जैविक खेती के लिए आवश्यक है किसानों की जागरूकता

                                               जैविक खेती के लिए आवश्यक है किसानों की जागरूकता

                                                                                                                प्रौ0 आर0 एस0 सेंगर, डॉ0 शालिनी गुप्ता एवं मुकेश शर्मा

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    वर्तमान समय में एकल सस्य एवं वृहद् खेती के प्रयासों के परिणामस्वरूप, रासायनिक उर्वरकों (विशेषतः यूरिया एवं डी.ए.पी) आदि के अन्धाधुन्ध उपयोग से भूमि की उर्वरता एवं फसलोत्पादन में भारी गिरावट दर्ज की जा रही है। मृदा की भौतिक-रासायनिक दशाओं, सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता और सूक्ष्मजीवों की क्रियाशीलता पर विपरीत एवं अवाँछनीय प्रभाव पड़ा है, जिससे उत्पादकता में टिकाऊपन का संकट उत्पन्न हो गया है।

देश के अधिकाँश राज्यों गत कई वर्षों से अनुभव किया जा रहा है कि अधिकाँशतः खेत ठोस एवं बंजर भूमि में परिवर्तित होते जा रहें हैं विशोष रूप से राजस्थान राज्य के कई जिलों में, और मृदा के पी.एच. मान में निरंतर वृद्वि दर्ज की जा रही है।

रासायनिक उर्वरकों (विशेषतः यूरिया एवं डी.ए.पी) आदि के भरपूर प्रयेग के उपरांत भी फसलों की उपज में निरंतर कमी आंकी जा रही है और आज के समय में यह स्थिति किसानों एवं कृषि वैज्ञानिकों के लिए एक गहन चिन्तन का विषय बनती जा रही है।

                                                             

    मृदा की उत्कृष्टता के लिए भूमि के अन्दर कार्बनिक तत्वों की मात्रा पर्याप्त रूप में उपलब्ध होना अति आवश्यक है, जिससे उसमें उपलब्ध सूक्ष्म तत्व पादपों की वृद्वि एवं उत्पादन के लिए अपनी सम्पूर्ण दक्षता के साथ अपना योगदान प्रदान कर सकें। इसके साथ ही मित्र सूक्ष्मजीवों का सन्तुलन भी बना रहे और मृदा मृदा की जैव-रासायनिक क्रियाएं जैसे वायवीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण, कार्बन एवं नाइट्रोजन चक्र, पादप, पशु और मृत जीवों का जैविक-अपघटन आदि सुचारू रूप से संचालित होता रहें।

पुराने समय में कार्बन खेती के चलन के कारण मृदा अधिक उपजाऊ थी। खेती और पशु-पालन एक दूसरे के पूरक व्यवसाय थे। ट्रैक्टरों आदि मशीनरियों का चलन बेहद कम था जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक किसान के पास एक-दो गाय-भैंसों के एक साथ एक जोड़ी बैलों का होना लाजमी था। इस पशुधन से प्राप्त कार्बनिक खाद अर्थात गोबर की खाद का उपयोग खेतों में किया जाता था। कभी-कभी ढैंचा, पटसन और ग्वार आदि को पलटकर हरी खाद का उपयोग भी प्रचलन में था।

                                                           

इसके विपरीत, वर्तमान में परिस्थितियां काफी हद तक बदल चुकी हैं। आज किसान के पास न तो पर्याप्त रूप में पशुधन ही उपलब्ध है जिससे कि वह उनसे प्राप्त गोबर को खाद के रूप में उपयोग कर सकें और न ही उसकी रूचि अब खेतों में हरित खाद प्रदान करने में रही है।

    पादप रोगों के सन्दर्भ में यह एक सर्वविदित तथ्य है कि पौधों के लिए आवश्यक सूक्ष्म तत्वों की पूर्ति यदि परिपूरक पोषण के द्वारा न की जाए तो रोगों की अभिव्यक्ति पोषण न्यूनता के लक्षणों और रोगोत्पत्ति के रूप में होती है। कपास के पत्तों का लाल हानेा तथा डोड़ आदि का फटना (नाइट्रोजन की कमी), गेहँ में पत्तियों का सफेद पड़ना व सूखना (जस्ते की कमी) उनका ऊपर से सूखना (पोटाश की कमी) जैसे अनेक रोग सूक्ष्म तत्वों की कमी से ही उत्पन्न होते हैं।

कृषि अनुसंधान केन्द्र, नौगावां में किए गए प्रयोगों के माध्यम से सिद्व हुआ है कि सरसों में प्रति हैक्टेयर 40 किलोग्राम पोटाश के देने से न केवल उसके दानों का भार बढ़ता हैं, उपज में वृद्वि होती है अपितु इसके दानें चमकदार हो जाते हैंऔर फसल पर ऑल्टरनेरिया झुलसा और सफेद रोली आदि रोग भी कम लगते हैं।

