हर बार यही कहानी प्रदूषण किसान के सिर

                          हर बार यही कहानी प्रदूषण किसान के सिर

                                                                                                           डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 शालिनी गुप्ता एवं मुकेश शर्मा

                                                                  

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में वायु प्रदूषण से जुड़े एक मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि ’यह बड़ी विडंबना है कि देश में वायु प्रदूषण के मामले में किसानों को ही खलनायक बनाकर पेश जा रहा है, परन्तु सच जानने के लिए हमारे सामने किसान नहीं है। कि हम उनसे यह नहीं पूछ सकते कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? पंजाब सरकार भी कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पा रही है। केंद्र सरकार मशीनों के लिए आर्थिक मदद देती है, लेकिन वह पूरी तरह मुफ्त देने का काम नहीं कर सकती।’

सरकार का पक्ष रखते हुए जब वकील ने कहा कि ‘किसान अपने थोड़े से लाभ के लिए पर्यावरण की चिंता नहीं कर रहे हैं।’ तो इसके जवाब में पीठ ने कहा कि ‘पराली जलाने के लिए सिर्फ माचिस की एक तीली की जरूरत होती है, जबकि उसके उचित निस्तारण के लिए मशीन, डीजल और मजदूर लगाने पड़ते हैं। तो ऐसे में क्या यह सभी सुविधाएं किसानों को निशुल्क उपलब्ध कराई जा सकती है? अगर कुछ किसान, लोगों की परवाह किए बिना पराली को जला रहे हैं, तो फिर सरकार सख्ती क्यों नही बरत रही है?

                                                              

कंपनियों के पास प्लास्टिक की बोतलों के कारगर निस्तारण का कोई उपाय नहीं है। ये बोतलें जल निकासी में रुकावट पैदा करने के साथ, जल प्रदूषण भी बढ़ाती हैं। बड़ी संख्या में खराब और कुचली बोतलों को कचरे के साथ जला भी दिया जाता है, जो वायु प्रदूषण का बड़ा कारण बनती हैं। दिल्ली के सभी ढलाव क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में प्लास्टिक जलाया जाता है। मगर इसे प्रदूषण बढ़ाने के कारकों में रेखांकित नहीं किया जाता ई-कचरा, जिसमें कंप्यूटर, टैबलेट, मोबाइल और अन्य उपकरण शामिल हैं, उनसे उत्सर्जित प्रदूषण को भी नजरअंदाज किया जाता है। इस लिहाज से अकेले किसान को कानून के डंडे से हांकना कितना कानून सम्मत है? किसी भी मानवीय समस्या का समाधान परस्पर समन्वय से ही निकाला जा सकता है।

पराली जलाने की घटनाओं और उसके दुष्प्रभावों पर लंबे समय से वाद-विवाद और नसीहतों का दौर चलता रहा है। नेता जनता की किस्मत बदलने का दावा तो करते हैं, लेकिन हालात कमोबेस जस के तस ही बने रहते हैं। दीवाली का पर्व, करोड़ों घरों की समृद्धि में वृद्वि करता है, लेकिन इसे धूम-धड़ाके से मनाने के सह-उत्पाद के रूप में जो प्रदूषण उपजता है, आखिरकार उसका दंड, किसान, मजदूर और अन्य छोटे कामगारों को ही क्यों झेलना पड़ता है? क्योंकि उत्सव मनाने के बाद राजधानी में जो घातक धुंध छा जाती है, उसका दोष इन्हीं लोगों पर मढ़ दिया जाता है।

                                                                       

अदालत में स्वच्छ वायुमंडल के लिए दायर की जाने वाली जनहित याचिकाओं का लक्ष्य भी इसी लाचार वर्ग को भेदने का काम करता है। ऐसी हालत में उन कारों को बख्श दिया जाता है, जो प्रदूषण बढ़ाने में एक महती भूमिका निभाती हैं। दरअसल, यदि उद्योगों पर नियंत्रण किया जाएगा, तो उत्पादकता कम होगी और इसका प्रभाव हमारी जीडीपी पर भी पड़ेगा और देश दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने राह में रोड़ा अटक जाएगा। जबकि दुनिया की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था वाला भारत दुनिया का आठवां सबसे ज्यादा प्रदूषित देश है और दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित तीस शहरों में से बाईस शहर, भारत के शहर ही है।

यह पहला अवसर है, जब अदालत ने किसानों को प्रोत्साहित कर उनकी पराली दहन समस्या की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पहल की है। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि पंजाब को हरियाणा से सीख लेनी चाहिए, जिसने किसानों को आर्थिक मदद देकर एक सीमा तक पराली जलाने की समस्या से राहत भी पाई है। पराली दहन की समस्या से निपटने का यही एक तार्किक हल है। किसानों पर जुर्माना लगाना या न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल न खरीदना उस किसान को दंड देना ही है, जो कि इस समस्या का प्रत्यक्ष या एकमात्र दोषी नहीं है।

                                                                   

सच तो यह कि उद्योगों और वाहनों द्वारा उगला जाने वाला धुआं भी वायुमंडल को दूषित करता है। किसानों को धान के डंठल एवं अन्य फसलों के अवशेष मजबूरी में जलाने पड़ते हैं, क्योंकि उसे अगली फसल के लिए खेत बुबाई के लिए तैयार करने होते हैं। ऐसे में सड़कों पर बड़ी संख्या में वाहन शौकिया वा वैभव-प्रदर्शन के लिए भी चलाए जाते हैं। जबकि नेताओं की रैलियों और रोड शो के दौरान हजारों वाहन फिजूल में ही सड़कों पर उतार दिए जाते हैं। अमीरों के इस प्रदूषण से जुड़े आंकड़े को प्रदूषण के कुल आंकड़ों में जोड़ने से अक्सर बचा जाता है।

