मोटे अनाज को बढ़ावा देने के साथ नुकसान पर भी करना होगा विचार

                                          मोटे अनाज को बढ़ावा देने के साथ नुकसान पर भी करना होगा विचार

                                                                                                         प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, डॉ0 शालिनी गुप्ता एवं मुकेश शर्मा

                                                  

वर्ष 2023 को पूरे विश्व में मोटे अनाज वर्ष के रूप में मनाने हेतु समर्पित किया गया है। मोटे अनाजों में ज्वार, बाजरा, रागी अथवा मड़वा, जगोरा बेरी, कंगनी, कुटकी, कोंदो, चना और जौ आदि अनाज आते हैं। पिछली सदी में 60 के दशक में देश में मिलेट्स का उत्पादन कम होना शुरू हुआ और इनकी जगह हम भारतीयों की भोजन थालिय में गेहूं व चावल सजा दिए गए।

हरित क्रांति के नाम पर भारत के परंपरागत अनाज को काफी हद तक हटा दिया गया और गेहूं को बढ़ावा दिया गया जो एक प्रकार का मैदा ही है। मोटा अनाज अर्थात श्री अन्न को खाना बंद कर देने से कई प्रकार के रोगों के साथ ही देश में कुपोषण भी लगातार बढ़ रहा है।

मोटे अनाज की फसल को उगाने का एक फायदा तो यह है कि इनकी खेती में ज्यादा पानी की जरूरत नहीं पड़ती है और ज्यादा बारिश होने पर इन्हें बहुत अधिक नुकसान भी नहीं पहुँचता है। मोटे अनाज की फैसले खराब हो जाने की स्थिति में भी पशुओं के चारे के काम आ सकती है। बाजरा और ज्वार जैसी फसलें तो कम मेहनत में तैयार हो जाती है।

इसके साथ ही ऐसी फसलों में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग की भी जरूरत भी नहीं होती है, क्योंकि इन फसलों के अवशेष पशुओं के चारे के काम आते हैं इसलिए इनको धान की पराली की तरह जलाना नहीं पड़ता है और पर्यावरण प्रदूषण से भी बचा जा सकता है। इसलिए गेहूं और चावल जैसे अनाज के विकल्प में मोटे अनाज को बढ़ावा देना उचित एवं समयानुकूल ही है।

                                                             

वर्तमान में मोटे अनाज की माँग पूरे विश्व में ही बड़ी तेजी से बढ़ी है और आज के समय में इसकी जरूरत भी महसूस की जा रही है। इनकी खेती मूलतः छोटे और सीमांत किसानों के द्वारा की जाती है और उनके वितरण प्रणाली में भी सुधार हो रहा है। अतः यह कहना गलत नहीं है कि मोटे अनाज भारत की पोषण सुरक्षा के लिए काफी अहम है। इसीलिए मोटे अनाजों को सुपर फूड का दर्जा दिया गया है, क्योंकि इनमें कैल्शियम, आयरन और फाइबर जैसे तमाम पोषक तत्व उपलब्ध होते हैं जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए काफी महत्वपूर्ण है।

मोटे अनाज को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयास किये जा रहे हैं। विदेशी मेहमानों को इन अनाजों से बने पकवान परोशे जा रहे हैं, और इसी कारण इन भारतीय अनाजों की अंतरराष्ट्रीय ब्रांडिंग भी हो रही है। सरकार ने मोटे अनाजों से बने उत्पादों को नाश्ते और भोजन में शामिल करने की योजना भी बनाई है। केवल इतना ही नहीं मोटे अनाज के वैश्विक निर्यात को बढ़ावा देने के लिए भी कई कदम उठाए जा रहे हैं। इससे देश में एक महत्वपूर्ण आर्थिक स्रोत की भी शुरुआत हो सकती है। ऐसे में यह विश्वास गलत नहीं है कि मोटे अनाज हमारे देश के स्वास्थ्य और आर्थिक विकास के भाग भी बन सकते हैं और इससे काफी किसानों को फायदा भी हो सकता है।

मोटे अनाज से क्या हो सकता है नुकसान

                                                                   

