अब हमारे गाँव भी उन्नति के रास्ते पर

                                                                 अब हमारे गाँव भी उन्नति के रास्ते पर

                                                                                                                                            डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा

                                                                

    वर्तमान समय में भारत की आधे से अधिक आबादी गाँवों में निवास करती है और इन गाँवों में निवास करने वाली इस जनसंख्या में से आधी से कुछ कम कृषि या उससे सम्बन्धित कार्यों पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर करती है, और इसी कारण से ग्रामीण क्षेत्र का विकास हमारी सरकारों की प्राथमिकता में शामिल रहा है। वस्तुतः स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से देश के ग्रामीण क्षेत्रों में उल्लेखनीय सुधार भी हुए हैं। आज की अपनी इस ब्लॉग पोस्ट के माध्यम से गत 75 वर्षों में ग्रामीण विकास के क्षेत्र की विकास यात्रा पर अपने विचार प्रकट करते हुए प्रोफेसर आर. एस. सेंगर-

    भारत सरकार के द्वारा कराए गए आर्थिक सवेक्षण वर्ष 2022-23 के आँकड़ों के अनुसार, देश की लगभग 65 प्रतिशत जनसंख्या हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, जिसमें से 47 प्रतिशत जनसंख्या की आजीविका का एकमात्र रास्ता कृषि के क्षेत्र से ही होकर निकलता है। आजादी प्राप्त करने के बाद भी हमने विकास के पाश्चात्य मॉडल को अंगीकार किया, जिसके अनुसार क्षेत्रीय संतुलन बना पाना सम्भव ही नही था।

    इस दौरान देश में औद्योगिक विकास तो खूब हुआ, परन्तु वह शहरों तक ही सीमित होकर रह गया। इसका परिणाम यह हुआ कि देश में औद्योगिकीकरण, वाणिज्यीकरण एवं शहरीकरण एक दूसरे का पर्याय बनते चले गए। इसके चलते शहर विकास के पथ पर तेजी से बढ़ते चले गये और इससे देश के अंदर एक समृद्व इण्डिया बनता गया, जहाँ शिक्षा एवं स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाएं और रोजगार के बेहतरीन अवसरों में वृद्वि हुई तो वहीं दूसरी और एक अविकसित भारत, जो देश की सम्पूर्ण जनसंख्या के लिए अनाज, सब्जी, फल, दूध, दही और घी आदि वस्तुओं की आपूर्ति तो करता रहा, परन्तु यह क्षेत्र अपने आप आज भी गरीबी और बेरोजगारी के जैसी बड़ी समस्या के विरूद्व संघर्ष कर रहा है।

                                                               

    इस क्षेत्र में न तो गुणात्मक शिक्षा एवं स्वास्थ्य की सुविधाएं ही उपलब्ध हैं और न ही रोजगार के पर्याप्त अवसर। इस प्रकार से यह कहना भी कतई गलत नही होगा कि इस लम्बी समयावधि के दौरान अविकसित भारत के करीब 6.5 लाख गाँव विकसित इण्डिया के उपनिवेश ही बने रहे। स्वतंत्र भारत में केन्द्र एवं राज्य सरकारों के द्वारा देश के ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए विभिन्न महत्वपूर्ण कार्य किए गए, परन्तु इन कार्यों की गति शहरों के समान तीव्र नही रही कि जो वे शहरों के साथ कदम से कदम मिलाकर विकास के क्षेत्र में आगे की ओर अग्रसर हो सकें।     

    वर्ष 2014 के बाद सरकार के प्रयासों चलते प्रायः हर घर तक बिजली की पहूँच, पेय जल स्त्रोतों में व्यापक सुधार, स्वास्थ्य सार्वजनिक बीमा योजना का विकास, बैंक के खातों में वृद्वि और मोबाईल फोन्स तथा इंटरनेट के उपयोग में वृद्वि के जैसे महत्वपूर्ण कार्य किए गए। महिलाओं को सशक्तिकरण प्राप्त हुआ तो बच्चों के स्वास्थ्य सम्बन्धी आँकड़ों में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ। पण्ड़ित दीनदयाल उपाध्याय अंत्योदय योजना- राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के अन्तर्गत आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों को भी स्वरोजागार के अवसर प्राप्त हुए।

योजनाओं पर ध्यान भी देना आवश्यक

                                                              

    भारत के बन्द पड़े या कहें कि मृतप्रायः पारम्परिक कुटीर एवं घरेलू उद्योंगों को आगे बढ़ाने की दिशा में, चीन की भाँति कोई भी गम्भीर प्रयास नही किए गए। इसका परिणाम यह हुआ कि रोजगार के उचित अवसरों के नही होने के कारण भारतीय कृषि पर इसकी बढ़ती हुई जनसंख्या का भार निरंतर कृषि पर ही बढ़ता चला गया। उधर रोजगार की तलाश में गाँवों के शिक्षित युवाओं और कुशल तथा अकुशल कामगारों का शहरों की ओर पलायन वर्तमान में भी जारी है।

90 दशक में आरम्भ की गई नई आर्थिक नीति, उदारीकरण एवं वैश्वीकरण का ग्रामीण अर्थव्यवस्था, समाज एवं सँस्कृति के ऊपर कुछ अच्छे तो कुछ बुरे प्रभाव को आसानी के साथ देखा जा सकता है।

    इन परिस्थितियों के चलते अगर जातिवाद सामाजिक स्तर पर कमजोर हुआ तो वहीं वोटों की गन्दी राजनीति के कारण राजनीति में जाति का महत्व बढ़ता ही जा रहा है। जातिगत आरक्षण, जातीय सर्वेक्षण और एक वोट बैंक के रूप में जातियों का उपयोग किए जाने के कारण हमारे ग्रामीण परिवेश में जातीय द्वेष और यदा-कदा इनके बीच में होने वाले संघर्ष की घटनाएं भी अक्सर होने लगी हैं।

