प्राकृतिक खेती के सिद्वांत, लाभ एवं उसकी चुनौतियाँः

                                                                               प्राकृतिक खेती के सिद्वांत, लाभ एवं उसकी चुनौतियाँः

                                                                                                                                                                 डा0 आर. एस सेंगर एंव सहयोगी मुकेश शर्मा

 

                                                                                        

    खेती की एक ऐसी विधा, जिसके अन्तर्गत प्रकृति के तरीकों का अनुकरण, प्राकृतिक नियमों के द्वारा निर्देशित विधि से की जाती है, उसे प्राकृतिक खेती कहते हैं।

आमतौर पर हम यदि कोई पौधा अपने घर या बगीचों  में लगाते हैं, तो उसको नियमित पोषण देने, सिंचाई करने तथा संक्रमण एवं कीटों आदि से  बचाने के लिए उसकी अनेक प्रकार से देखभाल करते है।

परन्तु क्या  कभी आपने ये  सोचा है कि जंगलो में होने वाले पेड़ों के देख-रेख कौन करता है? उन्हें संक्रमण और कीटों से कौन बचाता है? उसकी भूमि सिंचाई के लिए कौन जिम्मेदार है? स्वाभाविक रूप से यह काम प्रकृति में अपने आप से ही होता रहता है।

इस प्रकार की प्राकृतिक खेती, उन प्राकृतिक या पारिस्थितिक प्रक्रियाएं, जो खेतों में या उनके आस-पास ही उपलब्ध होती हैं, के ऊपर आधारित होती है। इसमें किसी भी प्रकार के सिंथेटिक रासायनिक आदानों का उपयोग नहीं किया जाता है।

इसे ‘‘रसायन मुक्त कृषि (Chemical–free Farming) और पशुधन आधारित कृषि (Livestock Based Farming) के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है।

कृषि-पारिस्थितिकी के मानकों पर आधारित यह एक विविध कृषि प्रणाली है, जो फसलों, पेड़ों और पशुधन को एकीकृत करती है, जिससे कार्यात्मक जैव-विविधता के इष्टतम उपयोग की अनुमति मिलती है।

यह मिट्टी की उर्वरता और पर्यावरणीय स्वास्थ्य को बढ़ाने तथा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने या न्यून करने जैसे कई अन्य लाभ प्रदान करते हुए किसानों की आय बढ़ाने में भी सहायक सिद्व होती है।

                                                                                             

कृषि के इस दृष्टिकोण को एक जापानी किसान और दार्शनिक मासानोबू फुकुओका (Masanobu Fukuoka) ने 1975 में अपनी पुस्तक द “वन-स्ट्रॉ रेवोल्यूशन” में पेश किया था।

प्राकृतिक खेती के मुख्य संकेतों में से एक यह पूछना है कि हमें भोजन उगाने की प्रक्रिया में आधुनिक तकनीक ही क्यों लागू करनी चाहिए, जबकि प्रकृति इन प्रौद्योगिकियों के नकारात्मक दुष्प्रभावों के बिना समान पैदावार प्रदान करने में सक्षम है।

ऐसे विचारों ने उन परंपराओं को मौलिक रूप से चुनौती दी जो आधुनिक     कृषि-उद्योगों के मूल हैं, पोषक तत्वों और रसायनों के आयात को बढ़ावा देने के बजाय, उन्होंने एक ऐसा दृष्टिकोण सुझाया जो स्थानीय पर्यावरण का लाभ उठा सकें। हालांकि प्राकृतिक खेती को कभी-कभी जैविक खेती का एक उपसमुच्चय माना जाता है, यह पारंपरिक जैविक खेती से बहुत अलग है।

जैविक और प्राकृतिक खेती के बीच समानताएंः

दोनों प्राकृतिक और जैविक खेती के तरीके रासायनिक मुक्त हैं और काफी हद तक जहर मुक्त भी हैं।

यह दोनों ही कृषि प्रणालियाँ किसानों को पौधों पर रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग के साथ-साथ किसी भी अन्य कृषि पद्धतियों में संलग्न होने से प्रतिबंधित करती हैं।

किसानों को खेती के दोनों तरीकों में स्थानीय बीज, नस्लों और सब्जियों, अनाज, फलियां, साथ ही अन्य फसलों की देशी किस्मों का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

जैविक और प्राकृतिक कृषि विधियों के द्वारा गैर-रासायनिक और घरेलू कीट नियंत्रण समाधानों को बढ़ावा दिया जाता है।

