अलसी एक चमत्कारी पोष्टिक आहार

                                          अलसी एक चमत्कारी पोष्टिक आहार

                                                                                                                                                             डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

                                                                       

‘‘भारत का तिलहन के उत्पादन में दुनियाभर में एक प्रमुख स्थान है। वस्तुतः अर्थव्यवस्था के अनुसार अमेरिका एवं चीन के बाद भारत को तेल के उत्पादन में तीसरा सबसे बड़ा देश होने का गौरव प्राप्त हैं। तिलहन, क्षेत्र, उत्पादन और मूल्यों के मामलों में अनाज के बाद ही आते हैं। भारत में वर्तमान समय में तिलहनी फसलों का क्षेत्रफल लगभग 13 प्रतिशत है और विश्व के तेल उत्पादन में भारत का योगदान 7 प्रतिशत एवं विश्व के कुल खाद्य तेलों की खपत में भारत का हिस्सा 10 प्रतिशत का है।

देश में 26.1 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र में तिलहनी फसलों की खेती की जाती है, जो 27.98 मिलियन टन उतपदन प्रदान करता है और 10.10 क्विंटल/हैक्टर की उपज देता हैं यह सकल राष्ट्रीय उत्पाद का लगभग 3 प्रतिशत और समस्त कृषि उत्पादों के मूल्य का लगभग 10 प्रतिशत हिस्सा है। वर्ष 1986 में तिलहनों पर तकनीकी मिशन (टीएमओ) की स्थापना के बाद से तिलहनी फसलों के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलता अर्जित की है। इसमें उच्च आयात शुल्क की सुरक्षा छतरी द्वारा सहायता प्रदान की गई थी।’’

अलसी का वानस्पातिक नाम लिनम उसीटेटिसियम है, जो कि लिनेसी परिवार के जीनस लिनम का एक सदस्य है। अलसी को अंग्रजी में लिनसीड यानी कि अति उपयोगी बीज कहते हैं, जो विश्व की छठीं सबसें अधिक उगायी जाने वाली तिलहनी फसल है जबकि भारम में यह एक महत्वूपर्ण रबी तिलहनी फसल तथा तेल और रेशों का एक प्रमुख स्रोत भी है।

                                                               

अलसी के उत्पादन में भारत का विश्व में प्रथम स्थान है और क्षेत्र के अनुसार तीसरा स्थान रखता है। अलसी देश की सबसे महत्वपूर्ण औद्योगिक तिलहन फसल है। भारत में अलसी की खेती मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार एवं ओडिशा में प्रमुखता से की जाती है। इसके क्षेत्रफल एवं उत्पादन के अनुसार मध्य प्रदेश देश एक अग्रणी राज्य है।

अलसी का पौष्टिक महत्व

                                                                                

    अलसी एक चमत्कारी आहार है और इसमें दो आवश्यक फैटी एसिड पाए जाते हैं। अल्फा-लिनोलेनिक एसिड और लिनोलेनिक एसिड जिनका उपयोग उन खाद्य आवेदनों में किया जाता है, जहाँ स्थिरता की आवश्यकता होती है। लिनोलेनिक एसिड तथा लिनोलिक एसिड को मनुष्य के लिए अपरिहार्य माना जाता है और इन्हें खाद्य तेलों और वसाओं से प्राप्त किया जाता है।

यदि नियमित रूप से इनका सेवन किया जाए तो मनुष्य विभिन्न प्रकार के रोगों जेसे टी.बी., हृदय रोग, उच्च रक्तचॉप, मधुमेह, कब्ज, एवं जोड़ों के दर्द आदि से अपना बचाव कर सकता है। अलसी में लगभग 18 प्रतिशत ओमेगा-3 फैटी एसिड होता है तथा अल्फा-लिनोलेनिक एसिड, लिग्नेन, प्रोटीन एवं फाइबर होता है।

अलसी इस पृथ्वी पर आमेगा-3 फैटी एसिड का सबसे बड़ा स्रोत है, जिसका संश्लेषण हमारे शरीर में नही होता है। इस कारण से इसकी आपूर्ति किसी बाहरी स्रोत के द्वारा ही की जाती है। अलसी में ओमेगा-6 एवं आमेगा-3 का अनुपात 0.3:1 होता है, इस प्रकार से ओमेगा-3 का अलसी एक अच्छा प्राकृतिक स्रोत है। हमारे दैनिक भोजन में ओमेगा-6 की मात्रा अधिक होती है, जिसके कारण असंतुलन की स्थिति बनी रहती है और इस संतुलन को बनाए रखने के लिए ओमेगा-3 को अधिक मात्रा में ग्रहण करना चाहिए तथा इस कारण से अलसी का हमारे दैनिक भोजन का एक प्रमुख अवयव होना ही चाहिए।

