अलसी का उत्पादन वैज्ञानिक विधि से

                                                         अलसी का उत्पादन वैज्ञानिक विधि से कैसे करें

                                                                                                                                          डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा

                                                             

    ‘‘अलसी एक तिलहनी फसल है जिसके दानों से तेल प्राप्त किया जाता है और इस तेल का व्यापारिक दृष्टि से बहुत अधिक महत्व होता है। अलसी के दानों से तेल निकाल लिए जाने के बाद बची हुई खली, जो कि पशुओं के लि एक पौष्टिक आहार है और इसके अलावा इस खली का उपयोग खाद के रूप में भी किया जा सकता है। जबकि अलसी के बीजों को अन्य प्रकार के अनाजों के साथ पीसकर खाने में उपयोग किए जाते हैं।

                                              

अलसी बीजों का उपयोग विभिन्न प्रकार के सुगन्धित तेल और औषधियों के तैयार करने में भी किया जाता है। अलसी के पौधों के तनों से प्राप्त रेशे से कैनवास, दरी तथा अन्य प्रकार के मोटे कपड़ों को तैयार किया जाता है। इसके रेशे को निकाल लेने के बाद तने का बचा हुआ कठोर भाग, सिगरेट बनाने में प्रयुक्त कागज को बनाने के काम आता है।

    अलसी के तेल का उपयोग रंग, पेन्ट्स, वार्निश और छपाई आदि में काम आने वाली स्याही को तैयार करने में किया जाता है। तो वहीं इस सबके अतिरिक्त अलसी के तेल का उपयोग खाना बनाने, साबुन बनाने और कुछ स्थानों पर इसके तेल के दीपक भी जलाए जाते हैं।

अलसी का क्षेत्रफल एवं इसका वितरण

    अलसी की खेती के लिए अर्द्व-ऊष्ण, समशीतोष्ण एवं तीव्र जलवायु उपयुक्त रहती है, यदि वैश्विक स्तर पर अलसी के खेती के क्षेत्रफल को देखा जाए तो भारत इसमें पहले स्थान पर काबिज है, जबकि अलसी के उत्पादन की दृष्टि से भारत विश्व में चौथा स्थान है। इस प्रकार से विश्व में अलसी के कुल क्षेत्रफल का 15 प्रतिशत हिस्साी भारत में उपलब्ध है।

भारत में अलसी की खेती मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और राजस्थान आदि राज्यों में की जाती है। अलसी की पैदावार के लिए काली, भारी एवं दोमट मिट्टी को सबसे उपयुक्त माना जाता है, जबकि इसकी फसल की उत्तम उपज को प्राप्त करने के लिए मध्यम उपजाऊ, दोमट मिट्टी को उत्तम माना जाता है।

अलसी की उन्नत प्रजातियाँ

    विभिन्न राज्यों के लिए अलसी की उन्नत प्रजातियों का विवरण अग्रलिखित सारणी में दिया गया है-

क्र0सं0

सम्बन्धित राज्य

अलसी की उन्नत प्रजातियाँ

1.

उत्तर प्रदेश

नीलम, हीरा, मुक्ता, गरिमा, लक्ष्मी-27, टी-397, के.-2, शिखा और पद्मिनी आदि।

2.

पंजाब, हरियाणा

एल.सी.-54, एल.सी.-185, के.-2, हिमालिनी, श्वेता और शुभ्रा आदि।

3.

राजस्थान

टी.-397, हिमाचली, चम्बल, श्वेता, शुभ्रा और गौरव आदि।

4.

मध्य प्रदेश

जे.एल.एम. (जे)-1, जवाहर-17, जवाहर-522, जवाहर-7, जवाहर-7, जवाहर-18, टी.-397, श्वेता, शुभ्रा, गौरव और मुक्ता आदि।

5.

बिहार

बहार, टी.-397, श्वेता, शुभ्रा, गौरव और मुक्ता आदि।

6.

