कृषि क्षेत्र में बदलाव की बयार

                                                                   कृषि क्षेत्र में बदलाव की बयार

                                                                                                                  डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 शालिनी गुप्ता एवं मुकेश शर्मा

                                                                  

    ‘‘देश में कृषि के विकास पर व्यापक प्रभाव डालने वाले विभिन्न्न तत्वों का विश्लेषण करते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत में वास्तविक बदलाव तो आजादी के बाद ही आया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद खेती-बाड़ी करने वालों की दशा सुधारने के लिए योजनाबद्व तरीके से प्रयास किये गये हैं। इन प्रयासों के तहत भूमि सुधार की दिशा में उठाये गये कदम और सिंचाई, बिजली तथा कृषि सम्बन्धी तकनीकी के विकास के लिए बड़े पैमाने पर पूँजी-निवेश किया गया। साथ ही किसानों को उनकी उपज का सही दाम दिलाने के प्रयास भी किये गये।’’  

    सुदृढ़ परम्परा वाले भारत देश को पहला जबरदस्त झटका मध्य युग के उन अनेक आक्रमणकारियो से नही लगा ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से लगा था वह भी वह भी इंग्लैड में औद्योगिक क्राँति के पूर्ण होने के बाद। भारत एशिया के उन देशों में से एक है जहाँ कई शताब्दियों से फलता-फूलता रहा है। खेती-बाड़ी पर आधारित इस व्यवस्था की अपनी एक अलग सांस्कृतिक परम्परा बन चुकी है। जिसके संयोग से अपने पूर्ववर्ती विरासत के साथ विधिताओं से भरी बहुआयामी परम्पराएं तथा रीति-रिवाज विकसित हुए। भारत को महानगरीय सभ्यता से जोड़ने के प्रयास से भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था की जड़ें हिल गईं।

दो शताब्दियों तक चले ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में दूरगामी प्रभाव वाले परिवर्तन किये गये। इनमें से कुछ बदलाव तो इतने जबरदस्त थे कि देश की आर्थिक व्यवस्था का नक्शा ही बदल गया। ब्रिटिश शासक अपने साथ पश्चिमी विज्ञान और बुद्विवादी मानवीय मूल्यों को लेकर भारज में आये थे। हालांकि उन्होंने ऐसा समझ-बूझकर नही किया, बल्कि अनजानें में ही यह सब चीजें भारत तक पहुँची थी और इनसे यहाँ आधुनिकीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हो गई। इस आधुनिकीकरण के मार्ग में दूसरा मील का पत्थर वर्ष 1947 में भारत की आजादी थी।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् तो भूमि आधारित सामाजिक ढाँचे, इसके स्वरूप और उत्पादन में उपयोग की जाने वाली तकनीकी में व्यापक गुणात्मक परिवर्तन हुए। परन्तु इस सब के बावजूद, कुछ क्षेत्रों में अभी भी उत्पादन के परम्परागत अर्द्व-सामंती तरीके जारी हैं। इसके अंतर्गत सबसे अधिक महत्वपूर्ण चीज तो यह है कि अर्द्व-सामंती मूल्यों पर आधारित पतनशील व्यवस्था अब भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। जहाँ तक कृषि पर, आधारित व्यवस्था में परिवर्तन का सवाल है तो ऐसा प्रतीत होता है कि भारत, परम्परा से आधुनिकता की ओर के संक्रमण काल से गुजर रहा है।

                                   

    प्रस्तुत लेख में इन्हीं समस्त परिवर्तनों का संक्षिप्त विश्लेषण किया गया है, जिसका उद्देश्य भारत में कृषि क्षेत्र के परिवर्तन के स्वरूप का स्पष्ट करना और आधुनिकता के परम्पर और आधुनिकता के पारम्परिक प्रभाव का विश्लेषण करना है। इस लेख को चार भागों में विभाजित कर प्रस्तुत किया गया है। भूमिका के पश्चात् इसके प्रथम भाग में भारत के परम्परागत कृषक समाज की मुख्य-मुख्य विशेषताओं का वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् द्वितीय भाग में ब्रिटिश शासनकाल के दौरान देश की कृषि आधारित व्यवस्था में परिवर्तनों की व्यापक चर्चा की गई है। तृतीय भाग में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् कृषि-सम्बन्धी परिवर्तनों के साथ-साथ परम्परागत और आधुनिकतस के एक- दूसरे पर इनके प्रभावों की विशेषताएं समझाई गई हैं। वहीं इस लेख के अन्तिम भाग में उपसंहार दिया गया है।