                                                           

ओमेगा -3 की इस कमी को हम प्रतिदिन 30 से 60 ग्राम अलसी का सेवन करके पूरी कर सकते हैं। यह हमारे शरीर में अच्छे कोलेस्ट्रॉल की मात्रा में वृद्वि करता है और ट्राइग्लिसराइड कोलेस्ट्रॉल में कमी करता है। अलसी हमारे हृदय की धमनियों में रक्त के थक्के बनने से रोकता है और हृदय घात तथा स्ट्रोक जैसी बीमारियों भी हमारा बचाव करता है।

    आमेगा-3 के अतिरिक्त अलसी का दूसरा महत्वपूर्ण अवयव लिग्नेन है। अलसी में इसकी मात्रा 0.8 से 12.0 मि.ग्रा./ग्राम होती हैं यह एंटीबैक्टीरियल, एटीवायरल, एंटीफंगल, एंटीऑक्सीडेण्ट तथा कैंसर-रोधी है। यह हमारे शरीर में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा को कम करता है तथा हमारी रोग प्रतिराधक क्षमता को बढ़ता है। अलसी में लगभग 28 प्रतिशत रेशा होता है इसलिए यह कब्ज के रोगियों के लिए बहुत राहत प्रदान करता है।

डब्ल्यूएचओ ने भी अलसी को सुपर फूड लेबल प्रदान किया है। महात्मा गाँधी ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि जिस समाज में अलसी का सेवन किया जायेगा वह समाज स्वस्थ्य एवं समृद्व रहेगा।

अलसी के उत्पादन की तकनीक

                                                                                 

जलवायु

    अलसी ठण्ड़ें मौसम की एक फसल है, इस फसल की अच्छी वानस्पातिक वृद्वि के लिए वातारवरण मध्यम ठण्ड़ होना चाहिएं। यदि इसकी पुष्पावस्था के समय तापमान 320 सेल्सियस से अधिक हो जाए तो और मृदा में पानी की मात्रा कम हो जाए तो फसल की उपज एवं बीज में उपलब्ध तेल की मात्र के साथ तेल की गुणवत्ता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।

अलसी की फसल पाले के प्रति भी संवेदनशील होती है, यदि इसकी पुष्पावस्था के दौरान पाला पड़ जाता है तो यह फसल के लिए अधिक हानिकारक होता है। वानस्पातिक वृद्वि की अवस्था में अधिक वर्षा भी अलसी के लिए घातक होती है। भारत में अलसी की बुआई वर्षा ऋतु में की जाती है, जो कि मृदा में संचित नमी से अपनी पानी की आवश्यता की पूर्ति करती है।

भूमि का चयन

    अलसी की फसल को प्रायः सभी प्रकार की मृदाओं में आसानी से उगाया जा सकता है। दोमट से मटियार मिट्टी, जिसमें जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था हो, इसकी खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है।      

खेत की तैयारी

    अलसी के अच्छे अंकुरण के लिए खेत को अच्छी तरह से तैयार किया जाना चाहिए। इसके लिए खेत की जुताई एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से तथा दो से तीन बार डिस्क हैरो से जुताई करनी चाहिए। अन्तिम जुताई से पूर्व 8-10 टन गोबर की खाद प्रति हैक्टर की दर से डालका पाटा लगाकर खेत को समतल बना लेना चाहिए।

बुआई का समय

                                                               

    बीज की उपज बढ़ाने के लिए बुआई की तारीख का समायोजन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि बीज की पैदावार पर्यावरण की विभिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करती है। अच्छी पैदावार केक लिए बुआई के समय का बहुत अधिक महत्व है। भिन्न-भिनन क्षेत्रों के लिए अलसी की बुआइ्र का समय भी अलग-अलग होता है। अलसी की बुआई अक्टूबर के प्रथम सप्ता से लेक नवम्बर के प्रथम तक की जा सकती है। यदि अलसी की बुआई इसके बाद की जाती है तो फसल की वृद्वि एवं उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