इसी अभिप्राय से कृषि अनुसंधान केन्द्र, नौगावां ने वर्ष 2005 से कार्बनिक खादों, जैव-उर्वरकों, जैविक खादों एवं जैव नियामकों आदि के उपयोग के द्वारा मृदा में सूक्ष्म तत्वों एवं सूक्ष्मजीवों के सन्तुलन से मृदा स्वास्थ्य व्यवस्था तथा परिपूरक खादों, कार्बनिक एवं जैविक माध्यमों से फसलोत्पादन व्यवस्था के द्वारा ग्वार एवं सरसों की फसलों पर शोध-कार्य निहीत किए गए हैं। 

                                                  

    ग्वार के खेतों में गोबर की खाद के साथ ही बुआई करने से पूर्व पी.एस.बी. और राइजोबियम कल्चर के माध्यम से बीजोपचार करने पर उत्साहजनक एपज की प्राप्ति हुई और ऑल्टरनेरिया तथा जीवाणु-झुलसा आदि रोगों में भी कमी पायी गई हैं किसान भाई ये दोनों ही प्रकार के कल्चर अपने गुहनगर क्षेत्र में स्थित कृषि विभाग, उद्यान विभाग अथवा कृषि विज्ञान केन्द्रों से प्राप्त कर सकते हैं।

    ट्राइकोडर्मा एक ऐसी प्रतिस्पर्धी कवक है जिसके मृदा के अन्दर उपस्थित रहने पर किसी भी रोग के जनक कवक, जीवाणु और रोगाणु आदि को पनपने ही नही देती है और इसके साथ ही मृदा में उपस्थित जटिल पौषक तत्वों को सरल पौषक तत्वों में अपघटित करके पौधों के लिए पौषण उपलब्ध कराती है।

अनेक शोध एवं प्रयोगों के माध्यम से सिद्व किया जा चुका है कि ट्राइकोडर्मा के द्वारा बीजोपचार (6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) न केवल ग्वार की उपज में वृद्वि करता हैं बल्कि रोगोत्पत्ति में भी भारी गिरावट करता है। किसान भाई ट्राइकोडर्मा के पैकेट भी अपने गुहनगर क्षेत्र में स्थित कृषि विभाग, उद्यान विभाग अथवा कृषि विज्ञान केन्द्रों से प्राप्त कर सकते हैं।

जिन खेतों में कार्बनिक खादों का उपयोग किया गया था उनमें राइजोबियम, पी.एस.बी. और ट्राइकोडर्मा का प्रयोग अधिक कारगर पाया गया, उपज में आशाजनक वृद्वि और रोगोत्पत्ति में भी कमी पाई गई है।

    इसी सरसों की फसल पर भी आर्गेनिक के उपयोग का प्रयोग अत्यंत सफल एवं उत्साहवर्धक रहे हैं। यहाँ भी जैव-उर्वरकों (एजेटोबैक्टर, पी.एस.बी.) जैविक खाद या प्रतिस्पर्धी (ट्राइकोडर्मा), कार्बनिक खादों (गोबर की खाद, वर्मीकम्पोस्ट), परिपूरक पौषण (सल्फर का उपयोग) उपज को बढ़ाने और रोगों को रोकने में अत्यंत सफल सिद्व हुए हैं।

थायोयूरिया: गेहँ-सरसों में कमाल का असरः- वर्तमान कृषि में किानां एवं कृषि वैज्ञानिकों की चिन्ता का मंख्य विषय यह है कि चाहे जितना प्रयास कर लिया जाए परन्तु उपज में यह स्थिरता की स्थिति समाप्त होने का नाम ही ले रही है। किसान अच्छे से अच्छा उन्नत बीज खरीदकर, यूरिया एवं डी.ए.पी. जैसे तमाम उर्वरकों का उपयोग करता है, फसलों में कीट एवं रोग लगने के साथ ही वह अच्छी से अच्छी दवाओं का प्रयोग भी कर रहा है परन्तु उसके कृषि के उत्पादन में बढ़ोत्तरी के स्थान पर गिरावट ही आ रही है।

                                                      

    कृषि के उत्पादन में आए इस ठहराव को समाप्त करने के लिए कृषि अनुसंधान केन्द्र के वैज्ञानिकों के द्वारा विभिन्न प्रयास किए गए हैं। भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के तत्वाधान से रबी 2006-07 के दौरान किसानों के खेतों पर गेहूँ के प्रदर्शन लगाये गये हैं।

    भूमि में जल, कार्बनिक पदार्थों तथा सूक्ष्मजीवों की कमी के साथ-साथ मानसून की अव्यवस्था एवं वातावरणीय परिवर्तन फसलों के उत्पादन में विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न कर रहे हैं। अनुसंधान के परिणाम सिद्व करते हैं कि सल्फाहाइड्रिल रासायनिक समूह युक्त थायोयूरिया नामक जैव-नियामक फसलों में प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति सहनश्क्ति में वृद्वि करता है, (एक ग्राम प्रति लीटर पानी) पुष्पन के समय छिड़का जाता है, जबकि गेहूँ में इसका छिड़काव दो बार किया जाता है।

आधा ग्राम प्रति लीटर पानी के घोला को पहली बार कल्लों के निकलने के समय और दूसरा छिड़काव बालियों के निकलने के समय किया जाता है। इन छिड़कावों के कुछ समय के पश्चात् ही फसलें हरी-भरी नजर आने लगती हैं और उत्पादन में भी वृद्वि होती है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।