वर्तमान वैश्विक अर्थव्यवस्था का भविष्य

                                                         वर्तमान वैश्विक अर्थव्यवस्था का भविष्य

                                                                                                                           डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा

                                                              

    ‘‘आजकल वैश्विक अर्थव्यवस्था का भविष्य डाँवाडोल ही है अतः हमें तकनीक एवं उद्योगों को प्राकृतिक नियमों के अनुकूल और पर्यावरण हितैषी बना कर ही इसके भविष्य को उज्जवल बनाना होगा’’।

    विश्व की अर्थव्यवस्था में निरंतर गिरावट जारी है, क्योंकि इस दुनिया में समस्त संसाधन सीमित है जबकि धरती पर निवास करने वाले मानव का लालच प्रत्येक दिन नई ऊँचाईयों का स्पर्श कर रहा है। प्राकृतिक सम्पदा कहे जाने वाले भौतिक संसाधनों के प्रति मानव का यह लालच पूर्व के किसी भी समय की अपेक्षा वर्तमान में अधिक संघर्ष, प्रतियोगिता मानव के आपसी टकरावों को बढ़ा रहा है।

इसमें चाहे वह जमीन हो, तेल, गैस या फिर खनिज, हमारी राष्ट्रीय सीमाओं माध्यम से इनकी स्थिति को परिभाषित करने के उपरांत भी मानव एवं उसके द्वारा निर्मित संस्थानों के द्वारा उसे और अधिक प्राप्त करने के निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं, जिसके फलस्वरूप  अंतर्निहीत रूप से विभिन्न स्तरों पर अराजकता एवं अव्यवस्था का चारो ओर बोलबाला हो रहा है।

                                                           

ऐसा लगता है कि आने वाले समय में यह अव्यवस्था और अधिक बढ़ती ही जाएगी। इन परिस्थितियों में यह सवाल उठना प्रासांगिक ही है कि क्या यह सब वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए ठीक है? और इस सवाल का जवाब हम सभी के सामने स्पष्ट है।

    मानव की तीन प्रमुख आवश्यकताओं, रोटी, कपड़ा और मकान पर आधारित वैश्विक अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में भौतिक संसाधनों और इनको प्रदान की जाने वाली सेवाओं का अधिक से अधिक व्यापारीकरण किया गया है। विश्व इतिहास का एक बड़ा और परम्परागत कालखण्ड़ छोटे समुदायों पर आधारित इकाईयों, अर्थात ऐसे गाँवों पर ही केन्द्रित रहा है, जहाँ पर इस प्रकार के संसाधनों को उपलब्ध पाया जाता था। विभिन्न क्षेत्रों की अर्थव्यवस्थाएं केवल इन्हीं गाँवों के आसपास ही केन्द्रित हुआ करती थी। हालांकि गाँवों के भीतर इन सम्पदाओं का अस्तित्व अपने आप में महत्वपूर्ण था क्योंकि यही गाँव आर्थिक गतिविधियों का एक प्रमुख केन्द्र हुआ करते थे।

    इसका अर्थ यह हुआ कि इन आर्थिक गतिविध्यिों का आयाम कम और सीमित ही हुआ करता था, और उस कालखण्ड़ के दौरान विश्व की जनसंख्या भी काफी कम थी। आधुनिक समय में औद्योगीकरण के आगन के साथ ही विश्व का शहरीकरण भी तीव्र गति के साथ हुआ है। इसके साथ ही मृत्युदर में कमी आने के चलते विश्व की जनसंख्या भी काफी तेज गति के साथ बढ़ी है। कृषिगत मशीनीकरण एवं अकार्बनिक उर्वरकों का प्रयोग करने से खेती करने के परम्परागत तरीकों में भी भारी बदलाव परिलक्षित होते हैं। उधर तीव्र गति के साथ बढ़ती हुई जसंख्या के कारण यह बदलाव अपेक्षित भी था।  

    वैश्विक मानलव समुदाय की मूल अर्थव्यवस्था पर यदि ध्यान दिया जाए तो स्पष्ट होगा कि इस ग्रह पर संसाधन सीमित ही हैं। वर्तमान में विश्व की विशाल जनसंख्या अकार्बनिक उर्वरकों,, अकार्बनिक कीटनाशकों तथा फसलों की जेनेटिक इंजीनियरिेग के बिना अपनी उदरपूर्ति हेतु खाद्य पदार्थों को पैदा करने में समर्थ नही है। कृषि तो स्थानीय ही है, परन्तु कृषिगत उत्पादों का वितरण कॉर्पोरेट हाउसेज के पास है जो कि पूँजीवादी तरीके से एक बड़े पैमाने पर काम करते हैं।

                                                                 

