समय से नही हो पाती है। एक वर्ष में दो से अधिक फसलों के उगाने में कठिनाई आती है। इन समस्याओं का समाधान न्यूनतम एवं शून्य भूपष्किरण के द्वारा किया जा सकता है।

सारणीः शून्य भूपरिष्करण में किए गए शोध परिणामों पर एक नजर

क्र0सं0

शोधकर्ता

परिणाम

1.

पंडित एवं सहयोगी (2010) 2005-06 में पंजाब एवं हरियाणा    परम्परागत विधि की तुलना में उत्पादन लागत में कुल बचत एवं लाभ।

2,011 रूपये प्रति हैक्टर (लगभग 6.5 प्रतिशत)

4,670 रूपये प्रति हैक्टर

 

2.

उत्पादन लागत में कमी। उपज में वृद्वि।

2,500-3,000 रूपये प्रति हैक्टर

(15-20 प्रतिशत)

3.

तेज राम बंजारा (2015) छत्तीसगढ़

परम्परागत विधि की तुलना में उत्पादन लागत में कमी

परम्परागत विधि की तुलना में शुद्व लाभ में वृद्वि  2,900 रूपये प्रति हैक्टर 11,345 रूपये प्रति हैक्टर

4.

मिश्रा एवं सिंह के द्वारा 2001-05 की अवधि में जबलपुर में किए गए शोध के अनुसार सोयाबीन-अलसी सस्य क्रम में खरीफ में भूपरिष्करण की परम्परागत विधि के बाद रबी में अलसी की बुआई शून्य भूपरिष्करण से करने से अन्य भूपरिष्करण की तुलना में खरपतवारों के बीज बैंक एवं उगने वाले खरपतवारों की संख्या में कमी पाई गई।

शून्य एवं न्यूनतम भूपरिष्करण के लाभ

                                                              

  • परम्परागत विधि की तुलना में इन तकनीकों में खेत की तैयारी हेतु कम ईंधन तथा श्रमिकों की आवश्यकता होती है। इस प्रकार ईंधन एवं श्रमिकों की बचत करने से उत्पादन की लागत में कमी के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण में भी कमी आती है।
  • शून्य भूपरिष्करण के क्षरा खेत की तैयारी का खर्च तथा समय कम लगने के साथ-साथ पहली फसल की कटाई के तुरन्त बाद ही दूसरी फसल की भी बुआई की जा सकती है। इस प्रकार प्रति इकाई समय और प्रति इकाई क्षेत्रफल से अधिक फसल उगाकर उत्पादन में वृद्वि की जा सकती है।
  • आजकल शून्य भूपरिष्करण के लिए विभिन्न प्रकार के यन्त्र जैसे सीड कम फर्टिलाइजर ड्रिल, जो कि बैल एवं ट्रैक्टर के द्वारा चालित होता है आदि विकसित किये जा चुके हैं। इनके द्वारा बीज की बुआई के साथ-साथ उसी कतार में बीज के नीचे उर्वरक भी दे दिया जाता है, जिससे उर्वरक का सदुपयोग होता है। फसलों की बुआई समय पर ही हो जाने से उपज में वृद्वि होती है।
  • असिंचत क्षेत्रों में खरफ की फसल की कटाई के बाद उपलब्ध नमी पर समय से शून्य या न्यूनतम भूपरिष्करण को अपनाकर मसूर, चना, अलसी आदि की फसलों को उगाकर फसल सघनता में वृद्वि के साथ-साथ कृषक आमइनी को भी बढ़ाया जा सकता है।
  • शून्य एवं न्यूनतम भूपरिष्करण से खेत में वार्षिक खरपतवारों की सघनता में कमी आती है।
  • सिंचित क्षेत्रों में 15-20 प्रतिशत तक सिंचित जल की बचत होती है।
  • फसल अवशेषों के न जलाने से मृदाक्षरण एवं वाष्पीकरण में कमी और मृदा तापमान पर नियंत्रण रहता है और मृदा में जैविक पदार्थों की बढ़ोत्तरी होती है।

न्यूनतम भूपरिष्करण के अन्तर्गत खेत की जुताई एक-दो बार कर बीज की बुआई कर दी जाती है, इससे भूमि की तैयारी में लगने वाले समय एवं खर्च दोनों में कमी आती है और इसके साथ ही दूसरी फसल की बुआई भी समय से ही हो जाती है। शून्य-भूपरिष्करण, न्यूनतम-भूपरिष्करण का विकसित रूप है। इसके अन्तर्गत खेत में केवल कतार में नालियों की खुदाई कर बीज की बुआई के साथ-साथ उसी कतार में बीज के नीचे उर्वरक भी दे दिया जाता है।

शून्य एवं न्यूनतम-भूपरिष्करण को समन्वित रूप से संरक्षित भूपरिष्करण भी कहते हैं। यह विभिन्न तरीकों से प्राकृतिक सम्पदा का संरक्षण करती है। इसमें मृदा की सतह पर लगभग 30 प्रतिशत तक फसल अवशेष रहते हैं, जो मृदा एवंज ल संरक्षण करते हैं। इसके साथ ही साथ खेती में लगने वाला समय, ईंधन, सिंचाई जल, पोषक तत्व, श्रम व ऊर्जा की बचत करते हैं।

मृदा जीव (केंचुए, सूक्ष्मजीव आदि) में बढ़ोत्तरी एवं मृदा की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक दशा में सुधार होता हैं इसके अतिरिक्त रासायनिक आदानों की आवश्यकता में भी कमी आती है।

धान-आधारित फसल चक्र में लम्बी अवधि वाली णान की कटाई के बाद गेंहूँ की बुआई हेतु खेत की तैयार परम्परागत करने से 7-8 दिन की देर हो जाती है। इससे गेंहूँ की वानस्पातिक बढ़वार के लिए कम समय मिल पाता है।

परिपक्वता के समय फसल का तापमान अपने उच्च स्तर पर होता है, जिससे उपज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में शून्य या न्यूनतम-भूपरिष्करण को अपनाने से गेंहूँ की बुआई परम्परागत विधि की तुलना में 7-10 दिनों पूर्व हो जाती है, इस प्रकार देर से बोयी जाने वाले फसल में होने वाली हानि भी कम हो जाती है।

गेंहूँ की देर से बुआइ्र करने पर उच्च तापमान के कारण लगभग 6.5 प्रतिशत तक उपज में कमी आती हैं शून्य भूपरिष्करण को अपनाकर समय से फसल की बुआई कर इस हानि को कम किया जा सकता है।

शन्य भू-परिष्करण हेतु मूलभूत आवश्यकताएं

                                                                    

  • फसलों के अच्छे जमाव/अंकुरण हेतु उपयुक्त मृदा व नमी का होना आवश्यक है।
  • खेत में उपस्थित खरपतवारों के नियंत्रण के लिए पैरक्वॉट अथवा ग्लाइफोसेट नामक शाकनाशी का एक किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर की दर से फसल को बोने से 7-10 दिन पहले खेत में छिड़काव करना चाहिए।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।