भाग-1

    भारत के मुख्य कृषक समुदाय तथा भारतीय गाँवों के लेकर विद्वानों के बीच बहस होती रही है। प्रस्तुत लेख का उद्देश्य यह नही है कि एशियाई देशों में उत्पादन की कोई विशेष प्रणाली अस्तित्व में रही है अथवा नही। इस लेख का उद्देश्य मार्क्स के द्वारा परिकल्पित भाारतीय गाँवों के बारे में छानबीन करना अथ्वा मध्ययुगीन यूरोप के सामंतवाद की भिन्नता को स्पष्ट करना भी नही है। इसका उद्देश्य भारत में ब्रिटिश शासन से पूर्व मध्य युग में कृषक समाज की मुख्य-मुख्य विशेषताएं बताना है। इसलिए इस चर्चा को भी दो भागों में विभाजित किया गया है- 1. उत्पादन तकनीकी और 2. उत्पादन सम्बन्ध।

उत्पादन तकनीकी

                                                        

मध्ययुगीन तकनीकीः मध्ययुगीन भारतीय कृषक समुदायों ने कई युगों के अनुभव से खेती-बाड़ी की ऐसी प्रणालियाँ विकसित कर ली थी जो कि क्षेत्र विशष की जलवायु के अनुरूप थी। उन्होने उपने क्षेत्र को ध्यान में रखकर उसके लिए उपयुक्त तकनीकी भी विकसित कर ली थी। वे जहाँ एक ओर बारानी खेती वाले क्षेत्रों में गेहूँ तथा अन्य मोटे अनाज पैदा करने में विशेषज्ञता रखते थे वहीं नदियों की घाटियों तथा समुद्र तटवर्ती डेल्टा क्षेत्र में धान सौर सभी प्रकार अधिक पानी चाहने वाली फसलों को उगाते थे। कृषक समुदायों ने सूखे एव्र अकाल जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए आपदा प्रबन्धन के लिए अपनी ही प्रणाली को भी विकसित कर लिया था। यह आपदा प्रबन्धन कौशल हजारों वषों तक जस का तस बना रहा और उत्पादन तकनीकी के प्रकार ही इस प्रणाली में समयानुकूल अपेक्षित सुधार नही हो पाया।

मार्क्स के अनुसार तकनीकी के क्षेत्र में प्रभावी इस ठहराव का सर्वाधिक प्रमुख कारण ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आत्मनिर्भर बने रहना था। परिवर्तन की प्रक्रिया से वंचित तथा शासको के परिवर्तन से अनजान भारत का आत्मनिर्भर ग्रामीण समाज सदियों तक इसी प्रकार से आत्मनिर्भर बना रहा।

भूमि की उत्पादकता और जनसंख्या का दबाव

    भारत और शायद सम्पूर्ण एशिया में की जाने वाली कृषि क्रिया की एक विशेषता यह थी कि इस क्षेत्र में जमीन की उपज एवं जनसंख्या के मध्य एक संतुलन स्थापित रहता था और यह संतुलन देश के विभिन्न क्षेत्रों में अपनायी जा रही फसल उत्पादन तकनीकी के कारण ही सम्भव हो पाता था। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जिन क्षेत्रों में जमीन की उत्पादकता अपेक्षाकृत अधिक होती थी, वहाँ जनसंख्या का दबाव भी अधिक और निज क्षेत्रों में जमीन उपज कम रहती थी उन क्षेत्रों में जनसंख्या का दबाव भी अपेक्षाकृत कम ही रहता था।

                                                             

नदी, घाटियों एवं डेल्टा आदि क्षेत्रों में तो यह तथ्य अधिक स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। वहीं दूसरी ओर भारत के पश्चिमोत्तर के अर्द्व- शुष्क क्षेत्रों में जनसंख्या का दबाव भी कम ही था। प्राकृतिक आपदाओं एवं लोगों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर बसने के कारण जनसंख्या का संतुलन स्वयं ही स्थापित हो जाता था। इसके परिणामस्वरूप देशभर में कृषि का औसत उत्पादन लगभग एक समान ही रहता था। इस सम्बन्ध में इशिकावा ने कहा है कि इस क्षेत्र में एक प्रकार की संतुलनकारी प्रणाली  कार्य करती थी, जिसके कारण जमीन की उत्पादकता की ऊँची दर का संतुलन जनसंख्या के ऊँचे दबाव के मध्य एक संतुलन स्थापित हो जाता था। साथ ही यह तथ्य इसके विपरीत परिस्थितियों पर भी लागू होता था, अर्थात जनसंख्या के इबाव में वृक्ष् के साथ ही उत्पादन में भी वृद्वि हो जाती थी।

