बेहतर सिंचाई प्रबन्धन की नवीनतम व किफायती तकनीक ड्रिप सिंचाई पद्वति

                                                        बेहतर सिंचाई प्रबन्धन की नवीनतम व किफायती तकनीक ड्रिप सिंचाई पद्वति

                                                                                                                                         डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

                                                                            

    बदलते परिवेश में पौधों की जड़ों तक पानी पहुंचाने के लिए आधुनिक सिंचाई प्रणाली अर्थात ड्रिप सिंचाई प्रणाली सर्वाधिक लाभकारी सिद्व हो रही है। टपक सिंचाई को बूंद-बूंद सिंचाई अथवा ड्रिप सिंचाई प्रणाली के नाम से भी जाना जाता है। आज देश में लगभग 392 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में ड्रिप सिंचाई पद्वति स्थापित की जा चुकी है और इसके लाभ देखकर दिन-प्रति-दिन ड्रिप सिंचाई प्रणाली का क्षेत्र बढ़ता जा रहा है। ड्रिप सिंचाई प्रणाली के अंतर्गत क्षेत्रफल की दृष्टि से आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात एवं कर्नाटक महत्वपूर्ण राज्य हैं।

महाराष्ट्र में 9.2 लाख हेक्टेयर आंध्र्रप्रदेश में 9.5 लाख हेक्टेयर, कर्नाटक में 4.9 लाख हेक्टेयर तथा गुजरात में 5.3 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल ड्रिप सिंचाई पद्वति के अंतर्गत है। तमिलनाडु, केरल, मध्य प्रदेश एवं हरियाणाके अतिरिक्त अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में भी ड्रिप सिंचाई का उपयोग बढ़ रहा है। परंपरागत सिंचाई व्यवस्था द्वारा जल का अत्याधिक ह्मस होता है जिससे पौधों को प्राप्त होने वाला जल धरती में सिकर भाप बनकर नष्ट हो जाता है।

अतः जल का उचित सदुपयोग करने के लिए इस तकनीक का उपयोग किया जा रहा है जिसमें जल का रिसाव बेहद कम होता है, साथ ही अधिक से अधिक पौधों की जड़ों तक पानी पहुँच जाता है।

                                                                                       

    ड्रिप सिंचाई उन क्षेत्रों के अधिक उपयुक्त है, जहां जल की कमी होती है, खेती की जमीन असमतल और सिंचाई प्रक्रिया महंगी होती है। इस विधि में जल उपभोग क्षमता80-95 प्रतिशत तक होती है, जबकि परंपरागत सिंचाई प्रणाली के अंतर्गत जल उपभोग की क्षमता 30-50 प्रतिशत तक ही होती है। अतः इस सिंचाई प्रणाली में अनुपजाऊ भूमि को उपजाऊ भूमि में परिवर्तित करने की क्षमता होती है।

जल का समुचित उपयोग होने के कारण, पौधों के अतिरिक्त शेष स्थानों पर नमी कम रहती है, जिससे खरपतवारों का जमाव भी कम होता है। आजकल ड्रिप फर्टिगेशन सिंचाइ्र प्रणाली का उपयोग मुख्यतः सब्जियों, फूलों और फलों की खेती करने में किया जा रहा है। इस प्रणाली के तहत उर्वरकों की दक्षता में भी 36 प्रतिशत तक की वृद्वि हो जाती हैै। इसके अतिरिक्त इस प्रणाली का मुख्य पॉलीहाउस एवं ग्रीनहाउस वाले किसान भरपूर लाभ उठा रहे हैं।   

                                                                            

तालिका-1 : ड्रिप सिंचाई प्रणाली के लाभ

क्र. सं.

मानक

लाभ प्रतिशत

1.

पानी की दक्षता में वृद्वि  

50-90

2.

सिंचाई लागत में बचत   

32.0

3.

ऊर्जा की खपत में बचत  

30.5

4.