जाति के आधार पर ही राजनीतिक दल और उनमें गठबन्धन भी बनने लगे। सामान्यतौर पर गाँव के आपस के सदभाव से ही निवास करते हैं, परन्तु समय-समय पर राजनीतिक दलों और दुर्भाग्य से सभ्राँत कहे जाने वाले विभिन्न बुद्विजीवियों के कारण हमारे ग्रामीण समाज में भी जातिगत संघर्ष होने लगे।

भ्रष्टाचार को दूर करने के लिण् गम्भीरतम प्रयास

                                                          

    देश में भूमि सुधार और कृषि के आधुनिकीकरण के चलते हमारे कृषिगत उत्पादन में तो अपार वृद्वि हुई, परन्तु वर्तमान में कृषि-कार्यों की बढ़ती हुई लागत की तुलना में किसानों की आय में समुचित वृद्वि नही हो पा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा वर्ष 2022 तक किसानों की आय में दुगुनी वृद्वि करने के लक्ष्य को निर्धारित किया गया था। सरकार के द्वारा इसके सापेक्ष कुछ महत्वपूर्ण कदम भी उठाए गए। एमएसपी के अन्तर्गत आने वाली फसलों की संख्या और एमएसपी की दरों में 1.5 से 2 गुना तक की वृद्वि की गई है। बावजूद इसके अपने कृषिगत उत्पादों का मूल्य निर्धारित करने में किसान आज भी बेचारा ही है।

    गत दिनों केन्द्र सरकार के द्वारा लाए गए कृषि बिल के माध्यम से किसानों की आय वृद्वि करने की बात कही, जिसका दिल्ली, पश्चिमी उत्तर-प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों में व्यापक विरोध किया गया। हालांकि इस विरोध के दौरान विभिन्न किसान संगठनों में फूट भी स्पष्ट तौर पर दिखाई दी और विपक्षी दलों के द्वारा इस किसान आन्दोलन को अधिक उग्र बनाने और इसे सरकार के विरूद्व एक हथियार के रूप में प्रयोग करने के मामले में भी कोई कोर-कसर नही छोड़ी गई।

इस आन्दोलन की बढ़ती उग्रता के सामने सरकार को झुकना पड़ा और नतीजन तीनों ही कृषि बिलों को वापस ले लिया गया। जबकि साधारण किसान एक बार फिर से बिचौलियों के चंगुल में फसें रहने के लिए ही विवश हो गए।

    स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विभिन्न सरकारी नीतियों एवं पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्र के विकास के लिए विभिन्न योजनाओं को बनाया और उन्हें कार्यान्वित किया गया। लेकिन हमारी लचर प्रशासनिक व्यवस्था और ऊपर से लेकर नीचे तक व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण इन विकास योजनाओं का लाभ अंतिम पायदान पर मौजूद लोगों तक नही पहुँच पाया।

    विख्यात अर्थशास्त्री एवं पूर्व प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह के शासन काल के दौरान भी विभिनन ग्रामीण विकास योजनाओं को लागू किया गया। महात्मा गाँधी ग्रामीण रोजगार गारंटी के जैसी महत्वकाँक्षी योजना की सर्वत्र प्रशंसा की गई, परन्तु ऐड़ी से लेकर चोटी तक व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते इसमें जो लूटपाट मची उसकी चर्चा भी होनी आवश्यक है।

    वर्ष 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इन्इिरा गाँधी के द्वारा ‘‘गरीबी हटाओ’’ का नारा दिया गया तो पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री जी के द्वारा ‘‘जय जवान, जय किसान’’ का नारा दिया गया। इन सभी नारों को चुनावों के दौरान राजनीतिक दल दोहराते रहे। इस पर सेमिनारों, सभा-गोष्ठियों, विधान सभाओं और संसद इत्यादि में डिबेट भी होते रहे परन्तु परिणाम के नाम पर फिर से केवल वही ढाक के तीन पात रहे।

आशा की नई किरण

                                                         

    वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से थोड़ा-बहुत आशा की किरण दिखाई देनी शुरू हुई। ग्रामीण क्षेत्र के विकास एवं इंफ्रास्ट्रक्चर पर विशेष ध्यान दिया गया। ‘‘प्रधानमंत्री किसान समृद्वि योजना’’, ‘फसल बीमा योजना’,:प्रधानमंत्री सिंचाई योजना’ ‘पेंशन योजना’, ‘कृषि-ऋण योजना’, ‘स्वरोजगार योजना’, ‘आवास योजना’, ‘उज्जवला’ आदि के साथ ही अनेक क्रान्तिकारी योजनाओं को आरम्भ किया गया।

डिजिटल इण्डिया और डायरेक्ट बेनिफिट ट्राँसफर आदि योजनाओं के चलते लाभार्थियों को दी जाने धनराशि का बंदर-बांट कम हुआ, और वित्तीय व्यवस्था में अधिक पारदर्शिता दिखाई देने लगी, परन्तु ब्लॉक, जिला एवं राज्य स्तर पर विकास की विभिन्न योजनाएं अभी भी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी दिखाई दे रही हैं।

    प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दूरदर्शी सोच, उनके ‘सबके साथ, सबका विकास, सबका प्रयास’ और ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के दृढ़ संकल्प के माध्यम से भारतीय नागरिकों की आकांक्षाएं और भी बढ़ी हैं और इसी के साथ लोगों में ऊर्जा और उत्साह का स्तर भी बढ़ा है। आज दुनिया भर में भारत के बढ़ते हुए कद से प्रत्येक भारतीय स्वयं को गौरान्वित अनुभव कर रहा है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।