    इस प्रकार की तकनीकी का एक अन्य महत्वपूर्ण परिणाम यह था कि कुल जनसंख्या और उत्पादन में वृद्वि के मध्य एक तालमेल सा बना रहता था। उत्पादन की शक्तियों की सीमित क्षमताओं के कारण कृषि उपज में तेजी से वृद्वि नही हो पाती थी और तकनीकी भी जस की तस बनी रहती थी। अतः जनसंख्या वृद्वि भी अत्यंत सीमित रहती थी। इसके साथ ही प्रकृति के क्रूर हाथ भी इस संतुलन को स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण भमिका निभाते थे।

बाढ़, अकाल एवं अन्य प्रकार की प्राकृतिक आपदाएं एक बड़ी संख्या में जनसंख्या को लील जाती थी, इसके अतिरिक्त ऐसे रोग की प्रसारित होते रहते थे जिनका उस समय कोई उपचार उपलब्ध नही था। इसका अर्थ यह हुआ कि तकनीकी और उत्पादन-सम्बन्धों से उत्पादन तथा उस उत्पादन के ऊपर निर्भर जनसंख्या का निर्धारण होता था। उस युग में कृषक समुदाय के लोगों के जीवन का स्तर इन्हीं सभी तथ्यों पर आधारित होता था।

उत्पादन-सम्बन्ध

                                                 

    ब्रिटिश शासन के आरम्भ होने से पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था बुनियादी तौर पर कृषि पर ही आधारित हुआ करती थी। स्थानीय दस्तकार सेवाएं तथा व्यापारिक गतिविधियाँ सामान्य तौर पर  कृषि के साथ ही जुड़ी हुई थी। गांवों के बहुतायत वाले समाज के ऊपर एक छोटा सा शहरी ढाँचा था जो अपने अस्तित्व के लिए शासकों और उनकी न्याय प्रणाली पर निर्भर हुआ करता था। जहाँ तक कृषि के क्षेत्र में उत्पादन सम्बन्धों का प्रश्न है, तो इसके सम्बन्ध में वैज्ञानिक एकमत नही हैं। इसके एक छोर पर मार्क्स है जिनका विश्वास है कि यूरोप के सामंतवाद के प्रभुत्व वाले समाज से भिन्न, भारतीय ग्रामीण समाज की विशेषता उत्पादन की वह प्रणाली है जो कि सम्पूर्ण एशिया में विद्यमान थी।

मार्क्स के अनुसार इस प्रणाली पर आधारित भारतीय ग्रामों की दो महत्वपूर्ण विशषताएं हैं- जिनमें से प्रथम भूमि एवं सम्पत्ति पर साझा अधिकार तथा इस पर संयुक्त रूप से खेती-बाड़ी और दूसरा जाति प्रथा पर आधारित अपरिवर्तनीय श्रम-विभाजन। अनेक विद्वानों ने इस एशियाई पद्वति के सम्बन्ध में मार्क्स के दृष्टिकोण को अस्वीकार किया है। उस शाखा के विद्वानों का मत है कि यद्पि भारत का कृषि पर आधारित ढाँचा यूरोप से काफी अलग है, परन्तु इसकी विशेषता अपना एक अलग किस्म का सामंतवाद ही है। ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत में कृषि क्षेत्र के उत्पादन सम्बन्धों का संक्षिप्त विवरण, जिस पर अधिकाँश विद्वान एकमत हैं इस प्रकार से हैं-

(1) भूमि का स्वामित्व

    यद्यपि सैद्वांतिक रूप से तो सम्पूर्ण जमीन राजा की हुआ करती थी, परन्तु व्यवहारिक रूप से जमीन का स्वामित्व काश्त करने वाले किसानों की कुछ उप-जातियों के हाथों में ही हुआ करता था। जागीरदारी प्रणाली के अंतर्गत आने वाले गांवों में जागीरदार को जमीन के स्वामित्व के व्यापक अधिकार प्राप्त थे। काश्तकारों को उनकी उपज का एक हिस्सा लगान के रूप में शासन को देना पड़ता था। हालांकि यह भाग सम्पूर्ण उपज के आधे से लेकर एक-तिहाई तक कुछ भी हो सकता था। कुछ मामलों में काश्तकारों को अपने ऊपर के बिचौलियों को भी लगान देना पड़ता था। वन एवं खाली पड़ी जमीन गांव की साझा सम्पत्ति मानी जाती थी। समस्त ग्राम वासियों को, जिनमें कि आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोग भी सम्मिलत हुआ करते थे, इस सम्पत्ति से सम्बन्धित एक जेसे ही अधिकार प्राप्त थे।