उर्वरक की खपत में बचत 

28.5

5.

उत्पादकता में वृद्वि

42.4

6.

नई फसल (विविधीकरण)  

30.0

7.

किसान की आय में वृद्वि 

42.0

लेजर लैण्ड लेवलर का उपयोग

    आधुनिक कृषि यंत्र लेजर लेवलर के उपयोग से खेत को पूर्णतया समतल बनाया जा सकता है। पूर्णरूप से समतल खेत की सिंचाई करने में पानी कम लगता है, क्योंकि खेत के समतल होने के कारण पानी शीघ्र ही पूरे खेत की सतह पर फैल जाता है, जिससे सिंचाई जल की बचत होती है।

एस.आर.आई. तकनीक का प्रयोग

    धान की खेती में सिस्टम ऑफ राइस इंटेसीफिकेशन (एस.आर.आई.) तकनीक को अपनाने से प्रति इकाई क्षेत्र से अधिक उत्पादन के साथ मृदा, समय, सिंचाई जल, श्रम और अन्य साधनों का अधिक दक्षतापूर्ण उपयोग देखने में आया है। इस विधि में पौधों की रोपाई के बाद मिट्ठी को केवल नम रखा जाता है, खेत में पानी खड़ा हुआ नही रखा जाता।

जल निकास की उचित व्यवस्था की जाती है जिससे पौधों की वृद्वि एवं विकास के समय मृदा में केवल नमी बनी रहे। इस प्रकार, धान के खेती में मृदा वायवीय दशाओं में रहती है, और मृदा में डिनाइट्रीफिकेशन की क्रिया द्वारा दिए गए नाइट्रोजन उर्वरकों का ह्मस कम से कम होता है। साथ ही, धान के खेतों से नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन भी नगण्य होता है। एस.आर.आई. विधि से धान की खेती करने से लगभग 30-50 प्रतिशत तक सिंचाई जल की बचत होती है।

धान की खेती ऐरोबिक विधि से

    जल एक सीमित संसाधन है, देश में कृषि हेतु कुल उपलब्ध जल का लगभग 50 प्रतिशत भाग धान की खेती हेतु ही उपयोग में लाया जाता है। धान उत्पादन की इस विधि में धान के बीज को खेत में को खेत में ही तैयार कर सीधे खेतों में ही रोपाई कर दी जाती है। इससे पानी की असीम बचत होती है।

चूँकि इस विधि के अंतर्गत खेतों में पानी नही भरा जाता है। इसलिए धान के खेतों में वायवीय वातावरण बना रहता है। परिणामस्वरूप, विनाईट्रीकरण की क्रिया द्वारा नाईट्रोजन का ह्मस भी रोका जा सकता है। साथ ही, इस विधि में धान के खेतों से ग्रीनहाउस की गैसों के उत्सर्जन भी न्यूनतम होता है।

जलमग्न धान की फसल में दिए गए नाइट्रोजन उर्वरकों का नुकासान मुख्य रूप से अमोनिया, वाष्पीकरण, विनाइट्रीकरण एवं लीचिंग द्वारा होता है, जो अंततः हमारे प्रदूषण को ही प्रदूषित करते हैं। दूसरी ओर, धान की फसल में नाइट्रोजन उपयोग दक्षता एवं उत्पादकता में भी वृद्वि की जा सकती है।

अतः भारत में कम पानी वाले क्षेत्रों में इस तकनीक को उपयोगी बनाने की निःतांत आवश्यकता है जिससे कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों मुख्यतः सिंचाई जल का आवश्यकता से अधिक दोहन रोका जा सकें।

