शुभ, सुख, समृद्धि और सुबुद्धि का महीना है कार्तिक

                                                              शुभ, सुख, समृद्धि और सुबुद्धि का महीना है कार्तिक

                                                                  

“मान्यता है कि कार्तिक मास में वृन्दा अर्थात तुलसी की पूजा करने से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं”-

     सनातन धर्म में प्रत्येक माह का एक विशेष महत्व होता है, लेकिन कार्तिक मास इन सबमें, सबसे महत्वपूर्ण माह होता है। इस माह में पड़ने वाले त्यौहार धनतेरस, दीपावली, अन्नकूट, देवोत्थान एकादशी, छठ पूजा, तुलसी पूजन और देव दीवाली आदि व्रत एवं त्योहार हमें ईश्वर के विभिन्न स्वरूपों की सुखद अनुभूति कराते हैं। तो वहीं करवा चौथ और भाई दूज के जैसे पर्व हमारे संबंधों में मिठास भी घोलते हैं।

चार माह के विश्राम करने के बाद इसी माह से मांगलिक कार्यों का भी शुभारंभ भी हो जाता है, नए संबंध अंकुरित होते हैं। इस माह में होने वाला ऋतु परिवर्तन स्वास्थ्य के प्रति सचेत भी करता है।

                                                                  

हिंदू पंचांग के आठवें माह कार्तिक का शुभारंभ 29 अक्तूबर से हो गया है, और यह 27 नवंबर तक जारी रहेगा। स्कंद पुराण के अनुसार, जिस तरह वेद के समान कोई शास्त्र, गंगा के समान कोई तीर्थ और सतयुग के समान कोई युग नहीं होता है, ठीक उसी तरह कार्तिक से पवित्र कोई महीना नहीं होता है। कार्तिक माह भगवान विष्णु का ही एक स्वरूप है। इसीलिए इस माह को सबुद्धि, लक्ष्मी और मोक्ष प्रदान कराने वाला महीना माना जाता है।

हिंदू धर्म में कार्तिक मास के दौरान तुलसी पूजा का खास महत्व होता है। वैसे तो तुलसी की पूजा की पूरे वर्षभर की जाती है, लेकिन कहा जाता है कि कार्तिक मास में तुलसी के सामने दीपक जलाने से मनुष्य की सम्पूर्ण मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। मान्यता है कि कई महीने से लंबी निद्रा में सोए भगवान विष्णु इस महीने जागते हैं। कार्तिक के महीने में तुलसी की नियमपूर्वक पूजा करने और दीपक जलाने से साक्षात भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है।

                                                                

पुराणों में कहा गया है, कि जिस घर में तुलसी होती है, उसमें यमदूत प्रवेश नहीं करते। तुलसी का विवाह शालिग्राम जी के साथ हुआ था, इसलिए कहा जाता है कि जो व्यक्ति तुलसी की भक्ति करता है, उसे भगवान की कृपा स्वमेव ही मिल जाती है।

एक कथा के अनुसार, भगवान विष्णु ने तुलसी को वरदान दिया था कि मुझे शालिग्राम के नाम से तुलसी के साथ ही पूजा जाएगा और जो व्यक्ति बिना तुलसी मेरी पूजा करेगा, उसका भोग मैं स्वीकार नहीं करूंगा। शास्त्रों के अनुसार, तुलसी के चारो ओर स्तंभ बनाकर उसे तोरण से सजाना चाहिए। इसके साथ ही इन चारों स्तंभों पर स्वास्तिक का चिह्न भी बनाना चाहिए।

रंगोली से अष्टदल कमल के साथ ही शंख, चक्र और गाय का पैर बनाकर सर्वांग पूजा करनी चाहिए। तुलसी का आवाहन करके धूप, दीप, रोली, सिंदूर, चंदन, नैवेद्य और वस्त्र अर्पित करने चाहिए। तुलसी के चारो ओर दीपक जलाकर उनकी पूजा करनी चाहिए। कार्तिक पूर्णिमा के दिन देवों के देव महादेव ने त्रिपुरासुर नामक राक्षस का वध किया था और भगवान विष्णु ने मत्स्यावतार लिया था।

कार्तिक महीने में भगवान विष्णु मत्स्यावतार लेकर जल में रहते हैं, ऐसे में कार्तिक के पूरे महीने सूर्योदय से पूर्व नदी या तालाब में स्नान कर दान करने से बैकुंठ की प्राप्ति होती है।

कहते हैं, स्वयं देवता भी कार्तिक माह में गंगा में स्नान करने धरती पर आते हैं। वर्ष के सभी 12 महीनों में इसी कार्तिक माह की पूर्णिमा को देवता भी दिवाली मनाते हैं। माना जाता है कि अगर आपके काम अटके हैं, व्यापार में लाभ नहीं हो रहा है तो आप कार्तिक मास में विधि-विधान से नित्य प्रति ब्रह्म मुहूर्त में स्नान कर भगवान विष्णु और तुलसी की पूजा करें, इससे आपके सारे संकट दूर हो सकते हैं।

                                                       