    जमीन सम्बन्धी लेन-देन कम ही होता था इस प्रकार जमीन एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को नही दी जा सकती थी, परन्तु जमीन के बारे में निजी स्वामित्व की अवधारणा उपलब्ध थी। जमीन पर वास्तिवक मालिकान अधिकार काश्तकार समुदाय के लोगों का ही होता था। भू-सम्पत्ति के उत्तराधिकारी पुरूष सदस्यों की संख्या में भिन्नता के कारण समय के साथ-साथ जोतों के आकार भारी अंतर आ जाता था। खेती-बाड़ी के तरीके अधिकाँशतः एक जैसे ही हुआ करते थे परन्तु पूरी जमीन पर एक जैसी ही खेती नही की जाती थी।

(2) एक-पक्षीय श्रम-विभाजन

                                                        

    भारतीय ग्रामीण समाज की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि इसके अंतर्गत जाति प्रथा पर आधारित श्रम-व्यवस्था का विभाजन स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। इस व्यवस्था के अनुसार मेहनत-मजदूरी और हेय दृष्टि से देखे जाने वाले कार्य अधिकतर नीची समझे जाने वाली जातियों को सौंप दिये गये थे। जिन क्षेत्रों में हिन्दुओं से पृथक अन्य धर्मों को मानने वालों, जैसे मुसलमानों एवं इसाईंयों का बाहुल्य होता था, उन स्थानों पर भी श्रम-विभाजन जातिगत आधार पर ही होता था।

जाति प्रथा के अंतर्गत तथा-कथित नीची जातियों और अछूत समझे जाने वाले लोगों को जीवन के बुनियादी अधिकारों और मानवीय गरिमा तक से वंचित कर दिया गया था। इन लोागों का भरपूर शोषण किया जाता था। इस जाति प्रथा के बंधनों ने भारतीय ग्रामीण सम्बन्धों को एक अत्याचारी समाज में परिवर्तित कर दिया था।

    अतः कुल मिलाकर, जमींदारों के द्वारा खेतीहर मजदूरों को, जो कि सामन्यतौर पर अनुसूचित जातियों के लोग ही हुआ करते थे, जहाँ बढ़ई, सुनार, नाई और ब्राह्मण आदि को जो पैसा दिया जाता था, वह जजमानी प्रथा के अनुसार हुआ करता था। सेवाओं के बदले में वस्तुएं प्रदान की जाती थी जो कि अधिकतर मामलों में उपज का एक निश्चित भाग होती थी। इस कारण सम्पूर्ण ग्रामवासियों की खुशहाली इस बात पर निर्भर करती थी कि फसल कैसी हुई है। खुशहाली का सीधा सम्बन्ध फसल के अच्छा अथवा बुरा होने पर ही निर्भर करता था। लेकिन इसके उपरांत इस उपज का समाज में वितरण एक समान नही था।

यहाँ यह बात भी काबिले गौर है कि जमींदार यानि ताल्लुकदार या सूबेदार या राजा लगान के रूप में उपज के एक चौथाई से आधे हिस्से तक अनजा ले लिया करते थे, जो कि निश्चित रूप से एक काफी बड़ा भाग हुआ करता था और प्रत्येक दृष्टिकोण से बहुत ही बड़ा भाग है।

    किसानों का शोषण दो प्रमुख स्तरों पर होता था जिसमें से एक स्तर पर काश्तकारों का सीधा शोषण हुआ करता था, क्योंकि शासन और उसके प्रतिनिधि उपज का एक बड़ा भाग हडप लिया करते थे। दूसरे स्तर पर, ऊँची जातियों के किसान जजमानी प्रथा के माध्यम से खेतीहर मजदूरों तथा अन्य लोगों का शोषण किया करते थे।

खण्ड-दो

बिटिश काल

    भारत के सभी विदेशी शासकों में से ब्रिटिश शासकों का भारतीय अर्थव्यवस्था और भारतीय सामाजिक ढाँचे पर सर्वाधिक गहरा प्रभाव पड़ा। इस प्रभाव का बुनियादी कारण यह है कि भारत में ब्रिटिश शासन का आरम्भ उस समय हुआ जब कि इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रॉन्ति का प्रादुर्भाव होने वाला था। इसके अतिरिक्त भारत पर आक्रमण करने वालों की भाँति ही ये ब्रिटिश वाले भी यहाँ रहने अथवा भारत में अपना घर बसाने के उद्देश्य से नही आये थे। भारत में उनके आने का उद्देश्य भारत पर शासन करना, भारतवासियों का भरपूर शोषण करना और अधिक से अधिक धन-दौलत बटोरना था।

                                                