फसल विविधिकरण

    वर्ष 2023 को राष्ट्रीय मिलेट वर्ष के रूप में मनाया गया। बदलते परिवेश में बेहतर स्वास्थ्य व संसाधन हेतु मोटे अनाजों की खेती पर बल दिया जा रहा है। ये मोटे अनाज केवल स्वास्थ्यवर्धक ही नही होते, अपतिु हमारे पर्यावरण को बेहतर बनाए रखने में भी हमारी सहायता करते हैं। हमारे देश में मक्का, ज्वार, बाजरा, रागी, कोंदों जैसे कई मोटे अनाजों की खेती की जाती रही है। ये मोटे अनाज आयरन, जिंक, कॉपर और प्रोटीन जैसे पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं।

इन मोटे अनाजों की यह विशेषता है कि ये अल्प जल वाली जमीन पर भी उगाए जा सकते है। जबकि गेंहूँ और धान जैसी फसलों को उगाने के लिए पानी एवं रासायनिक उर्वरकों का अत्याधिक प्रयोग किया जाता है। परन्तु मोटे अनाजों की खेती करने से न केवल भू-जल एवं ऊर्जा की खपत में कमी आयेगी अपितु धान-गेंहूँ के प्रति हेक्टेयर उत्पादन में आ रही गिरावट या अस्थिरता को दूर करने में भी सहायता प्राप्त होगी। साथ ही, कृषि विविधिकरण का भू-जल स्तर व उर्वरता पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ेगा जो अंततः भारतीय कृषि एवं किसानों के विकास के लिए एक अच्छी पहल सिद्व होगी।

अतः फसल विविधिकरण की तकनीकी और कार्यप्रणाली को किसानों तक पहुंचाकर जल की कमी वाले क्षेत्रों में मोटे अनाज के उत्पादन और उनकी गुणवत्ता को भी बढ़ाया जा सकता है।

जीरो टिलेज तकनीक

    जीरो टिलेज तकनीक का प्राकृतिक संसाधनों विशेषतौर पर जल के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान है। आधुनिक खेती में संरक्षित टिलेज पर भी जोर दिया जा रहा है जिसमें फसल अवशेषों का अधिकांश भाग मृदा की सतह पर फैला दिया जाता है, इससे न केवल फसल की उत्पादकता में सुधार होता है, बल्कि मृदा जल के ह्मास को भी रोका जा सकता है। धान के पश्चात् गेंहूँ की सीधी बुवाई के लिए जीरो ट्रिल ड्रिल का उपयोग लाभदायक पाया गया है क्योंकि पारंपरिक बुवाई की अपेक्षा इस तकनीक के द्वारा लगभग 30 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत होती है।

 वाटरशेड प्रबन्धन

    पानी की एक-एक बून्द को बचाने के लिए वाटरशेड प्रबंधन की तकनीकों को अपनाना होगा ताकि वर्षा जल का अधिकतम उपयोग फसलोत्पादन में किया जा सकें। जिन क्षेत्रों में वर्षा-ऋतु में भारी वर्षा होी है, परन्तु वहां जल संरक्षण का पर्याप्त प्रबंध भी नही होता ऐसे स्थानों पर बरसात के दिनों में वर्षा-जल को संरक्षित कर भू-जल स्तर को बढ़ानें तथा बरसात के मौसम के बाद इस वर्षा-जल को फसलोत्पादन में जल की कमी के समय जीवन-रक्षक सिंचाई के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है।

ऐसे क्षेत्रों में वर्षा जल इधर-उधर बहकर ही नष्ट हो जाता है। इसके अतिरिक्त, निचले क्षेत्रों में बाढ़ के रूप में बड़े पैमाने पर जन-धन की हानि प्रतिवर्ष होती है, इतना ही नही, वर्षा ऋतु के पश्चात् इन क्षेत्रों में जल संकब् भी उत्पन्न हो जाता है। वर्षा जल के तीव्र बहाव के कारण मृदा का कटाव भी बड़े पैमाने पर होता है परिणामस्वरूप भूमि की उर्वरा शक्ति का तो ह्मस होता ही है, फसलोत्पदन एवं स्थानीय लोगों के जीवन यापन पर भी इसका व्यापक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।