कार्तिक महीने में सूर्योदय से पहले उठकर पवित्र नदी या घर में जल में गंगाजल डालकर स्नान करें। किसी नदी में स्नान भी कर सकते हैं, इससे मोक्ष की प्राप्ति होता है और आपके सम्पूर्ण पाप धुल जाते हैं। यदि आप खाली पेट पानी के साथ तुलसी के कुछ पत्ते खाएं, तो इससे समस्त रोग शांत होते हैं।

कार्तिक माह में आपके द्वारा दिया गया कोई भी दान, जैसे- अन्न, ऊनी वस्त्र, तिल, दीप और आंवला दान करने से आपको हर तरफ से लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है। इस महीने में मूली, कंद, गाजर, शकरकंद खाना सेहत के लिए अच्छा होता है, इनका सेवन करने से व्यक्ति निरोगी रहता है। कार्तिक के महीने में शरद ऋतु शुरू होती है।

अतः दो बदलते मौसम के बीच का समय होने से इन दिनों सेहत संबंधी परेशानियां भी उभरने लगती हैं। ऐसे में कार्तिक महीने के दौरान बैंगन, मट्ठा, करेला, दही, जीरा, फलियां और दालों आदि का सेवन नहीं करना चाहिए।

कार्तिक के महीने में भगवान श्रीहरि जल में निवास करते हैं, इसलिए भूलकर भी किसी प्रकार की तामसिक चीजें ग्रहण नही करनी चाहिए।

                                                     

“अथ योऽयमूर्ध्वमुत्क्रामतीत्येष वाव स प्राणोऽथ योयमावञ्च संक्रामत्वेष वाव सोऽपानोऽथ योयस्थविष्ठमन्नधातुमपाने स्थापयत्यनिष्ठ चाङ्गेऽङ्गेसमं नयत्येष वाव स समानोऽथ योऽयं पीताशितमुद्गिरतिनिगिरतीति चौष वाय स उदानोऽथ येनैताः सिरा अनुव्याप्ता एष वाव स व्यानः।“

“अथोपांशुरन्तर्याम्यभिभवत्यन्तर्याममुपांशुमेतय रन्तराले चौष्ण्यं मासवदौष्ण्य स पुरुषोऽथ यः पुरुषः सोऽग्निवैश्वानरोऽप्यन्यत्राप्युक्तमयमग्निर्वैश्व रोयोऽयमनन्तः पुरुषो येनेदमन्न पच्यते यदिदमद्यतेतस्यैष घोषो भवति यदेतत्कर्णावपिधाय शृणोति स यदोत्क्रमिष्यन्भवति नैनं घोषं श्रृणोति स्रोत: मैत्रायण्युपनिषत

प्राण के 5 भेदों का व्याख्यान

संकेतः प्रस्तुत मंत्र मैत्रायण्युपनिषत से लिया गया है, जिसमें राजा बृहद्रथ को शाकायन्य मुनि ने भगवान मैत्रेय द्वारा कहे गए प्राणों के गेंद, आत्मा और भूतात्मा का भेद तथा पंचवायु (प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान) के कार्य के विषय बताया है।

मंत्रार्थः जो ऊपर गति करता है, वह प्राण है जो नीचे गति करता है, वह अपान है जो अतिशय स्थूल अन्नधातु (मल) को गुदा स्थान में पहुंचाता है और अति सूक्ष्म धातु को प्रत्येक अंग में समान रूप से ले जाता है. वह समान है। जो यह वायु खाए-पीए हुए पदार्थ को उगलता या निगलता है, वह उदान कहलाता है। जिसके द्वारा ये शिराए घिरी रहती हैं, ऐसी जो वायु है, वह य्यान कहलाती है जो नजदीक में अंतर्यामी है, वह और जो एक प्रहर में पराभव कर सकता है, वह इन दोनों के बीच जो ग्रीष्म ऋतु जैसी उष्णता है, वह पुरुष ही वैश्वानर अग्नि है, जिसकी वजह से अन्न पचता है। जब कुछ खाया जाता है, तब उसकी (वैश्वानर अग्नि की) यह आवाज होती है। कान बंद करने पर जो आवाज सुनाई देती है, वह उसकी आवाज है। जब शरीर से प्राण निकलने वाले होते हैं, तब यह आवाज नहीं सुनाई देती।

तात्पर्यः जब प्रजापति में स्वयं को एक से अनेक करने का भाव प्रकट हुआ तो उन्होंने आत्मा का ध्यान करके तरह-तरह की प्रजाएं उत्पन्न की, परंतु अपने द्वारा उत्पन्न की गई प्रजाओं को प्राणविहीन और खंभों की भांति जड़ देखा। वह उन्हें पसंद न आया तो उन्होंने सोचा कि इनको सचेष्ट करने के लिए मैं इनमें प्रविष्ट हो जाऊं।

ऐसा सोचकर उन्होंने स्वयं का स्वनिर्मित उन प्रजाओं में प्रवेश कराया, पर उन्होंने पांच रूपों में अपना विभाजन करके प्रवेश किया, इसलिए एक ही प्राण के प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान ऐसे 5 भेद हुए, जिन्हें पञ्चपण कहा गया।