खाद्यान्नों में बढ़ोत्तरी करने के प्रमुख सूत्र

                                                         खाद्यान्नों में बढ़ोत्तरी करने के प्रमुख सूत्र

                                                                                                                   डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

                                                        

    वर्ष 1968-70 के दौरान भारत में हरित क्राँति के आगमन के पश्चात् हम खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर होते चले गये। धान एवं गेहूँ की उन्नतशील प्रजातियों का विकास किया गया और अच्छे बीजों की उपलब्धता, पर्याप्त सिेचई प्रबन्धन एवं रासायनिक उर्वरकों के चलते देश में हरित काँति का सपना साकार हुआ। हालांकि भारतीय कृषि में पिछले कुछ 20 वर्षों से खाद्यान्न उत्पादन के मामले में काफी बढ़ोत्तरी की है, परन्तु इस वृद्वि को आशा के अनुरूप नही कहा जा सकता।

वर्ष 2000-2001 में भारत का खाद्यान्न उत्पादन 196.13 मिलियन टन रहा जो कि निर्धारित लक्ष्य से 212 मिलियन टन से 16 मिलियन टन कम है। जबकि इसके विपरीत वर्ष 1999-2000 208.87 मिलियन टन का उत्पदन हुआ जो कि हमारे उत्पादन के दौरान अभी तक का रिकार्ड है।

गत पाँच वर्षों में देश का उत्पादन 210-212 मिलियन टन के मध्य ही स्थिर है। देश की निरंतर बढ़ती जनसंख्या एक सर्वेक्षण के आँकड़ों के तहत वर्तमान वृद्वि दर से वर्ष 2020 तक 1.3 मिलियन हो जाने का अनुमान लगया जा रहा है, जिसकी प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 2200 केलोरीज की आवष्यकता को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2010 में 266.4 मिलियन टन तथा वर्ष 2020 में लगभग 343 मिलियन टन खाद्यान्न की आवष्यकता होगी जिसके लिए  कृषि विकास की दर जो कि वर्तमान में लगभग 2 प्रतिशत है को कम से कम 4 प्रतिशत तक पहुँचाने की आवश्यकता होगी।  यदि हम ऐसा करने सफल नही हो पाते हैं तो तो हमें आने वाले समय में अपनी जनता की उदरपूर्ति हेतु एक बार फिर से विदेशों के सामने हाथ फैलाने पड़ सकते हैं। वस्तुतः वर्तमान में भी हम प्रति हैक्टेयर उपज के हिसाब से अन्य राष्ट्रों से काफी पीछे है।

                                                        

सारणी 1: भारत तथा अमेरिका का उत्पादन स्तर

फसल  

यूएसए

भारत

खाद्यान्न

धान

गेहूँ

दलहन

मूँगफली

कपास

5,299

6,622

2,907

1,963

2,828

1,937

2,232

2,915

2,583

587

988

931

    भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्ययन जो कि राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न फसलों पर किये गये प्रदर्शनों की पैदावार पर आधारित हैं, के अनुसार हमारा राष्ट्रीय उत्पादन हमारी क्षमता का मात्र 35 प्रतिशत ही प्राप्त हो पर रहा है। जिसे अभी 2.5 गुना तक बढ़ाया जा सकता है। अखिल भारतीय स्तर पर अपनाई जा रही फसल प्रणाली को सारणी-2 में दशार्या गया है।

सारणी 2: अखिल भारतीय स्तर पर अपनायी जा रही फसल प्रणालीँ

फसल

क्षेत्रफल (हजार हेक्टेयर)

सहफसली में हिस्सा

खाद्यान्न

तिलहन

दलहन

रेशें वाली फसलें

सब्जियाँ

गन्ना

तम्बाकू

अन्य फसलें

कुल सकल फसली क्षेत्र

101,314

26,650

23,399

9,060

4,144

4,112

447

10,869

185,487 

 

54.6

14.4

12.6

4.9

2.3

2.21

0.2

5.8

100

 

    हम सभी इस तथ्य को मानते हैं कि इस उत्पादन की बढ़ोत्तरी का 50 प्रतिशत श्रेय वर्तमान में किये जा रहे उर्वरकों के उपयोग को जाता है। अतः इस प्रकार कहा जा सकता है कि भारत जैसे विकासशील देश में उत्पादन में बढ़ोत्तरी के लिए उर्वरकों का उपयोग निःतांत आवश्यक है। जबकि वर्तमान में उर्वरकों की खपत प्रति हेक्टेयर 98 कि.ग्रा. है, जो कि हमारे पड़ोसी मुल्कों पाकिस्तान एवं चीन आदि से भी काफी कम है।

वर्तमान में हम लगभग 18 मिलियन टन पोषक तत्व मृदा में प्रदान कर रहे हैं जबकि फसलों के द्वारा ग्रहण किये जाने वालें तत्वों की भूगर्भ के सुरक्षित भण्ड़ारों में कमी होती जा रही है। यदि उर्वरकों के खपत की यही दर जारी रही तो उस स्थिती में वर्ष 2020 की अवधि के दौरान में पोशक तत्वों की कमी का स्तर 7.86 मिलियन टन रहेगा।

                                                