    रजनी पामदत्त के अनुसार ब्रिटिश लोगों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को नष्ट करने के लिए विभिन्न तरीके अपनाएं। इन्हीं हथकण्ड़ों के तहत 16वीं शताब्दी से लेकर 18वीं शताब्दी तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में खूब लूट-खसौट की। अति प्राचीन काल से पूर्ववर्ती सरकारों के द्वारा उचित रखरखाव के माध्यम से सुरक्षित यहाँ की सिंचाई प्रणालियों तथा सार्वजनिक निर्माण कार्यों के प्रति औपनिवेशिक शासकों के द्वारा घोर उपेक्षा प्रदर्शित की गई। जमीन के सम्बन्ध में एक ऐसी प्रणाली को आरम्भ किया गया जिससे न केवल जमीन के निजी स्वामित्व और इसकी बिक्री एवं बंटवारे की अनुमति प्रदान की गई अपितु कृषि व्यवसायीकरण के माध्यम से इसे बढ़ावा भी प्रदान किया गया।

भारत को आयात किये जाने वाले माल पर या तो सीधी रोक लगा दी गई या फिर उसके ऊपर भारी करो को लगा दिया गया। लेकिन भारतीय आर्थिक ढाँचे को पूर्णरूप से तहस-नहस करने का अन्तिम फैंसला तो इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रॉन्ति के आरम्भ होने के बाद वर्ष 1913 में उस समय किया गया जब पूरे सोच-विचार के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था का साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था के साथ तालमेल बिठाने के प्रयास किये गये। इसी साजिश के तहत भारत को कच्चे माल का निर्यातक तथा तैयार माल का आयातक देश बना दिया गया। भारतीय बाजारों में इंग्लैण्ड के सस्ते औद्योगिक उत्पादों का हमला भारतीय वस्तुओं और हस्तशिल्प, विशेष रूप से हथकरधों पर बने कपड़े तथा ढ़ाका तथा अन्य शहरों की मलमल के लिए अत्यन्त ही घातक सिद्व हुआ।

हस्तशिल्प की वस्तुओं को बनाने वाले तथा उन पर निर्भर शहर तो दिवालिए ही हो गये। बुनकरों को विवश होकर अपने गांवों को वापिस लौटना पड़ा। इससे कृषि एवं उद्योगों के मध्य अभिन्न सम्बन्ध विच्छेदित हो गये जिससे देश में जमीन के ऊपर अनावश्यक बोझ बढ़ता ही चला गया।

पुनरूद्वारकारी भूमिका                                       

    किसी उपनिवेश का महानगरीय अर्थव्यवस्था के साथ जब तक सार्थक तालमेल नही बैठ सकता जब तक कि कच्चे माल के निर्यात क्षेत्र में पर्याप्त सुधार नही कर लिये जाएं। फिर वह चाहे कृषि हो, या कोई अन्य उद्योग अथवा संसाधनों के उपयोग से सम्बद्व कोई भी उद्योग, सभी में निर्यात की दृष्टि से सुधारों का किया जाना आवश्यक है तथा ये सुधार विज्ञान एवं तकनीकी के माध्यम से ही किये जा सकते हैं। औपविशिक सम्बन्धों को बनाए रखने के लिए, रेल, सड़क एवं सिंचाई प्रणलियों का विकास करना भी आवश्यक है। केवल यही नही यूरोपीय वैज्ञानिक ज्ञान से सम्पन्न शिक्षित भारतीयों का एक वर्ग तैयार करना भी एक चुनौति भरा कार्य था। हालांकि यह बात दीगर कि उक्त कार्य को बडे ही बेमन ढंग से और छुट-पुट तौर पर ही किया गया।

    मार्क्स ने इस बात का स्पष्ट अनुमान लगा लिया था कि विभिन्न क्षेत्रों में में नए वैज्ञानिक तरीकों को अपनाने से भारत में एक ऐतिहासिक परिवर्तन का आना अवश्यम्भावी था। इससे न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था के बुनियादी ताने-बाने और पुराने पड़ चुके सामाजिक संगठन का छिन्न-भिन्न हो जाना भी स्वाभाविक ही था, बल्कि इससे अंततः अर्थव्यवस्था का पुनरूद्वार कर उसे नया जीवन मिलना भी निश्चित था। परिवर्तन की इस प्रक्रिया में भारत में औद्योगिक उत्पादन की नींव तैयार होने तथा बुद्विवदी वैज्ञानिक जीवनदृष्टि को बढ़ावा मिलने का पूर्वानुमान मार्क्स ने पहले ही लगा लिया था। मार्क्स के अनुसार ‘‘इंग्लैण्ड के अपराध चाहे जो भी रहे हो, इस क्राँति को सफल बनाने में उसने अपनी भूमिका को अनायास ही निभाया था।’’