हिमाचल प्रदेश

हिमालिनी, के.-2 और एल.सी.-185 आदि।

                                              

भूमि की तैयारी

    बीज के अच्छे अंकुरण एवं अलसी के पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए खेत की प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल के द्वारा तथा इसके बाद 2 से 3 जुताई देशी हल अथवा हैरो की सहायता से करना उचित रहता है और प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाना चाहिए।

अलसी के बीज की आवश्यक मात्रा

    15 से 20 कि.ग्रा. की दर प्रति हैक्टर क्षेत्र के लिए पर्याप्त मानी जाती है। जबकि बड़े बीज के लिए बीज की दर प्रति हैक्टेयर 25-30 कि.ग्रा. एवं मिश्रित फसल के लिए बीज की दर 8-10 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर ही उचित रहती है।

अलसी की बुआई

    अलसी की बुआई 17 अक्टूबर से 13 नवम्बर तक की जा सकती है और किन्ही कारणों से बुआई में देरी हो जाने पर अलसी की बुआई 31 नवम्बर तक भी की जा सकती है।

अलसी की बुआई करने की विधि

                                                                      

    अलसी की बुआई देश के विभिन्न क्षेत्रों में छिटकवाँ अथवा पक्तियों के रूप में की जाती है। मध्य प्रदेश में धान की खड़ी फसल छिटकवां विधि से बुआई करने को ‘उतेरा’ तो बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘पेरा’ विधि कहा जाता है। अलसी की बुआई पंक्तियों में करने के लिए, वाँछित दूरी पर कूड निकालकर बुआई की जाती है। मिश्रित फसल की बुआई करने के लिए चने की 3 पंक्तियाँ और गेंहूँ की पाँच से आठ पंक्तियों के बाद, अलसी की फसल (1-1.5 मीटर के अंतर पर) पंक्तियों में की जाती है। शरदकालीन गन्नें की दो पंक्तियों के बीच अलसी की दो पंक्तियाँ उगाई जा सकती है। सामान्य अवस्थाओं में बीज बोने की गहराई 3-4 से.मी. रखते हैं।

अलसी की फसल में खाद प्रबन्धन

    कृषि भूमि के पौषक तत्वों का निर्धारण सदैव खेत की मृदा का परीक्षण कराकर ही करना चाहिए। साधारणतौर पर अलसी की फसल के लिए नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश्स की क्रमशः 80:40:20 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर के अनुसार प्रदान की जानी चाहिए।

इसके लिए नाईट्रोजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा, बुआई के समय तथा नाइट्रोजन की शेष को खेत की बुआई के बाद पहली सिंचाई के समय देने पर अधिक लाभ प्राप्त होता है, और नाइट्रोजन को अमोनियम सल्फेट के रूप में प्रदान करने से काफी अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं।

खेत की सिंचाई तथा जल निकास की व्यवस्था

    देश में अलसी की खेती अधिकाँश क्षेत्रों में वर्षा पर आधारित अवस्था में की जाती है। जबकि अलसी की फसल में सिंचाई का अत्याधिक महत्व होता है अतः यदि शरदकालीन वर्षा न हो तो अलसी की पहली सिंचाई 4-6 पत्तियों के निकलने पर एवं इसकी दूसरी सिंचाई फूल आने के समय करना लाभदायक रहती है।

अलसी में निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार का नियंत्रण

                                              

    अलसी की बुआई के 30-35 दिनों के बाद पहली निराई-गुड़ाई करनी चाहिए, और इसी के साथ अलसी के पौधों की छंटाई भी कर देनी चाहिए। अलसी की फसल को खरपतवारों से मुक्त रखने के लिए पहली सिंचाई के 20-25 दिन के बाद दूसरी निराई की जा सकती है।

अलसी का जैविक उत्पादन

    भाकृअनुप के भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान, भोपाल के द्वारा अलसी की खेती जैविक विधि से की जा रही है। इसके अर्न्तगत जैविक खादों के रूप में अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद, केंचुआ खाद और मुर्गियो से उत्पन्न होने वाली खाद क्रमशः 4 टन, 2.2 टन और 1.2 टन, प्रति हैक्टेयर (शुष्क भार के आधार पर) प्रयुक्त की गई और इससे लगभग 80 कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टेयर की दर प्राप्त हुई।

