चिपको आंदोलन के 50 साल

                                 चिपको आंदोलन के 50 साल

                                                                                                                              डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा

                                                                         

चिपको आंदोलन में चंडीप्रसाद भट्ट की बड़ी भूमिका तो थी ही, गौर करने की बात है कि रेणी से पहले ही 1973 के अंत में इस आंदोलन में बड़ी संख्या में महिलाएं एकजुट होने लगी थीं। यह चिपको आंदोलन में महिलाओं की पहली प्रत्यक्ष हिस्सेदारी थी।

दिसंबर 1973 का अंतिम सप्ताह भागम-भाग भरा था। यह चिपको आंदोलन में महिलाओं की पहली प्रत्यक्ष हिस्सेदारी थी। 29 दिसंबर को श्यामादेवी, जिन्होंने दशौली ग्राम स्वराज्य संघ (दशस्वमं) भवन की स्थापना के लिए जमीन दी थी, अन्य महिलाओं के साथ 30 दिसम्बर, 1973 को श्यामादेवी, इन्द्रा जेठली, जयन्ती एवं पार्वती के नेतृत्व में रामपुर में ग्रामीण महिलाओं का पहला जुलूम निकाला गया। श्यामा देवी की अध्यक्षता में सभा हुई और पेड़ों की सुरक्षा के प्रण को दोहराया गया। शिशिुपाल कुंवर तथा अनुसूया प्रसाद लगातार साथ रहे थे। महिलाएं सफलता मिलने के बाद ही अपने घर वापस लौटी।

                                                                  

यह अगले साल रेणी में होने वाले प्रतिरोध का एक पूर्व संकेत ही था। लेकिन महिलाओं के लिए यह कोई नई बात नही थी। इसके कुछ वर्ष पूर्व वे शराबबंदी आन्दोलन हिस्सेदारी कर चुकी थी। चमोली में सक्रियता अधिक थी। वहाँ की महिलाएं टिहरी और गिरफ्तारी के सहारनपुर जेल गई। ग्रामीणों और कार्यकताओं की सावधानी, सक्रियता और सुसंगठन में मैखंड़ा जंगल के अधिकतर पेड़ बच गए। मंड़ल के बाद चिपको का यह दूसरा प्रतिरोध भी सफल रहा। ऐसा कार्यकर्ताओं के समपर्ण तथा ग्रामीणों की समझ के चलते सम्भव हो सका।

चिपको के पहले प्रतिरोधों में ग्रामीणों के साथ चंडीप्रसाद भट्ट, केदार सिंह रावत और श्यामादेवी आदि का प्रत्यक्ष योगदान रहा। सुन्दर लाल बहुगुणा 25 अक्तूबर से अपनी चार महीने की पदयात्रा पर निकल चुके थे। अभी जंगल की लड़ाई को उत्तरकाशी, नैनीताल और अन्य जगहों तक भी जाना था। फाटा की जीत से आंदोलन को ज्यादा गहराई और विस्तार मिल सका। सरकार ने चिपको आंदोलन के प्रतिनिधियों को लखनऊ में बुलाकर उन्हें नई वन नीति हेतु सुझाव देने को कहा। तो दूसरी और उनके इलाके में कटान-छपान जारी रखा। इस प्रकार न तो सरकारी नीति बदली और न ही आंदोलनकारी।

                                                                     

फाटा में चार पेड़ो का कटान हुआ, पर अगली नीलामी के लिए छपान जारी था। तभी रेणी तथा अन्य जंगलों की नीलामी की सूचना मिली। उधर उत्तराखंड के सात जिलों को 23 सीसा इकाइयाँ बन्द थी।

1,800 कुन्तल सीसे का नीलाम 150-155 रुपये प्रति क्विंटल की दर से हुआ। लेकिन यह स्थानीय इकाइयों को 180 रुपये प्रति क्विंटल की दर पर मिला। परन्तु अभी तो सीसा नहीं, रेणी की नीलामी महत्वपूर्ण थी। नवंबर 1973 के प्रारंभ में गोविंद सिंह, चंडीप्रसाद, हयातसिंह, वासवानंद जगत सिंह केरणी आदि जोशीमठ और रेणी के बीच के गांवों को यात्रा कर चुके थे।

दिसंबर, 1973 में गोविन्द सिंह, हयात सिंह, और वासवानंद आदि गाँवों में जाते रहे। गोविंद सिंह ने तब ‘‘आ गया है लाल निशान, लूटने वाले सावधान’’ नारे वाला ‘चिपको आंदोलन का शुभारंभ’ पर्चा निकाला। इसमें को उपनिवेश बनाने और यहां की संपदा को लूट के विरोध संगठित होकर वनाधिकार को प्राप्त करने का आग्रह किया गया था। फाटा से रेणी प्रतिकार रेणी प्रतिकार के लिए एक नई ऊर्जा प्राप्त हुई और इलाके में कार्य भी जारी ही था।

                                                                 