    किन्तु कुछ विचारक मार्क्स के इस दृष्टिकोण की आलोचना भी करते हैं। उन विद्वानों के अनुसार औपविेशिक उत्पादन-प्रक्रिया ने भारतीय अर्थव्यवस्था को नया जीवन प्रदान करने की बजाये यहाँ ऐसे ढाँचे खड़े कर दिये जिनके कारण आज भी भारत की अर्थव्यवस्था अल्प विकसित है। विचारकों के अनुसार ब्रिटिश शासकों ने कई ढाँचों को जान-बूझ कर नष्ट किया, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था पर ब्रिटिश शासन के अच्छे प्रभाव की भी उपेक्षा नही की जा सकती।

    ब्रिटिश शासन काल में किये गये जिन मुख्य परिवर्तनों का देश में कृषि के क्षेत्र में व्यापक बदलाव के साथ सीधा सम्बन्ध है, जिसकी चर्चा निम्नलिखित दो शीर्षकों के अंतर्गत की गई है। (1) संस्थागत ढाँचे में परिवर्तन और (2) कृषि क्षेत्र में तकनीकी सम्बन्धी सुधार।

संस्थागत ढाँचे में परिवर्तन

    ब्रिटिश शासनकाल में जमीन के बन्दोबस्त की औपचारिक तौर पर तीन प्रणालियाँ प्रचलित थी। जमींदारी यानी भूमि का स्थाई बन्दोबस्त रैयतवाडी और महालवाड़ी।  ब्रिटिश शासकों ने वर्ष 1773 में बंगाल प्रेसीडेंसी में बहुत सोच-विचार के बाद जमीन का स्थाई बन्दोबस्त किया। जमींदारी वाले क्षेत्रों में बेनामी जमींदारों को लगान वसूल करने का अधिकार सौंपा गया। इसके लिए सोचा तो यह गया था कि जमींदारों का यह नया वर्ग खेती के आधुनिक तौर-तरीके अपनायेगा और कृषि का पुनरूद्वार करेगा, परन्तु यह व्यवहारिक रूप से बिल्कुल विपरीत ही हुआ। इन जमींदारों ने काश्तकारों को तो कर वसूल करने के बाद कंगाल बना दिया और वे स्वयं शहरों में विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते रहे।

काश्तकारों की अनेक गलतियों के कारण जमींदार उनकी जमीन पर कब्जा भी कर लेते थे। बिचौलियों को रखने का प्रचलन बहुत बढ़ चुका था। जमीन को जमींदार से जमींदार से काश्तकार और बंटाईदारों को पट्टे पर लेना एक आम बात थी। काश्तकार के कोई निश्चित् अधिकार प्राप्त नही थे। शेष भारत कि ब्रिटिश शासकों के अधिकार में आ जाने के पश्चात् अंग्रेजों ने इसी प्रकार का बन्दोबस्त बाकी के देश में नही किया। दक्षिणी और उत्तर-पश्चिमी भारत में भू-स्वामित्व की उस समय की प्रणाली को ही जारी रखा गया। रैयतबाड़ी महालबाड़ी वाले क्षेत्रों में ग्रामीण-इलाकों के काश्तकारों को जमीन सम्बन्धी अधिकार प्राप्त थे और बिचौलिये भी नही थे। इन क्षेत्रों में भी जमीनों का लेन-देन बड़े पैमाने पर होता था तथा कर्ज एवं अन्य एक कारणों के चलते जमीन ऐसे लोगों के पास पहुँच जाती थी जो स्वयं खेती-बाड़ी नही करते थे।

                                                          

भारत के रजवाड़ों में भी जमींदारी प्रथा कुल मिलाकर अपने क्रूरतम स्वरूप में मौजूद थी जिसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की पट्टदारिया प्रचलन में थी और काश्तकारों को कोई विशेष अधिकार प्राप्त नही थे। ब्रिटिश शासकों ने राजनीतिक कारणों से भूमि-सम्बन्धी क्षेत्रों में बहुत ही पुरानी परम्परा को अपनाया और उसे ही बढ़ावा दिया। जमीन से जुड़े निहीत स्वार्थों ने ब्रिटिश राज के लिए अत्यंत शक्तिशाली आधार तैयार किया। बेनामी-जमींदारी, बंटाईदारी, अर्ध सामंती व्यवस्था, जमीन के स्वामित्व में भारी असमानता और किसानों का निरंतर बढ़ते कर्ज ने काश्तकारों को कंगाल ही नही बनाया बल्कि देश में कृषि के पुनरूथान में भी एक बड़ी बाधा को उत्पन्न किया।

तकनीकी सम्बन्धी बदलाव

    ब्रिटिश काल के दौरान दूसरा बदलाव कृषि के क्षेत्र में उत्पादन तकनीकी में छुट-पुट परिवर्तनों के रूप में सामने आया। सिंचाई के जरिये तकनीकी में जो भी थोड़े-बहुत सुधार किये गये वे बुनियादी तौर पर 19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के शुरूआती वर्षों में कई बार पड़े अकालों से निपटने के लिए देरी से उठाये गये कदमों में से थे।