जैविक और प्राकृतिक खेती के बीच अंतरः

जैविक खाद और खाद, जैसे खाद, वर्मीकम्पोस्ट और गाय के गोबर की खाद का उपयोग किया जाता है और जैविक खेती में खेतों में लगाया जाता है।

प्राकृतिक खेती में मिट्टी पर रासायनिक या जैविक खाद का प्रयोग नहीं होता है। वास्तव में, न तो अतिरिक्त पोषक तत्व मिट्टी में डाले जाते हैं और न ही पौधों को दिए जाते हैं।

-- प्राकृतिक खेती मिट्टी की सतह पर सूक्ष्मजीवों और केंचुओं द्वारा कार्बनिक पदार्थों के टूटने को प्रोत्साहित करती है, धीरे-धीरे समय के साथ मिट्टी में पोषक तत्वों को सम्बद्व करती जाती है।

-- जैविक खेती में अभी भी जुताई, खाद मिलाना, निराई और अन्य बुनियादी कृषि गतिविधियों की आवश्यकता होती है।

-- प्राकृतिक खेती में कोई जुताई नहीं है, कोई मिट्टी नहीं झुकती है, कोई उर्वरक नहीं है, और कोई निराई नहीं है, ठीक उसी तरह जैसे प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में होता है।

इस समय प्राकृतिक खेती पर सरकार का फोकस है, लेकिन वर्तमान में इसे मात्र 10 प्रतिशत किसानों के द्वारा अपनाया गया है, जबकि जैविक खेती को 30 प्रतिशत किसानों के द्वारा अपनाया गया है।

इन दोंनो में अंतर भी है, लेकिन जैविक व प्राकृतिक खेती मिट्टी से लेकर मानव सेहत के लिए जरुरती है तो किसानों के लिए भी बेहतर है। खेती में बढ़ते रसायन के प्रयोग के कारण मिट्टी में पौषक तत्व कम हो रहे है, तो वहीं मानव को कैंसर, ह्दय-रोग, त्वचा आदि से लेकर अन्य कई प्रकार की बीमारियां हो रही है।

प्रशिक्षण और बेहतर माहौल के साथ किसान को इस ओर आना होगा, जो सभी के लिए जरुरी है। भारत में खेती के लिए तमाम अनुकूलताएं है ओर किसान भी मेहनती है, तो खेती करने का तरीका भी अच्छा है।

जरुरत तो बस एक अच्छे फसल चक्र को अपनाते हुए रसायनों का अधिक उपयोग छोड़ प्राकृतिक खेती को अपनाने की है।

भारत में परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY) के तहत प्राकृतिक खेती को भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति कार्यक्रम (BPKP) के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है।

     बीपीकेपी का उद्देश्य पारंपरिक और स्वदेशी प्रथाओं को बढ़ावा देना है, जो बड़े पैमाने पर ऑन-फार्म बायोमास रीसाइक्लिंग पर आधारित हैं, जिसमें मल्चिंग और गाय के गोबर के उपयोग और मूत्र के मिश्रण तैयार करने पर जोर दिया जाता है।

प्राकृतिक खेती के अंतर्गत मात्र 23.02 मिलियन हेक्टेयर भूमि है जो भारत की कुल कृषि योग्य भूमि (181.95 मिलियन हेक्टेयर) का मात्र 1.27 प्रतिशत है।

वर्तमान में, भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (बीपीकेपी) को आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, केरल, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु सहित देश के आठ राज्यों के द्वारा अपनाया गया है। 

प्राकृतिक खेती के लाभ :

 अ) किसानों की दृष्टि से लाभः

1 भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि होती है।

2 सिंचाई के अंतराल में वृद्धि होती है।

3 रासायनिक खाद पर निर्भरता कम होने से लागत में कमी आती है।

4 फसलों की उत्पादकता में वृद्धि होती है।

5 बाजार में जैविक उत्पादों की मांग बढ़ने से किसानों की आय में भी वृद्धि होती है।

ब) मिट्टी की दृष्टि सेः

1 जैविक खाद के उपयोग करने से भूमि की गुणवत्ता में सुधार होता है।

2 भूमि की जल धारण क्षमता बढ़ती है।

3 भूमि से पानी का वाष्पीकरण कम होता है।

स) पर्यावरण की दृष्टि सेः

1 भूमि के अन्दर अर्थात भूगर्भ जलस्तर में वृद्धि होती है।

2 मिट्टी, खाद्य पदार्थ और जमीन में पानी के माध्यम से होने वाले प्रदूषण में कमी आती है।