बुआई के समय में देरी से फसल के प्रजनन विकास के दौरान पर्यावरणीय तापमान में वृद्वि हो जाती है, जिससे बीज की गुणवत्ता कम हो जाती है। फसल का विकास चरण उपज एवं इसके सहायक अवयवों की बेहतर अभिव्यक्ति के लिए ईष्टतम र्प्शवरणीय परिस्थितियों के समकालीन होना चाहिए। प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अधिकतम करने के लिए बुआइ्र का उचित समय बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह अच्छे बीज अंकुरण को तो सुनिश्चित् करता ही है इसके साथ ही साथ अंकुर एवंज ड़ों का ईष्टतम विकास भी सुनिश्चित् करता है।

सारणी-1: अलसी में पोषक तत्वों की मात्रा (प्रति 100 ग्राम)

पौषक तत्व मात्रा

प्रोटीन    20.3 ग्राम

वसा 37.1 (ओमेगा-3, अल्फा-लिनोलेनिक अम्ल 18.1 ग्राम तथा संतृप्त वसा)

ऊर्जा 530 किलो कैलोरी

फाइबर    4.8

विटामिन थाइमीन, विटामिन बी-5, नाईसीन, राइबोफ्लेविन तथा विटामिन-सी

खनिज लवण   कैल्शियम, लोहा, पोटेशियम, जिंक एवं मैग्नीशियम

ऐटीऑक्सीडेन्ट्स लाइकोपेन, लिग्नेन तथा लिउटीन

बीज की मात्रा

    अलसी के बीज की मात्रा सिंचित भूमियों में 25-30 कि.ग्रा., बीज प्रति हैक्टर की दर से बुआई करने हेतु पर्याप्त रहता है। जबकि बारानी क्षेत्रों में बुआई करने के लिए 30-35 कि.ग्रा. बीज पर्याप्त होता है। धान की खड़ी फसल में बुआई करने के लिए बीज 35-40 कि.ग्रा. की दर से अधिक बीज की बुआई नही करनी चाहिए। ऐसा करने से फसल में मृदा जनित रोगों का प्रकोप नही होता है।

उपयोगी अलसी

                                                                    

    अलसी के तेल का उपयोग विभिन्न उत्पादों के निर्माण में किया जाता हैं, जिनमें पेंट, वार्निश, लिनोलियम, ऑयल क्लॉथ, प्रिन्टर की इंक, और चमड़े के विभिन्न उत्पाद शामिल है। अलसी का उपयोग कम से कम 5,000 वर्षों से कपड़ा बनाने में किया जा रहा है। अलसी का रेशा रंग में हल्का पीला, नरम एवं चमकदार, परन्तु कम लचीला और कपास की अपेक्षा अधिक मजबूत होता हैं।

गर्म मौसम में पहनने के लिए लिनेन उपयोगी है, क्योंकि यह पानी को आसानी से अवशोषित कर लेता है। सिगरेट के लिए रोलिंग पेपर और अधिक गुणवत्ता वाले अलसी के रेशों से मुद्रा यानि नोट भी बनायें जाते हैं।

    अलसी के पौधों में नीले, सफेद एवं बैंगनी रंग के पुष्प आते हैं तथा इसके बीज तिल के बीज की अपेक्षा कुछ बड़े, भूरे, भूरे-पीले रंग के होते हैं। बीजों की सतह चिकनी, लसदार एवं तैलीय प्रकृति की होती है। अलसी का तेल बहुत गुणकारी होता है। यदि त्वचा कहीं से जल जाए तो अलसी के तेल से जलन एवं दर्द तुरंत राहत मिलती है। अलसी के बीज में तेल की प्रतिशत मात्रा लगभग 30-45 प्रतिशत तक होती है। अलसी के तेल से नियमित रूप से मालिश करने पर त्वचा के दाग-धब्बें, झाइंयाँ तथा झुर्रियाँ भी दूर हो जाती है।

असली के बीज का तेल निकलावने के बाद जो खली बचती है, यदि उसे दुधारू पशुओं को खिलाई जाती है तो उनका दुग्ध उत्पादन बढ़ जाता है। अलसी में समस्त वनस्पतियों की अपेक्षा अधिक ओमेगा-3 होता है, इसी कारण से अलसी को चिकित्सा विज्ञान में वेज ओमेगा के नाम से भी जाना जाता है। अलसी केा दैवीय भोजन के नाम से भी जाना जाता है।

अलसी में लगभग 33 से 45 प्रतिशत तक तेल एवं 24 प्रतिशत कच्चे प्रोटीन उपलब्ध हैं और यह विभिन्न कार्यों के लिए उपयोग किया जाने वाला सबसे पुराना व्यवसायिक तेलों में से एक है। तेल के निकलने बाद जो इसकी खली बचती है वह दुधाररू पशुओं के लिए एक अच्छा आहार है और साथ ही इसे खाद के रूप में भी प्रयोग किया जाता है, जिसमें लगभग 3 प्रतिशत तेल तथा 30 प्रतिशत प्रोटीन उपलब्ध रहता है।