चंड़ीप्रसाद ने मन्त्रोदय मंड़ल के निर्णयानुसार देहरादून जाना उचित समझा, जहाँ जंगलों की नीलामी होने वाली थी। हालांकि, चंड़ीप्रसाद शहरों में नीलामी के विरोध से असहमत थे।  वह चिपको आंदोलन का पर्चा बना कर देहरादून पहुंचे। उन्हें सीमाएं पता थी पर यह संदेश ज्यादा लोगों तक जा सकता था। यह नीलामी के प्रतीकात्मक विरोध की एक शुरुआत भर थी। इस पर्चे में जंगलों का विनाश रोकने, नीलामी-ठेकेदारी प्रथा बंद करने, हक-हकूक बढ़ाने, श्रम समितियां बनाने, कच्चा माल बाहर न भेजने, वनवासियों को कच्चा माल-तकनीक पूंजी मुहैया कराने हेतु चिपको आंदोलन को सफल बनाने की अपील की गई थी।

पर्चे के अंत में कुछ मार्मिक वाक्य भी थे। ‘यह तिलाड़ी का संदेश है, बेलाकूची (एक गाँव जो 1970 की बाढ़ में बह गया था) की बाढ़ में डूबने वालों का करूण-क्रंदन है और जंगल की अंधाधुंध कटाई से हर साल आने वाली बाढ़ो से तबाह होने वालों की पुकार है।’ 02 जनवरी, 1974 को चंड़ीप्रसाद ने वन अधिकारियों से मानवीय, सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिक दृष्टिकोण से नीलामी रोकने को कहा। रात को उन्होंने विद्यार्थी कु0 मि. मनु निश्चिंत तथा लक्ष्मी प्रसाद नौटियालके सहयोग से टाउन हॉल के आसपास कुछ पोस्टर चिपकाए। दोनों कहा कि नीलामी पर लगी रोक को हटाया जाए। परन्तु इस पर सहमति नहीं बनी। गोपेश्वर से आए पर्चे के अनुसार पोस्टर बने और लगाए गए।

                                                                  

तीन जनवरी 1974 को देहरादून के राजन हॉल के द्वार पर खड़े हो गए। पिछली शाम भी ठेकेदारों और मुशियों से बात करने का प्रयास किया और बताया कि रेगी में चिपको आंदोलन चलेगा। ठेकेदार-मुंशी उनका मजाक उड़ाते रहे और उनको सिर्फ पोस्टर का ही इशारा करते। ठेकेदार और मुंशी उत्सुकता से पोस्टर पढ़ते और फिर व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ भीतर जाते और टाउन हॉल के भीतर नीलामी की प्रक्रिया चलती रही। इसके साथ ही रेणी का जंगल चार लाख 71 हजार रुपये में नीलाम हो गया। नी

लामी के बाद सभी लोग बाहर आ रहे तो चंडीप्रसाद हॉल के भीतर गए और रेणी के ठेकेदार के मुंशी से मिले। चण्ड़ीप्रसाद ने मुंशी से कहा कि अपने ठेकेदार को बता देना कि जब बह जंगल को काटने के लिए रेणी आएंगे तो तो उन्हें चिपको आंदोलन का मुकाबला करन पड़ेगा। ठेकेदार और मुशियों की स्मृति में उस दिन से ‘चिपको’ शब्द अटक गया। देहरादून से चंडीप्रसाद गोपेश्वर आए गए। मंत्री शिशुपाल सिंह, दयालसिंह, चक्रधर, दानसिंह, विशंभर रावत, सोनसिंह तथा आदि से बातचीत की और अपने साथियों को रेणी की नीलामी की खबर भेजी। गोपेश्वर में अनेक विचार-विमर्श हुए।

फरवरी, 1974 में, एक बार फिर से क्षेत्र की यात्रा गोविन्द सिंह ने अपने पुराने अंदाज में की। इस बार उनके साथ हयातसिंह, सुदर्शन करौत और कामरेड़ सुदामा आदि रहे थे। रबाटा में हुई उनकी सभा में ग्राम प्रधान जगतसिंह और चंदन दान की अध्ययक्ष सांकुली देवी आदि भी सम्मिलत हुए और इसके अगले दिन ही रेणी में भी ऐसी ही सभा का आयोजन किया गया।

                                                                       

15 मार्च, 1974 को चंड़ीप्रसाद ने एक पत्र तत्कालीन मुख्यमंत्री को भेजा। मुख्यमंत्री के साथ वार्ता, नई जंगल नीति बनाने के विषय में विचार-विमर्श होने के उपरांत भी सरकार पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ा। जोशीमठ एवं रेणी क्षेत्र में कार्यकर्ता आ-जा रहे थे। गोविन्द सिंह का आम जनता से सीधा एवं प्रभावी सम्पर्क था। वह पिछले वर्ष ग्राम प्रधानों की ओर से पर्चा बाँट चुके थे, और यह पर्चे लगातार बाँटे और पढ़े जा रहे थे। जनवरी तथा फरवरी, वर्ष 1974 के दौरान चारों ओर तैयारी होती रही। जनता-आन्दोलनकारी, ठेकेदार, जंगलात विभाग एवं लखनऊ की सरकार सभी अपनी-अपनी तरह से इस तैयारी में जुटे थे और सभी अपनी-अपनी रणनीतियाँ बनाने में संलग्न थे।

                                                                          

पर्वतीय विकास निगम के द्वारा चम्पावत और तिलवाड़ा में दो लीसा इकाईयाँ 15 फरवरी, 1974 को आरम्भ की गई। चमौली जिले के गाँवों में घोषणा की जा चुकी थी कि रेणी कटाव के विरोध में 15 मार्च, 1974 को जोशीमठ में विशाल प्रदर्शन किया जाएगा।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षणए सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।