यदि हम वर्तमान में उर्वरक प्रदय किये जा रहे, की दर को जो कि पूर्व में सिफारिश के अनुरूप पहले से ही काफी कम है, को यदि और कम कर देंगें तो यह स्थिति मृदा की उर्वरता एवं उत्पादकता की दृष्टि से ओर अधिक भयानक रूप ग्रहण कर सकती है जो किसी भी प्रकार से न तो देष के हित में होगा और न ही देश की गरीब जनता के हित में होगा जिसे वर्तमान में कम से कम दो वक्त भोजन तो उपलब्ध हो रहा है।

हमारे राजकीय गोदामों में 60 मिलियन टन खाद्यान्न का सुरक्षित भण्ड़ार है, लेकिन इसके सापेक्ष हमारी क्रय-शक्ति कम होने के कारण हम खरीदनें में असमर्थ हैं। हालांकि एक वस्तुस्थिति यह भी है कि मात्र एक वर्ष के दौरान अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाने के कारण हमारी अर्थव्यवस्था चरमरा जाती है।

उत्पादन की समन्वित तकनीकः- यदि खेत पर गोबर की खाद कम्पोस्ट कम्पोस्ट खाद उपलब्ध नही है तो उस स्थिति में इन खादों को न्यूनतम व्यय में बनाने की तकनीक जैसे नाडेप विधि आदि को विकसित किया जा चुका है। जरवाणु खाद (कल्चर) वर्तमान में हर समय उपलब्ध है, जो बहुत ही किफायती होते हैं। रासायनिक उर्वरकों का उपयोग वर्तमान समय में उगाई जा रही फसलों की प्रजातियों की बढ़ती हुई पोषक तत्वों की मांग के अनुरूप बहुत ही आवश्यक है।

हालांकि कि हमें उनका उपयोग सही मात्रा एवं संतुलित अनुपात में ही करना चाहिए। रासायनिक उर्वरकों के सन्तुलित उपयोग को सुनिश्चित् करने के लिए उनकों प्रदान करने के समय एवं देने का तरीका विशेष महत्व रखता है।

                                                                        

फॉस्फोरस एवं पोटाशधारी उर्वरकों को बुआई के समय आधार खाद के रूप में बीजों को नीचे की ओर से दिया जाना चाहिए। पौधों को उनकी प्रारम्भिक अवस्था में नाइट्रोजन तत्व की अधिक आवश्यकता नही होती है इसके लिए प्रदान की जाने वाली कुल नाईट्रोजन का 1/3 भाग बुआई के समय फॉस्फोरस तथा पोटाशधारी उर्वरकों के साथ ही दे देना चाहिए तथा शेष भाग की मात्रा को खड़ी फसल में दो या तीन बार में प्रदान करने से अधिक लाभ प्राप्त होता है और इसके साथ उचित फसल चक्र को अपनाया जाना चाहिए। बार-बार एक ही स्वभाव की फसल लेने से मृदा में उपलब्ध पोषक तत्वों का भली-भाहत से उपयोग नही हो पाता है। साथ ही प्रत्येक वर्ष एक जैसा ही वातावरण प्राप्त होने पर फसलों में खरपतवारों, कीट एवं व्याधियों के प्रकोप में वृद्वि हाती है।

  • गर्मियों में खेतों की गहरी जुताई किया जाना श्रेयकारी होता है, जिसके अनेक लाभ प्राप्त होते हैं जिसका प्रभाव हमारे उत्पादन लागत में कमी लाता है और खेत में कीट-व्याधियों को अधिक सीमा तक नियंत्रित किया जा सकता है वहीं दूसरी ओर मृदा की भौतिक दशाओं को सुधारने के लिए सहायता प्राप्त होती है जिसका प्रभाव समग्र रूप से पौधों की वृद्वि एवं विकास और अन्त में उत्पादन पर पड़ता है।

    मृदा में ऐेसे मित्र कीट पाये जाते हैं जो कि फसल को कीट-व्याधियों आदि से बचाने के लिए लड़ते रहते हैं। प्रकृति में फसलों के शत्रु कीट एवं व्याध्यिों के रोगाणु भी पाये जाते हैं, फसलों में इनका पाया जाना एक सच्चाई है। वहीं फसलों में जब इनका प्रकोप एक सीमा को पार कर जाता है अथवा यह कहा जाये कि इनका आक्रमण इतना अधिक हो जाता है कि इससे फसल का उत्पादन व्यवसायिक आर्थिक स्तर तक प्रभावित होने की सम्भावना उत्पन्न हो जाये तभी इन रसायनों का उपयोग किया जाना चाहिए। क्षेत्र की कृषि जलवायु सम्बन्धी दशाओं को ध्यान में रखकर उगायी जाने वाली फसल एवं उसकी उपयुक्त प्रजाति का चयन कर स्वस्थ एवं उन्नत बीजों का प्रयोग करना चाहिए।

                                                      

  • समय पर की जाने वाली बुवाई एवं खेत में पर्याप्त पौध संख्या रखी जानी चाहिए। सुझाये गये समय पर यदि फसल की बुआई की जाती है तो उसके प्रभाव से बीजों का अंकुरण प्रतिशत बढ़ जाता है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।