    ब्रिटिश सरकार ने सिंचाई के क्षेत्र में काफी बड़े पर निवेश किया वर्ष 1920 तक पंजाब, सिंध एवं उत्तर प्रदेश में नई नहरों का काफी अच्छा जाल बिछाया जा चुका था। दक्षिण भारत में नहरों के माध्यम से सिंचाई प्रणाली को सफलतापूर्वक लागू किया जा चुका था। वर्ष 1924 तक भारत में उपलब्ध कृषि योग्य लगभग 24 प्रतिशत भूमि पर सिंचाई की व्यवस्था को स्थापित किया जा चुका था। हालांकि इसमें से अधिकाँश क्षेत्र भारत के पश्चिमोत्तर तथा दक्षिण भाग में था।

    तकनीकी सम्बन्धी विकास की दूसरी पहल 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में कृषि सम्बन्धी अनुसंधान के लिए रॉयल काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल सिरर्च की स्थापना के रूप में सामने आर्या इस दौरान कुछ कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना भी की गई और अनुसंधान को बढ़ावा दिया गया। कृषि के क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास के लिए वैज्ञानिक प्रणाली को विकसित करने के प्रयास किये गये और इसके अंतर्गत अच्छे किघ्स्म के बीज विकसित किये गये तथा नई एवं अच्छी प्रजातियों के बीजों का आयात विदेशों से भी किया गया।

यहाँ इस तथ्य से अवगत करना भी समाचीन होगा कि पर्याप्त पुँजी निवेश की कमी के चलते उपलब्धियाँ अधिकाँशतः व्यापारिक फसलों तक सिमट कर रह गयी। परन्तु इस सबके उपरांत यह कहना गलत नही होगा कि ब्रिटिशशासन काल ही कृषि क्षेत्र में अनुसंधान और वैज्ञानिक विकास की नींव पड़ी।

    निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि ब्रिटिश शासन काल में कृष्सि के व्यवसायीकरण और इसे ब्रिटिश साम्राज्य की अर्थव्यवयस्था के साथ के साथ समन्वित करने के प्रयासों के कारण भारतीय कृषि और भारतीय गांवों के आत्मनिर्भर स्वरूप में कुछ महत्वपूर्ण परिर्वन आये। 19वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों और 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में नहरों के द्वारा सिंचाई परियोजनाओं में भारी पूँजी निवेश के कारण ही यह परिवर्तन दर्ज किये गये। कृषि के वैज्ञानिक तौर-तरीकों को अपनाने से यह परिवर्तन आरम्भ हुए और भारत के कुछ भागों में इनका प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा गया।

पुराने पड़ चुके अर्ध-सामंती भूमि-सम्बन्धों के चलते इन के कारण भारतीय कृषि के क्षेत्रों में अधिक गतिशीलता नही आ पायी जिसके परिणामस्वरूप भारतीय कृषि क्षेत्र क विकास प्रायः निराशाजनक ही रहा।

                                                           

    सामाजिक क्षेत्र में भी सामान्य कानूनों पर आधारित व्यापक न्यायिक व्यवस्था के बावजूद सदियों से चले आ रहे साम्प्रदायिक और जातिगत पूर्वाग्रह तथा सामाजिक उत्पीड़न जस का तस बना रहा। इसका कारण यह था कि हमारी ग्रामीण अर्थव्श्वस्था में गतिशीलता का पूर्ण अभाव था। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए छेड़े गये राष्ट्रीय आन्दोलन ने धीरे-धीरे समानता और मानवीय गरिमा के बारे में लोगों की चेतना को जागृत किया। इस सन्दर्भ में गाँधी जी की भूमिका, विशेषरूप से हरिजनों के उत्थान के लिए उनके प्रयास अत्यन्त महत्वपूर्ण रहें। राष्ट्रीयता की भावना के जागृत होने के कारण से भी जातीय, साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय पहिचान कायम करने के लिए लोगों की आकांक्षाओं को बढ़ावा मिला।

    स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में कृषि पर आधारित बुनियादी ढाँचे में विभिन्न प्रकार की समस्याएं एवं बाधाएं विद्यमान थी। अब हम इस लेख के अगले खण्ड के अंतर्गत स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय कृषि में आये परिवर्तनों का अध्ययन करेगें।