इसी प्रकार से मानव के जीवन के लिए दो अन्य आवश्यक तत्वों अर्थात कपड़ा और मकान के मामले में भी कमोबेश यही स्थिति देखने को मिलती है। टेक्सटाइल व कपड़ा उद्योग एवं रीयल स्टेट भी वर्तमान में मोटेतौर पर बड़े कॉर्पोरेट हाउसेज के द्वारा ही संचालित किए जा रहें हैं, जिसके लिए फंड की व्यवस्था बैंक और अन्य वित्तीय संस्थानों के माध्यम से की जाती है। शिक्षा, यात्रा, मनोरंजन और स्वास्थ्य, आदि अन्य मानव की आवश्यकताओं का कॉर्पोरेटीकरण के चलते अधिक बड़े बिजनेस मॉडल तैयार हुए हैं। इसके माध्यम से सदियो पुरानी एवं स्थाई ग्राम आधारित बन्द अर्थव्यवस्था के मॉडल को भी छिन्न-भिन्न कर दिया है और इसके लिए शहरी और खुले मॉडल का विस्तार एवं प्रचार किया है। हालांकि यह बिजनेस मॉडल अस्थिर तथा अस्थाई है, जिसका कारण भी काफी सरल है।

हमारे ग्रह पृथ्वी पर उपलब्ध सीमित भौतिक संसाधनों एवं आधुनिक तकनीकों के साथ शहरी मॉडल का दृष्टिकोण यह है कि अपने पर्यावरण को हानि पहुँचा कर भी यह आर्थिक प्रगति होती ही रहेगी। हालांकि यह मानना उचित ही नही अपितु मूर्खतापूर्ण भी है कि मानव के द्वारा ईजाद की गई इन नई तकनीकों के साथ ही विश्व की जीडीपी बढ़ती ही रहेगी। यह नई तकनीकें क्या हैं? इनके अन्तर्गत डिजिटल कम्प्यूटेशन एवं संचार की व्यवस्थाएं, कृत्रिम बुद्वि अर्थात एआई और नैनोक्रोलॉजी आदि शामिल हैं।

यह उपलब्ध तकनीकें केवल मानवीय सेवाओं की आवश्यकताओं को कम करती हैं। अब चैट जीपीटी, डिजिटल कम्प्यूटेशन और वैश्विक संचार का स्थान लेने जा रही है। ऐसे में यह सत्य है कि यह तकनीकें मानव को एक कुशल उत्पादक बनाने के स्थान पर उसे लगातार एक सेवा-प्रदाता बनाकर एक बड़े पैमाने पर रोजागारों को समाप्त करने जा रही हैं और अनेक कार्यों के सम्पादन में मानव का स्थान रोबोट उवं एआई आधारित मशीने ले लेंगी।

                                                              

युद्व में इन तकनीकों का उपयोग किए जाने पर यह अत्याधिक घातक हथियार के तौर पर काम करेंगी जिसके अन्तर्गत रोबोट सैनिक एवं डथेन युद्वों को लम्बा और अधिक विनाशकारी ही बनाएंगे। सम्पूर्ण इतिहास में आर्थिक, सैनिक एवं राजनीतिक वर्चस्व के मॉडल सामने आते रहेंगे। जबकि मानवतावादी व्यवस्थाएं और प्रकृति-हितैषी तकनीकें बिना किसी का शोषण किए ही सभी को आर्थिक लाभ दे पाने में सक्षम होती हैं।

वर्तमान में आई हमारी समस्त नवीन तकनीकें अधकचरी, क्रूर एवं निकृष्ट हैं। तकनीकों को ब्रह्मंड़ के वैज्ञानिक नियमों और प्रकृति के अनुकूल होना ही चाहिए, परन्तु इस दृष्टिकोण से हमारी अधिकाँश वर्तमान अति-निकृष्ट ही सिद्व होती हैं। क्योंकि हमारी अनेक तकनीकें पर्यावरण-विरोधी और उसके लिए विनाशकारी होती हैं। पर्यावरण-विरोधी और अत्याधिक विखण्ड़नकारी तकनीकें औद्योगिक उत्पादों की गुणवता को भारी हानि पहुँचाती हैं। हालांकि गुणवत्ता के प्रति लापरवाही निरंतर स्पष्ट होती जा रही है। ऐसे में वैश्विक अर्थव्यवस्था का भविष्य उस समय तक उज्जवल नही कहा जा सकता जब तक कि हमारी तकनीकें और उनके साथ ही हमारे उद्योग अपने आप को प्राकृतिक नियमों के अनुसार परिवर्तन करना नही आरम्भ कर देते और वे स्वयं को पर्यावरण के हितैषी नही बना लेते हैं।