अलसी की बुआई की विधि

                                                                  

    अलसी की बुआई पंक्तियों में करना ही उचित रहता है, इसके लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 5 से.मी. रखी जाती है। बिहार एवं मध्य प्रदेश में अलसी की बुआई धान खड़े खेतों में की जाती है। अलसी के अच्छे अंकुरण के लिए इसकी बुआई हल अथवा सीडड्रिल के माध्यम से करनी चाहिए। 4 से 5 से.मी. की गहराई पर अलसी की बुआई करना उचित रहता है।

फसल चक्र

    अलसी को मक्का, ज्वार, बाजरा, मूँगफली, लोबिया तथा सोयाबीन आदि के साथ फसल चक्र में उगाा जाता है। इसके साथ ही अलसी को गेंहूँ, जौ एवं सरसों के साथ मिश्रित रूप से भी उगाया जा सकता है।

अलसी में खाद एवं उर्वरक

    अलसी की अच्छी उपज के लिए खेत की तैयारी के समय 8-10 टन गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद को मृदा में अच्छी तरह से मिला देना चाहिए। असिंचित अवरूथा में 40 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 20-30 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर की दर से खेत में देनी चाहिए, वहीं सिंचित दशा में 60 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस तथा 40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग किया जाना चाहिए।

सारणी-2: भारत में अलसी को उगाने वाले प्रमुख राज्य

राज्य का नाम

क्षेत्रफल (लाख हैक्टर)

उत्पादन (लाख टन)

उपज (कि.ग्रा./हैक्टर)

असोम

0.06

0.04

671

बिहार

0.18

0.15

855

छत्तीसगढ़

0.28

0.10

371

झारखंड़

0.26

0.16

612

कर्नाटक

0.20

0.16

333

मध्य प्रदेश

1.12

0.57

503

महाराष्ट्र

0.24

0.05

218

ओडिशा

0.19

0.09

479

उत्तर प्रदेश

0.23

0.11

475

पश्चिम बंगाल

0.07

0.02

317

समस्त भारत

2.92

1.43

489

 

अलसी में जल प्रबन्धन

    अलसी का अच्छा उम्पादन प्राप्त करने के लिए दो सिंचाई आवश्यक हैं। पहली सिंचाई बुआई के 30-45 दिनों के बाद करनी चाहिए और दूसरी सिंचाई लगभग 75 दिन के बाद अलसी में फूल आने से पूर्व करनी चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

    अलसी की फसल खरपतवार अधिक प्रभावित होती है, क्योंकि इसमें पत्तियों का क्षेत्र बहुत ही कम होता है। अलसी में खरपतवार की उपस्थिति से उपज एवं तेल की गुणवत्ता प्रभावित होती है। अतः खरपतवार से बचाव के लिए अलसी की बुआई के कम से कम दो निराई-गुड़ाई जिनमें से पहली बुआई के दो-तीन दिन के बाद और दूसरी चार पाँच सप्ताह के बाद करनी चाहिए।

हालांकि रसायनिक दवाओं की सहायता से भी अलसी के खरपतवारों को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है। इसके लिए बुआई से पूर्व फ्लूक्लोरलिन एक कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर की दर से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर इसका छिड़काव करे। इसके अलावा एलाक्लोर शाकनाशी के एक कि.ग्रा. सक्रिय तत्व को 500-600 लीटर पानी में घोलकर बुआई के तुरंत बाद अंकुरण से पहले ही छिड़काव करना चाहिए, यह अलसी के अधिकाँशतः खरपतवारों को नष्अ कर देता है।

कैसे जारी रहे पीली क्रॉन्ति

    पीली क्रॉन्ति ने खाद्य तेलों के संकट की समस्या का समाधान करने का एक अच्छा विकल्प प्रस्तुत किया है। यह कई वैज्ञानिक एवं विकास संस्थानों, उद्योगों, प्रगतिशील किसानों और नीति निर्माताओं के टीम वर्क का भी प्रतीक है। परन्तु इसके साथ ही खाद्य तेलों के आयात पर दबाव भी बढ़ा है, जो कि एक चिंता का विषय है। तिलहन के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए सामुहिक प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।