प्राकृतिक खेती के सिद्धांतः

प्राकृतिक खेती के मुख्य चार सिद्धांत हैँ-

1 खेतों में कोई जुताई नहीं करना। यानी न तो भूमि की जुताई करना, और न ही मिट्टी पलटना। धरती अपनी जुताई स्वयं स्वाभाविक रूप से पौधों की जड़ों के प्रवेश तथा केंचुओं व छोटे प्राणियों, तथा सूक्ष्म जीवाणुओं के माध्यम से करती रहती है।

2 किसी भी तरह की तैयार खाद या रासायनिक उर्वरकों का उपयोग न किया जाना- इस पद्धति में हरी खाद और गोबर की खाद को ही उपयोग में लाया जाता है।

3 खरपतवार को पूरी तरह समाप्त करने की बजाए नियंत्रित करना- जिसके चलते निंदाई-गुड़ाई न की जाए। न तो हलों से, न शाकनाशियों के प्रयोग द्वारा। खरपतवार मिट्टी को उर्वर बनाने तथा जैव-बिरादरी में संतुलन स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

4 रसायनों पर बिल्कुल निर्भर न होना-

जोतने तथा उर्वरकों के उपयोग जैसी गलत प्रथाओं के कारण जब कमजोर पौधे उगना शुरू हुए, तभी से ही खेतों में बीमारियां तथा कीट-प्रकोप की समस्याएं आनी होनी शुरू हुई। छेड़छाड़ न करने से प्रकृति-संतुलन अपने आप ही बिल्कुल सही रहता है।

दुनिया भर में कई सफल प्राकृतिक खेती के तरीके हैं, लेकिन भारत में, शून्य-बजट प्राकृतिक खेती (ZBNF) मॉडल सबसे अधिक प्रचलन में है। पद्म श्री सुभाष पालेकर ने पहली बार प्राकृतिक और आध्यात्मिक कृषि प्रणाली को शुरू किया था।

प्राकृतिक खेती से संबंधित चुनौतियाँः

1 पैदावार में गिरावटः

कुछ वर्षों के बाद शून्य-बजट प्राकृतिक खेती (ZBNF) के उत्पादन में गिरावट  न हों तथा  फसल उत्पादकता बनी रहे यह पारंपरिक खेती के प्रयोग की सबसे बड़ी चुनौती है।

2 प्राकृतिक संरक्षण के साथ आय बढ़ाने में उपयोगी भूमिकाः

“ZBNF” निश्चित रूप से मृदा की उर्वरता  के साथ पर्यावरण संरक्षण में मदद करती है, जबकि उत्पादकता और किसानों की आय बढ़ाने में इसकी भूमिका अभी तक उतनी स्पष्ट नहीं है।

3 प्राकृतिक आदानों की उपलब्धता का अभावः

किसान अक्सर आसानी से उपलब्ध प्राकृतिक आदानों की कमी का हवाला देते हैं जो रसायन मुक्त कृषि में संक्रमण के लिये एक बाधा के रूप में हैं। प्रत्येक किसान के पास अपना आदान बढ़ाने हेतु समय, धैर्य या श्रम नहीं होता है।

4 पोषक तत्त्वों की कमीः

नेचर सस्टेनेबिलिटी के एक अध्ययन में कहा गया है कि प्राकृतिक आदानों का पोषक मूल्य कम आदान वाले खेतों (कम मात्रा में उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग करने वाले खेतों) में उपयोग किये जाने वाले रसायनिक उर्वरकों के मूल्य के समान है, लेकिन उच्च आदान वाले खेतों की अपेक्षा यह कम है।

इस तरह से पोषक तत्त्वों की कमी बड़े पैमाने पर होती है, तो यह आने वाले वर्षों में उपज में बाधा उत्पन्न कर सकता है, संभावित रूप से खाद्य सुरक्षा चिंताओं का कारण भी बन सकता है।

संक्षेप में कहा जाए तो प्राकृतिक खेती कम लागत में बेहतर उत्पादन वाली विषदृमुक्त खेती है। जिससे न केवल किसानों की आमदनी बढाने में सहायता मिलेगी, बल्कि तमाम प्रकार के रोगों से मुक्ति भी मिलेगी और गौ माता की सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी।

लेखक: डा0 आर एस सेंगर सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर तथा जैव प्रौद्योगिकी विभाग के विभागाध्यक्ष हैं।