हम अपनी वर्तमान तकनीकों के माध्यम से पर्यावरण को भारी हानि पहुँचा रहें है और इसी के साथ विड़म्बना यह है कि आज हो रहे इस पर्यावरण क्षय के कारण होने वाले नुकसानों को तो भुगत रहें हैं, परन्तु इसके उपरांत भी इस नुकसान को हम पूरी तरह से समझ नही पा रहे हैं। यह तो हमें जलवायु परिवर्तन के रूप में प्रकृति के द्वारा की गई बदले की कार्यवाहियों के चलते हमें बलपूर्वक पर्यावरण-हितैषी तकनीकों की ओर उन्मुख होना पड़ रहा है। आज जलवायु परिवर्तन की विभीषिका वैश्विक स्तर पर ही हमारे सन्मुख आन खड़ी हुई है।

इस परिदृश्य पर दृष्टिपात करने स्पष्ट हो जाता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के भविष्य को निर्धारित करने वाले कुछ तथ्यों में यह तथ्य भी शामिल है-

1.   रोजगार के अवसरों में भारी कमी,

2.   विश्व की आर्थिक रफ्तार का मन्द हो जाना, अथवा उसका नकारात्मक होना

3.   मुद्रा स्फीति में बढ़ोत्तरी,

4.   बड़े कॉर्पोरेट बिजनेस हाउसों का ध्वस्त होना,

5.   कर्ज-आधारित औद्योगिक एवं आर्थिक व्यवस्थाओं का संकट

6.   बैंकों के जैसे अनेक पूँजीवादी संस्थानों का ध्वस्त होना और

7.   बन्द ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं की ओर फिर से लौटना आदि।

                                                              

आज वैश्विक अर्थव्यवसथा का भविष्य तकनीक के स्थान पर विभिन्न पर्यावरणीय के माध्यम से निर्धारित होगा, क्योंकि पर्यावरण प्रकृति का ही एक अंग है, जो कि विकास तकनीकों का आविष्कार करने वाले मानव की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशाली है। जब तक हमारी तकनीकें प्रकृति-हितैषी एवं ईकोस्फीयर के साथ जुड़ी हुई नही होंगी तब तक वे लाभ के स्थान पर हानियाँ ही अधिक प्रदान करेंगी और अन्ततः उन्हें खारिज कर दिया जायेगा। आर्थिक वृद्वि का सच्चा अर्थ मानवीय जीवन के मूल्यों एवं उसकी गुणवत्ता में योगदान से ही होता है, परन्तु पर्यावरण को नष्ट कर जीवन की कल्पना करना भी मूर्खता के सिवा और कुछ नही है। अतः इसका फाईनल विश्लेषण इसी तथ्य पर आधारित होगा कि क्या व्यवस्थाएं, तकनीकें और समस्त प्रक्रियाएं प्रकृति तथा पर्यावरण-हितैषी भी हैं अथवा नही।

हालांकि, विडम्बना तो यह है कि आने वाले समय में होने वाली प्रकृति की भयंकरतम प्रतिक्रियाओं सम्पूर्ण मानव, जीव-जन्तुओं तथा पेड़-पौधों को भी झेलनी होगी। जबकि आने वाले समय में हमें प्रकृति की जिन भयानक आपदाआं का सामना हमें करना पड़ सकता है उनका पूर्वानुमान लगाना भी कोई सरल कार्य नही है, और इस स्थिति को वैश्विक अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में किसी भी प्रकार से सही नही कहा जा सकता है। नवीनतम औद्यौगिक तकनीकों के साथ इस मानव जाति की प्रसन्नता अधिक से अधिक 200 वर्षों तक ही रह सकती है। हालांकि मानव के द्वारा आविष्कृत तकनीकों के विनाशकारी परिणाम मानवजाति के समक्ष अभी आने शुरू हो चुके हैं। अतः ऐसे में हमारी आर्थिक नीतियों के असली निहितार्थों के ऊपर विचार करना भी सम्पूर्ण मानव जाति के लिए वर्तमान में आवश्यक हो गया है।

हमारी विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं का असली उद्देश्य मानव जीवन की गुणवत्ता और उसमें मूल्यों का सुजन ही होना चाहिए, परन्तु यह अत्यन्त ही दुःखद है कि वर्तमान समय में इसे भूलाया जा रहा है एवं जीडीपी में वृद्वि और कॉर्पोरेटीकरण एवं शहरीकरण को ही विकास का पर्याय माना जाने लगा है। हम सभी को इस तथ्य को सदैव स्मरण रखना चाहिए कि मानव के जीवन को गुणवत्तायुक्त और उसमें मूल्यों का सृजन करने में प्रकृति भूमिका महत्वपूर्ण एवं केन्द्रीय अवस्था में रहती है। ऐसे में हमें अधिक विलम्ब होने से पूर्व ही अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं के सम्बन्ध योजनाएं तथा अन्य सभी व्यवस्थाओं को भी प्रकृति के अनुकूल बनाना ही होगा।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ के कृषि महाविद्यालय में प्रोफेसर एवं कृषि जैव प्रौद्योगकी विभाग के विभागाध्यक्ष हैं।