इसमें आने वाली विभिन्न चुनौतियों का सामना करने के लिए दीर्घकालिक रणनीतियों को अपनाने की भी आवश्यकता है, जिनमें सुधार कर तकनीक, विविधीकरण और मूल्य वृद्वि के बेहतर तरीकों को अपनाने के माध्यम से क्षत्रीय विस्तार और उत्पादकता में सुधार के जरिये उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।

इसकी उर्ध्वाधर विकास पर अधिक जोर देने से यह उत्पादकता में वृद्वि के लिए सहायक हो सकता है, क्योंकि शहरीकरण के लिए क्षेत्रीय विस्तार के चलते कृषि योग्य भूमि की कमी और बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण अनाज के साथ प्रतिस्पर्धा में भी वृद्वि हो सकती है।

कीट एवं रोग प्रबन्धन

    अलसी में लगने वाले प्रमुख रोगों मेंरस्ट, उकठा एवं चूर्णिल आसिता आदि प्रमुख हैं। अलसी की फसल कीटों से अधिक प्रभावित नही होती है। अलसी में मिज, कअवर्म तथा पत्तियों को खाने वाली सूँड़ियाँ किन्हीं स्थानों पर अलसी की फसल को हानि पहुँचाती हैं।

अलसी की फसल की कटाई एवं मड़ाई

अलसी की फसल अच्छी कआई होने के बाद अच्छा उत्पादन देती है। अलसी की फसल प्रायः 130-150 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। जब अलसी के तने पीले पड़ जाएं तथा कैप्सूल एवं इसकी पत्तियाँ सूखनी आरम्भ हो जाएं और निचले हिस्सों के तनों से पत्तियां गिरने लगे तो यह समझ जाना चाहिए कि फसल अब पककर कटाई के लिए तैयार है। जब अलसी की फसल की कटाई हो जाए तो उसके उपरांत इसके पौधों के बण्ड़ल बनाकर चार से पाँच दिनों के लिए धूंप में सूखने के लिए रख देना चाहिए।

बीज को अलग करने के लिए इन बण्डलों को डंडे से पीटकर या थ्रेसर का उपयोग करना चाहिए। इसका रेशा प्राप्त करने के लिए अलसी की कटाई बुआई के लगभग 100 दिनों के बाद करनी चाहिए अथवा फूल आने के एक माह के बाद और जब कैप्सूल बन जाए तो उसके दो सप्ताह के बाद कटाई करनी चाहिए। रेशे के लिए उगाई गई फसल को जड़ से ही उखाड़ना चाहिए, जिससे कि इसके रेशों की अधिक से अधिक लम्बाई प्राप्त की जा सके। सही समय पर अलसी की कटाई नही होने पर तेल का उत्पादन कम होता है और इसके साथ ही तेल की गुणवत्ता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।

उपज

                                                              

    सिंचित दशाओं में अलसी की 15-20 क्विंटल बीज प्रति हैक्टेयर की उपज प्राप्त की जा सकती है, जबकि बारानी दशाओं में 80-10 क्विंटल प्रति हैक्टर की उपज प्राप्त की जा सकती है।

ओमेगा-3 समृद्व उत्पाद उपलब्ध

  • ओमेगा-3 दूधः अभी इस प्रकार के दूध का उत्पादन बड़े पैमाने पर नही हो पा रहा है, परन्तु जैसे-जेसे आम आदमी में ओमेगा-3 के प्रति जागरूकता में बढ़ोत्तरी होगी इसका उत्पादन भी वृहद पैमाने पर होने लगेगा।
  • ओमेगा-3 अंड़ेंः यह अंड़ा सम्पूर्ण मात्रा में ओमेगा-3 शरीर को उपलब्ध कराने मे सहायक होता है।
  • ओमेगा-3 कैप्सूलः आजकल बहुत सी दवा बनाने वाली कम्पनियाँ ओमेगा-3 युक्त कैप्सूल्स का उत्पादन कर रही हैं। भारत में डेक्कन हेल्थ केअर, हैदराबाद, ऑक्सीप्लेक्स, ओमेगा डेक सॉफ्ट जेल और साइन डाइट केअर तथा अल्फा लाईट नामक उत्पादों का निर्माण कर रही हैं, जो कि ओमेगा-3 से युक्त उत्पाद हैं।
  • बिस्कुटः फ्लैक्सयुक्त बिस्कुट भी आजकल बाजार में उपलब्ध हैं।
  • ओमेगा चॉकलेटः इस उत्पाद की भी बहुत ही शीघ्र भारतीय बाजारों में आमद की सम्भावना हैं। 

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।