एक विश्वव्यापि समस्या: कुपोषण

                                                                             एक विश्वव्यापि समस्या: कुपोषण

                                                                                                                                 डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

                                                                              

    सम्पूर्ण विश्व की जनसंख्या वर्तमान समय में अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकता अर्थात भोजन की सुविधा को जुटा पाने में समर्थ नही है, जिसमें से 75 प्रतिशत जनसंख्या दक्षिण ऐशिया तथा सहारा रेगिस्तान से जुड़े अफ्रीका में स्थित गाँवों में निवास करती है, और इस वैश्विक जनसंख्या का लगभग हर तीसरा आदमी कुपोषण का शिकार है, जो कि एशिया पेसीफिक में और 44 प्रतिशत भारत एवं चीन में निवस करते हैं। भारत, पाकिस्तान और बाँग्लादेश की 23 प्रतिशत जनसंख्या कुपोषण की शिकार हैं, जबकि यह औसत दक्षिण पूर्व एशिया में क्रमशः 13 प्रतिशत एवं 12 प्रतिशत हैं।

    सामान्य रूप से भरपेट भोजन का उपलब्ध नही हो पानी ही कुपोषण कहलाता है, तो वहीं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा लाए तो संतुलित भोजन का अभाव ही कुपोषण कहलाता है। संतुलित भोजन से तात्पर्य आयु, कार्य की प्रकृति आदि के अनुसार शरीर को प्राप्त होने वाले आवश्यक तत्वों की उपलब्धता से है। वैज्ञानिक मानकों के अनुसार शरीर को प्राप्त होने वाले सभी आवश्यक तत्वों का अपेक्षित अनुपात में होना आवश्यक है।

                                                                     

    मानव को प्राप्त होने वाले समस्त भोज्य पदार्थों का आधार प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से कृषि ही है। मानव, अपने जीवन को संतुलित आहार को ग्रहण करके ही स्वस्थ्य एवं सुखपूर्वक व्यतीत कर सकता है, और संतुलित आहार के मुख्य रूप् से तीन आधार बताए गए हैंः पर्याप्त मात्रा में भोजन की उपलब्धता, भोजन की प्राप्ति के लिए आर्थिक स्थिति और सर्वोपयुक्त उपयोग।

इन तीनों कारकों में से किसी एक के अभाव में कुपोषण की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

महिलाओं की भूमिका होती है विशेष

                                                             

    कुपोषण की शिकार महिलाएं अपेक्षाकृत अधिक होती हैं, जिनके कंधों पर आने वाली पीढ़ियों के सृजन का उत्तरदायित्व होता है। कुपोषण की शिकार महिलाओं की होने वाली संतान भी कुपोषण से ग्रस्त ही होगी। इस रीति से ही कुपोषण का प्रसार पीढ़ी दर पीढ़ी होता रहता है। विकासशील देशो की महिलाओं के बीच शिक्षा का प्रसार, तकनीकी सहायता और श्रम के अनुरूप वेतन पुरूषों की अपेक्षा कम है।

इसी कारण महिलाओं के द्वारा कृषि भूमि का अधिपत्य/स्वामित्व को कायम रख पाना संभव नहीं होता है और वे भूस्वामी होने की स्थिति में भी भूमिहीन श्रमिक ही बनी रहती है। दक्षिणपूर्व एशिया में लड़कियों की शादी में दहेज कुप्रथा के प्रचलन के कारण उनकी शिक्षा एवं पोषण पर अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया जाता है, जिसके कारण लड़कियों की मृत्युदर अत्यधिक है जो कि लिंगानुपात को 1000 की तुलना में 950 पर कायम करती है। उल्लेखनीय है कि उक्त देशों में अन्न उत्पादन, बिक्री तथा की खाना पकाने आदि में महिलाओं का विशेष योगदान है।

                                                              

विकासशील देशों में 1995 तक प्रत्येक तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार था। महिलाओं की शारीरिक शारीरिक आवश्यकताओं के चलते उनमें रक्त की कमी के कारण अर्थात रक्ताल्पता (एनीमिया) हो जाना एक आम बात है। इस प्रकार की रक्ताल्पता से ग्रस्त दम्पति की सतानों को भी उनके जीवन में कुछ समस्याओं सामना करना पड़ता है।

जैसे परिपक्वता अवधि से पूर्व जन्म होना. उनका वजन कम होता है, नवजात शिशुओं के मरने की आशंका अधिक होती है, ऐसे शिशुओं का स्वास्थ्य जीवन भर ठीक नहीं रहता है, और अविकसित/अल्पविकसित होने के (कारण सीखने की क्षमता) का अभाव होता है. उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है, विटामिन की कमी के कारण रतौन्धी/अंधापन हो सकता है, पर्याप्त शारीरिक एवं मानसिक विकास सम्भव नहीं हो सकता है आदि।