वायु प्रदूषण में बड़ा योगदान शीतल पेय और दुनिया भर में वायुमंडल में जीवाश्म ईंधन से उत्सर्जित होने वाली गैसें आज चरम स्तर पर पहुंच चुकी हैं। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्लूएमओ) के द्वारा जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2022 में कार्बन डाइआक्साइड का औसत स्तर 417.9 पीपीएम दर्ज किया गया था। अगर इस प्रकार से देखा जाए तो औद्योगिक काल के पहले की तुलना में कार्बन का स्तर 50 फीसद तक बढ़ चुका है। जबकि यह पिछले साल के अपने सबसे उच्चतम स्तर पर था। हालांकि इस साल नवंबर तक कार्बन का मानक स्तर 420 पीपीएम तक पहुंच चुका है, जो कि एक नया कीर्तिमान भी है, मीथेन और नाइट्रस आक्साइड के स्तर में भी बढ़ोतरी हुई है।

                                                         

डब्लूएमओ के महासचिव ने कहा है कि दशकों से विज्ञान सम्मत चेतावनियों के बावजूद अब भी देश गलत दिशा में बढ़ रहे हैं। ऐसे में जीवाश्म ईंधन का उपयोग बिलकुल समाप्त करने के लिए तत्काल एक ठोस पहल की महत्ती जरूरत है।

विकसित देशों ने कार्बन कम करने के उपायों को अमल में लाने से जुड़े बजट को बहुत कम कर दिया है। इस कारण भी कार्बन का उत्सर्जन दुनिया में द्रुत गति के साथ बढ़ रहा है। यह तो प्रकृति का ही कमाल है कि उत्सर्जित होते कार्बन डाई आक्साइड का आधे से भी कम हिस्सा वायुमंडल में रह पाता है, क्योंकि इसके एक चौथाई से ज्यादा भाग को समुद्रों के द्वारा सोख लिया जाता है। तो वहीं इसके तीस फीसदी भाग को जंगल और जमीन का पारिस्थितिक तंत्र अवशोषित कर लेता है। कार्बन डाई आक्साइड का सबसे अधिक उत्सर्जन जीवाश्म ईंधन के दहन और सीमेंट उत्पादन के कार्य में होता है।

दुनिया भर में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में जिम्मेवार गैसें एचएफसी 01 फीसदी, एचसीएफसी 02, एनटूओ 06, सीएफसी 08, मीथेन 19 और कार्बन डाई आक्साइड 64 फीसदी है। इन गैसों के ज्यादा उत्सर्जन होते रहने से जलवायु में बदलाव आएगा जिससे बाढ़, आंधी तूफान और लू जैसी घटनाएं सामान्य से अधिक देखने में तो आएंगी ही, लेकिन साथ ही इनकी आवृत्ति भी बढ़ जाएगी।

अगर हम ‘स्टेट आफ ग्लोबल एयर-2020’ की रिपोर्ट पर बात करें तो वायु प्रदूषण से भारत में प्रतिदिन 539 बच्चों की मौत होती है जहरीली वायु के चलते हमारे देश में 1.16 लाख से भी ज्यादा नवजात शिशुओं की मौत 27 दिन के भीतर ही हो जाती है। वायु प्रदूषण का सबसे ज्यादा विपरीत प्रभाव शिशुओं, बालकों और वृद्ध जनों पर ही पड़ता है, और इनमें भी अभावग्रस्त, यानी गरीब या सुविधाओं से वंचित लोगों को सबसे ज्यादा प्रदूषण का प्रभाव झेलना पड़ता है। अभी तक की सच्चाई तो यह है कि वर्तमान में जारी इस संकट के प्रमुख दोषी विकसित देश हैं, जबकि इकसा ठीकरा विकासशील देशों सिर पर फोड़ दिया जाता है।

                                                            

विकसित देश वर्ष 1950 से 2022 के बीच, पृथ्वी पर 1.5 खरब मीट्रिक टन कार्बन डाइ आक्साइड उत्सर्जित करके वायुमंडल में पहुंचा चुके हैं। इसमें करीब 90 फीसद भाग यूरोप और उत्तरी अमेरिका का है। वर्तमान में भी एक औसतन एक अमेरिकी नागरिक प्रति वर्ष 14.5 मीट्रिक टन कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन करता है। जबकि इसकी तुलना में एक भारतीय नागरिक पूरे वर्षभर में औसतन 2.9 मीट्रिक टन कार्बन का उत्सर्जन करता है।

यदि इसे समूचे भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाए, तो देश का संपन्न वर्ग अपने वाहन, एसी, फ्रिज, कंप्यूटर आदि उपकरणों के माध्यम से जितने कार्बन का उत्सर्जन करता है, उतना एक तय समय में पराली आइि को जलाने से नहीं होता है। परन्तु दिल्ली में छाई गहरी धुंध का पूरा का पूरा दोष प्रत्येक वर्या की तरह से ही इस बार किसान के सिर पर ही मढ़ा जा रहा है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।