पहले हमारे भोजन की थाली में 10 से लेकर 15 प्रकार के अनाज शामिल होते थे, ऐसा इसलिए क्योंकि हम अपने खेतों में वही अनाज की फसलें उगाते थे, जो कि खाते थे, चूँकि उस समय हमारी समूची खेती वर्षा पर ही आधारित हुआ करती थी और जिसके अन्तर्गत औसतन चार वर्ष में 1 वर्ष सूखे का होता था। मगर आज सिंचाई के संसाधनों के कारण हम वही अनाज उगते हैं जो बाजार मांगता है, और जिसकी बाजार में अच्छी कीमत मिल सकती है और जो आसानी से बेचा जा सकता है। परन्तु इसके लिए हमें सोचना होगा कि यदि बाजार ने सोयाबीन की मांग कर दी तो क्या किसान अपने उन बड़े-बड़े बांधों को तोड़कर सोयाबीन बो देता है।

जो तालाब कभी, सदैव ही भरे रहते थे और बाद में उन में या तो गेहूं चना बोया जाता था या अगर सुखे का सामना हो रहा है और उसे वर्ष सूखा पड़ रहा है तो समूचे बांध में कौंडू बो दिया जाता था। पहले अनाज में ऐसा विभाजन नहीं था जैसा कि आज मोटे अनाज आदि में है, विभाजन था तो सिर्फ यह की कुछ खाने में कोमल थे तो कुछ ज्यादा खुरदरें।

वर्षा पर आधारित खेती में सुखे के बाद किसानों को तुरंत राहत देने वाले अनाज की आवश्यकता महसूस होती थी। ऐसी स्थिति में मात्र डेढ़ माह में पकाने वाले कुटकी, लव और जौ आदि महत्वपूर्ण अनाज हुआ करते थे। अस्तु उस समय इन अनाजों को गरीबों का भौजन कह कर पुकारा जाता था। इसका एक परोक्ष लाभ यह भी था कि इन मोटे अनाजों को खाने वाले हमारे ग्रामीण कृषि आधारित समाज में मोटापा, रक्तचाप और मधुमेह के जैसी बीमारियां नहीं होती थी और यदि वंशानुगत कर्म से यदि किसी को ही भी हो गई तो यह उतना गम्भीर असर नहीं डालती थी, क्योंकि इन अनाजों में औषधीय गुण मौजूद होते थे।

                                                                       

परन्तु जब से हमारा भोजन मात्र गेहूँ और चावल के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह गया है तो आज के जमाने में लगभग हर तीसरा व्यक्ति इन बीमारियों से पीड़ित हो चुका है और अब भारत मधुमेह की वैश्विक राजधानी बनने जा रहा है।

हमारी सरकार ने वर्ष 2023 में मोटा अनाज को बढ़ावा देने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं और इस पर कई कार्यक्रम आयोजित करके इनको बढ़ावा भी दिया जा रहा है। परन्तु पहले यह भी सोचना होगा कि आखिर यह मोटे अनाज समाप्त क्यों हो गया थे। चूँकि पहले के समय में इन अनाजों को बोना और खाना हमारी मजबूरी हुआ करती थी, लेकिन आज यह स्थिति नहीं है।

आज किसी को कोई डिस्काउंट करने वाले विश्वास नहीं है, क्योंकि यह भावना बेहतर है कि जो जोखिम और घाटा उठाते रहे उनके भी मुंह पेट होते हैं, बाल बच्चे होते हैं, और भरा पूरा परिवार भी होता है और इसके साथ ही प्रतिष्ठा रक्षक अनिवार्यता भी होती है। इसलिए जो उन्हें औषधि के रूप में खाना चाहे तो वह उनका उचित मूल्य भी चुकाएगा। वर्तमान भाव में इन अनाजों की खेती नहीं हो सकती है।

सरकार के पास बड़े-बड़े कृषि क्षेत्र हैं अतः पहले वहां कृषि विभाग इनकी खेती पर आने वाले व्यय का अध्ययन करें ले और उसके अनुसार इनका मूल्य रखी जाए। तभी इन अनाजों की खेती बढ़ सकेगी क्योंकि जब तक किसानों के पास सही से आय व्यय का व्यौरा नहीं पहुंचेगा तब तक उसको  लाभकारी नहीं समझेंगे और  जब तक वह इस तरफ ध्यान वह नहीं देंगे। अभी मोटे अनाज के विभिन्न फसलों पर शोध की आवश्यकता है उसके उपरांत लेखा-जोखा तैयार करके किसानों तक पहुंचाना तभी किसान मोटे अनाजों या सुपर फूड की खेती करने के लिए बड़े पैमाने पर कदम उठाएंगे।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।