कुपोषण का कारण

कुपोषण एक विश्वव्यापी समस्या है, जिसका मूल कारण गरीबी है। इसके अतिरिक्त समय एवं स्थान के अनुसार समस्या के कुछ आंतरिक कारण भी है जो कि इस प्रकार हैं-

                                                                   

  • गरीबी: गरीबी सभी समस्याओं जननी़ है। यद्यपि ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2020 तक अधिकांश जनसंख्या का शहरीकरण हो जाएगा, परन्तु फिर भी गरीबी की सीधी मार सूखाग्रस्त क्षेत्र के किसानों, चरवाहों, दस्तकारो, मछुआरों, भूमिहीन श्रमिको एवं शरणार्थियों पर विशेष रूप से पड़ती है। चूँकि उक्त लोगों को भरपेट भोजन भी नहीं मिल पाता हैं तो ऐसे में सतुलित आहार का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। परिणामस्वरूप कुपोषण व्याप्त होता है।
  • जलवायु: विषम जलवायु के कारण कृषि पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे उत्पादन न होने पर कृषकों को इस भीषण समस्या का सामना करना पड़ता है।
  • जनसंख्या घनत्व: जिन देशों की जनसंख्या प्रति वर्ग क्षेत्रफल अधिक होती है वहाँ जनसंख्या का अधिकांश भाग मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति करने में असमर्थ रहता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार इन देशों की 80 प्रतिशत जनसंख्या लौह तत्व की कमी से ग्रसित है, जिसके कारण विकाशशील देशों की 50 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया रोग से पीड़ित होती हैं।
  • सत्ता में भागीदारी: अधिकतर सत्तसीन वर्ग में महिला एवं श्रमिकों की भागीदारी का अभाव रहता है। इसलिए शासन के माध्यम से इस वर्ग के लिए कोई भी प्रभावी योजना तैयार नही की जाती है, जिसके चलते इस वर्ग में प्रायः असुरक्षा की भावना घर कर जाती है।
  • हिसंक मतभेदः विस्थापित बाह्य मानवीय सहायता पर निर्भर करते हैं और हिंसक घटनाओं से भुखमरी फैलती है, और कई बार तो भुखमरी ही हिसंा का कारण बन जाती है। संसाधनों की कमी तथा आर्थिक अन्याय की सीमा समाप्त हो जाने के बाद आपस में झगड़े होते हैं। कनाडा तथा मध्य अमेरिका की वर्ष 1970, 1980 तथा 1984 की घटनाएं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
  • भेदभाव: सूडान के सत्तासीन अरब मुसलमानों ने पिछले 20 वर्षों से अफ्रीकन ईसाइयों के साथ रोजगार भेदभाव करने से उनमें कुपोषण व्याप्त हो चुका है, और इसीके कारण वहाँ की कुपोषण की दर विश्व में सबसे अधिक है।
  • जनसंख्या वृद्वि दरः वष 2020 तक विश्व की जनसंख्या में 25 प्रतिशत से अधिक की वृद्वि होने का अनुमान है। भारत, चीन, पाकिस्तान तथा नाईजीरिया के द्वारा ही इस वृद्वि में आधा हिस्सा होगा और केवल भारत और चीन ही इस वृद्वि में 1/3 भाग वृद्वि के जिम्मेदार देश होंगे और पर्याप्त पोषण की राह कठिन होगी।
  • पर्यावरण प्रदूषणः विकसित देशों में प्रतिबन्धित कीटनाशकों, उर्वरकों, वनों की कटाई तथा सिंचाई के साधनों का दुरूप्योग करने के कारण भूमि की उर्वरा-शक्ति में कमी होने के साथ अन्य विभिन्न प्रकार के परिवर्तन आए हैं। ग्रीन हाउस गैसों के असंतुलन पर किए गए एक अध्ययन के द्वारा वर्ल्ड रिसोर्स संस्थान के माध्यम से बताया गया कि भूमि के अन्दर निरन्तर कम हो रही कार्बनिक पदार्थ की मात्रा से भूमि की उर्वरा-शक्ति में कमी और उसकी जल-धारण क्षमता में कमी आती जा रही है, जो किसानों की आर्थिक क्षति के लिए उत्तरदायी होता है और यही स्थिति अप्रत्यक्ष रूप से कुपोषण से जुड़ी होती है।

भूमण्ड़लीकरण के चलते देश के घरेलू उद्योगों के बन्द हो जाने के कारण उनसे जुड़ी जनता का एक बड़ा भाग बेरोजगार हो गया है और यह भाग भोजन तक के लिए तरसता है। औद्योगिक देशों से प्राप्त होने वाली सहायता 17 प्रतिशत तक कम हो गई है। वष 1992 से 1997 के अन्तराल में कृषि क्षेत्र की सहायता राशि 25 प्रतिशत से कम होकर मात्र 14 प्रतिशत ही रह गई है। कृषि क्षेत्र में प्रदान की जाने वाली सहायता से गरीबी ही दूर नही।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।