पौध संरक्षण के लिए, मृदा से होने वाले रोगों से बचाव हेतु खेत की मृदा में ट्राइकोडर्मा विरिडी का मिश्रण किया गया और 0.03 प्रतिशत नीम के तेल का छिड़काव भी किया गया। कीटों को आकर्षित करने के लिए खेत में फेरोमोन ट्रैप का उपयोग किया गया।

इस प्रकार से की गई जैविक खेती के परिणाम बताते हैं कि आरम्भिक तीन वर्षों के दौरान तो अलसी की उपज कम प्राप्त हुई, जबकि इसके बाद के वर्षों में इसकी उपज में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। इस प्रकार से यदि किसान भाई जैविक खादों का प्रयोग कर जैविक अलसी इका उत्पादन करें तो निश्चित् रूप से कुछ वर्षों में मृदा की गुणवत्ता के बढ़ने के साथ ही उन्हें अधिक उपज एवं अधिक लाभ भी प्राप्त होगा।

सारणी: अलसी की उन्नत प्रजातियाँ

क्र0सं0

राज्य

प्रजातियाँ

1.

उत्तर प्रदेश

नीलम, हीरा, मुक्ता, गरिमा, लक्ष्मी-27, टी-397, के-2, शिखा और पद्मिनी आदि।

2.

पंजाब, हरियाणा

एल.सी.-54, एल.सी.-185, के.-2, हिमालिनी, श्वेता और शुभ्रा आदि।

3.

राजस्थान

टी.-397, हिमालिनी, चम्बल, श्वेता, शुभ्रा और गौरव आदि।

4.

मध्य प्रदेश

जे.एल.एम.-1 (जे), जवाहर-17, जवाहर-552, जवाहर-7, जवाहर-18 टी.-397, श्वेता, शुभ्रा, गौरव और मुक्ता आदि।

5.

बिहार

बहार, टी.-397, श्वेता, शुभ्रा, गौरव और मुक्ता आदि।

6.

हिमाचल प्रदेश

हिमालिनी, के.-2 और एल.सी.-185 आदि।

 

मिश्रित खेती

    अलसी की फसल मुख्य रूप से चना, जौ और गेंहूँ आदि के साथ मिश्रित रूप से उगाई जाती है। कुछ किसान भाई इसकी फसल को शरदकालीन गन्ने के साथ भी उगातें हैं, जबकि रबी की फसलों के किनारों पर भी अलसी की फसल को उगाया जाता है।

कटाई, मड़ाई एवं अलसी की उपज

                                         

    अलसी एक दाने वाली फसल है जिसकी कआई मध्य मार्च से लेकर अप्रैल के आरम्भ तक की जाती है। इसकी फसल की कटाई करने के उपरांत इसके बंड़लों को खलिहानों में लाया जाता है, जहाँ इन बंडलों को 4-5 दिन तक सुखाया जाता है। इसके बाद इन बंडलों को मड़ाई के लिए मशीन (थ्रेशर) की सहायता से अलसी के दानों को अलग कर लिया जाता है।

इस प्रकार से शुद्व फसल में दानों की उपज 8-10 क्विंटल और उन्नत प्रजातियों से औसत उपज 15-25 क्विंटल एवं मिश्रित फसल से 4-5 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उपज प्राप्त हो जाती है।

भण्ड़ारण

    अलसी के दानों को भण्ड़ारगृह में रखने से पूर्व सुखाकर इनके अन्दर 10-12 प्रतिशत नमी रखी जाती है। यदि अलसी के बीज में अधिक नमी है तो इसका अंकुरण पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। इसके बीज को 40 डिग्री सेल्सियस तापमान पर काफी समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है, और इस बीज का अंकुरण भी अच्छा रहता है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।