पचौली की व्यवसायिक खेती

                                                                       पचौली की व्यवसायिक खेती

                                                                                                                                          डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

                                                                   

पचौली (पोगेस्टिमान कैब्लिन) तमियेसी कुल का एक शाकीय पौधा है जिसकी छाया में सुखायी गई पत्तियों के माध्यम से संगध तेल की प्राप्ति होती हैं। तीव्र भूगंध वाला पचौली का संगध तेल प्रबल स्थायित्व गुण वाला होता है परन्तु मुख्य रूप सुगंध के स्रोत स्वरूप इसका उपयेग दुर्लभतः होता है।

व्यावसायिक उत्पादन हेतु उपयुक्त क्षेत्र

                                                                    

पचौली विभिन्न प्रकार की भूमि एवं जलवायु में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है, परन्तु इसके व्यवसायिक उत्पादन के लिए निर्दिष्ट क्षेत्र निम्नलिखित प्रकार से वर्णित किया गया हैं-

1.   आर्द्र एवं नर्म जलवायु वाले छायादार, जंगल, बगीचे जिनमें 50% तक छाया उपलब्ध हो, यद्यपि इसको खुले स्थान में भी अच्छी प्रकार से उगाया जा सकता है।

2.   खुले स्थानों में (2 कटाईयों तक सीमित)।

3.   उचित सिंचाई एवं उचित जल निकास प्रबन्ध वाले ढलानों पर भी इसकी खेती की जा सकती है।

4.   पशु जन्य हानि प्रभावित क्षेत्रों के अन्तर्गत इसकी खेती करना अत्यधिक उपयुक्त होता हैं।

भूमि एवं जलवायु

                                                         

उच्च औसत तापक्रम (25-35°से.) और आर्द्रता वाली दशाओं में पचौली बहुत अच्छी प्रकार से उगती है। वर्षा आधारित कृषि के 2000-3000 मिमी. की वार्षिक वर्षा, जो पूरे वर्ष में समान रूप से वितरित हो, इसकी खेती के लिए आवश्यक होती है।

पौधशाला हेतु पौध तैयार करना एवं पौध रोपण

पचौली में सामान्य दशाओं में अमुमन बीज नहीं बनता। अतः इसका प्रवर्धन कायिक रूप से तने की कटिंग्स द्वारा किया जाता है। पौध तैयार करने हेतु नसरी का चुनाव अति जलवायु वाली दशाओं से बचने के लिए छायादार स्थानों में करते हैं। कटिंग्स, सदैव स्वस्थ्य एवं उपयुक्त वृद्धि वाले पौधों से प्रातः या फिर सायंकाल में लेते हैं, जिससे निर्जलीकरण से होने वाली मृत्युदर में कमी की जा सके। तीन से चार गाँठों वाली 10-12 सेमी. लम्बी कटिंग्स प्रवर्धन के लिए अत्यधिक उपयुक्त होती है।

इन कटिंग्स की ऊपर की 3-4 पत्तियों को छोड़कर निचली सारी पत्तियां या शाखायें हटा कर नर्सरी (पौधशाला) में लगानी चाहिए। इन कटिंग्स में 30-35 दिन में जड़े आ जाती है। एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 40,000 जड़ युक्त पौधों की आवश्यकता पड़ती है। रोपाई पूरे वर्ष भर, अत्यधिक ताप, सर्दी और वर्षा वाले दिनों को छोड़कर, कभी भी की जा सकती है। उच्च गुणवत्ता वाली पचौली की पौध सीमैप में उपलब्ध है। यहाँ से पौध प्राप्त कर किसान भाई पचौली का व्यवसायिक उत्पादन आरम्भ कर सकते हैं।

पोषण प्रबन्धन

                                                      

यद्यपि ऊर्वरकों की मात्रा भूमि की ऊर्वरता पर निर्भर करती है, परन्तु फिर भी पचौली में नत्रजन और पोटाश की अधिक मात्रा मेंी आवश्यकता पड़ती है। सामान्य उर्वरता वाली दशाओं में दी जाने वाली मात्राये निम्न तालिका में दर्शायी गयी है-

संस्तुत पोषण तत्व

मात्रा (किग्रा./हे0)

स्रोत उर्वरक

उर्वरक दी जाने की प्रकृति

फॉस्फोरस

50 कि.ग्रा. (313 कि.ग्रा. एस एस पी या 108 कि.ग्रा. डीएपी)