खण्ड-तीन

स्वातंत्रयोत्तर युग

    भारत के कृषक समुदाय के लोागें की दशा को सुधारने के उद्देश्य से कृषि क्षेत्र बदलाव के लिए योजनाबद्व प्रयास सही मायनों में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही आरम्भ हुए। भारतीय कृषि में नई जान फूंकने के लिए नीति निर्माताओं के द्वारा दोहरी नीति को अपनाया गया, जिसकी प्रथमतः विशेषता यह थी कि कृषि के विकास में आने वाली संस्थागत बाधाओं को दूर करने के लिए भूमि सुधारों को लागू किया गया। चूँकि किसान आन्दोलन हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन का ही एक प्रमुख भाग था जिसके कारण इस आन्दोलन से हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को व्यापक समर्थन भी प्राप्त हुआ, इसलिए हमारे राष्ट्रीय नेता आजादी मिलने के बाद व्यापक रूप से भुमि सुधार लागू करने के लिए वचनबद्व थे।

हमारी राष्ट्र नीति का दूसरा अहम पहलू यह रहा कि हमने सिंचाई, विद्युत के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे के विकास में बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश की व्यवस्था की। 60 के दशक के मध्य में एक अन्य नीतिगत महत्वपूर्ण प्रयास के तहत कृषि मूल्य नीति को लागू किया गया जो कि बहुत ही उपयोगी सिद्व हुई।

भूमि-सुधार

    स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में मोटे तौर पर भूमि सुधार कानूनों कर उन्हें चार विभिन्न चरणों में लागू किये गये। सर्वाधिक महत्वपूर्ण कानून, जो कि बेनामी जमींदारियों को समाप्त करने तथा भू-स्वामित्व प्रणाली में सुधार से सम्बन्धित रहे, जो 1950 के दशक के मध्य में बनाये गये। जमीन की अधिकतम सीमा निर्धारित करने और फालतू जमीन को भूमिहीनों तथा छोटे काश्तकारों में बांटने सम्बन्धी अधिनियम सबसे पहले 1950 के मध्य और 1960 के मध्य में परित किये गये। 20 सूत्रीय कार्यक्रमों के अंतर्गत आपातकाल के दौरान भी इस सम्बन्ध में नए कानून बनाये गये।

    भूमि सुधारों को लागू करने के कार्य की समीक्षा में यह बात साफ हो जाती है कि यह लक्ष्य आंशिक रूप से पूरा हो पाया है। जहाँ तक कृषि क्षेत्र में बिचौलियों को दूर करने का प्रश्न है तो देश के अधिकाँश भागों में इस लक्ष्य को प्राप्त करने में काफी हद तक सफल रहे हैं। लगभग 20 करोड़ काश्तकारों को सीधे-सीधे सरकार के सर्म्पक में लाया गया है। बिचौलियों को 6 अरब 70 लाख रूपयों का भुगतान किया जाना था, उसमें से लगभग आधा पांचवीं पंचवर्षीय योजना के आरम्भ में ही दिया जा चुका था। साथ ही साथ इस बात पर ध्यान देना आवश्यक होग कि देश के कई भागों में जमींदार स्थानीय अफसरशाही के साथ साँठ-गाँठ कर बड़ी संख्या में काश्तकारों को जमीन से बेदखल करने और स्वयं खेती करने के लिए उस जमीन पर कब्जा करने में सफल हो गये।

बिहार, उड़ीसा, राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जमींदारों ने अपनी ताकत एवं असर के जोर पर बड़ी-बड़ी जोतों पर कब्जा जमाए रखने का रास्ता निकाल लिया। अतः मौटे तौर पर कहा जा सकता है कि जमींदारी उन्मूलन के कार्यक्रम में सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हमारा किसान आन्दोलन कितना सशस्कत रहा है। हालांकि इन असफलताओं के उपरांत उपरोक्त वर्णित राज्यों को छोड़कर देश के अन्य भागों में बिचौलियों को समाप्त करने से सम्बन्धित कानून काफी सफलता के साथ लागू किये गये। बिचौलियों को समाप्त करने का एक अच्छा परिणाम यह हुआ कि बंटाईदारी में काफी कमी आ गई और भारत के अधिकाँश भागों में अपनी जमीन पर स्वयं खेती करने वाले काश्तकारों का बोलबाला हो गया यदि समस्त भारत में पट्टेदारी की स्थिति पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि वर्ष 1953-54 में पट्टेदारी पर दिये गये इलाके का क्षेत्रफल देश में उपलब्ध कुल कृषि योग्य भूमि का पाँचवां हिस्सा था, जो कि वर्ष 1960-61 में घटकर दसवें हिस्से के बराबर रह गया था।

    जमीन की अधिकतम सीमा का निर्धारण करने से सम्बन्धित कानून सीमा से अधिक जमीन के मालिक किसानों और राजस्व अधिकारियों की भारी साँठ-गाँठ, नीति-निर्माता