एस एस पी या डी ए पी

प्रारम्भिक (अन्तिम जुताई के समय)

पोटाश

60 कि.ग्रा. (100 कि.ग्रा. म्यूरेट ऑफ पोटाश)

म्यूरेट ऑफ पोटाश

प्रारम्भिक (अन्तिम जुताई के समय)

नत्रजन

50 कि.ग्रा./हे./कटाई

 (111 कि.ग्रा. यूरिया) अथवा 150 कि.ग्रा./हे./वर्ष (333 कि.ग्रा. यूरिया) यूरिया

तीन बराबर भागों में (50 कि.ग्रा./हे.) की दर से प्रथम  प्रारम्भिक (अन्तिम जुताई के साथ) द्वितीय रोपाई के एक माह बाद और तृतीय द्वितीय के एक माह के बाद।

            

कटाई

                                                      

पचौली एक बहुवर्षीय पौधा होता है, अतः इसकी कई बार कटाई की जाती है। प्रथम कटाई के लिए फसल को तैयार होने में 5-6 महीने का समय लग जाता हैं। कटाई तेज हांसिये के द्वारा नीचे पौधे के वाले के हिस्सों को छोड़ते हुए प्रातः अथवा सायंकाल में की जाती है। तनों में भंगुरता अधिक होने के कारण शाखाओं को सम्मावित क्षति से बचाना चाहिए। ज्यादातर हरे और शाकीय भाग की कटाई करनी चाहिए जिसमें कम से कम 60-70% पत्तियाँ हो और तना कम से कम।

इसके बाद वाली कटाई प्रत्येक 3 माह के अन्तराल पर की जाती है, परन्तु उत्तर भारत के मैदानी भागों में तीव्र सर्दिया इस अंतराल के समय में वृद्धि करती है। लगातार तीन कटाई करने के पश्चात् उत्पादन और गुणवत्ता दोनों में ही कमी आने लगती है। स्थिति क अनुसार पचौली की फसल की उत्पादकता और संख्या के आधार पर 2 से 3 वर्ष तक सतत् बनाये रखा जा सकता है। दक्षिण भारत की उष्ण आर्द्र जलवायु में पचौली 2 वर्ष तक छाया या खुले स्थानों में रखी जा सकती है परन्तु उपोष्णीय उत्तरी भारत में केवल 2 से 3 कटाई तक ही इसको सीमित रखना उचित रहता है।

बागानों में पचीली का समन्वय वर्धक फसल के रूप में

                                                          

पचौली एक छाया प्रिय फसल है अतः बागानों में वृक्षों की पंक्तियों के मध्य वाले छायादार भागों में इसे सफलता के साथ उगाया जा सकता है। पापुलर, पपीता, आम, आंवला, नारियल और सुपारी इत्यादि के बागानों में पचौली को अन्तः फसल के रूप में उचित प्रकार से समन्वित किया जा सकता है। पश्चिमी घाट के विभिन्न प्रकार के बागानों में प्रत्येक इकाई भूमि पर अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए पचौली का एक अन्तः फसल के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।

आसवन

पचौली की सूखी हुई पत्तियों और नर्म शाखाओं के वाष्प आसवन से इसका सुगंधित तेल प्राप्त होता है। हवा के द्वारा छाया में सूखायी हुई पत्तियों को आसवन इकाई में भरकर 6-8 घण्टे तक सतत् वाष्प आसवन के माध्यम से ही पचौली का सम्पूर्ण आसवन होता है।

ऊपज

                                                        

पचौली में शाक उत्पादन क्षमता कई प्रभावकारी कारकों पर निर्भर करती है परन्तु उनमें से जलवायु जिसमें वह उगायी गयी है सबसे प्रमुख होता है। उचित जलवायु वाली दशाओं में इसकी 4 कटाई से करीब 20-25 टन/हेक्टेयर शाक पैदा होता है जबकि उत्तर भारत की प्रबल जलवायु दशाओं में 2-3 कटाई से 12-15 टन / है. शाक पैदा होता है। तटीय और उत्तर पूर्व क्षेत्रों में तेल उत्पादन 80-100 किग्रा./हे, मध्य क्षेत्र में 60-80 किग्रा./हे. और उत्तर भारत क्षेत्र में 50-60 किग्रा. है. तक प्राप्त हो जाता है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षणए सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।