एक कदम ज्ञानवान समाज की ओर

                                                                        एक कदम ज्ञानवान समाज की ओर

                                                                                                                                          डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा

                                                                      

‘‘स्कूली शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की जो रूपरेखा (एनसीएफ) लाँच की गई है, उसके अन्दर वह समस्त तत्व मौजूद हैं जिनको राष्ट्रीय क्षिक्षा नीति के अन्तर्गत प्रस्तावित किया गया था। हमारी ज्ञान परम्परा का मुख्य आधार ‘‘’वसुन्धैव कुठुम्बकम्’ ही रहा है और किताबों में 21वीं सदी की आवश्यकताओं के साथ भारतीय ज्ञान परम्परा को विशेष रूप से शामिल किया गया है’’।

    कैन्द्रीय शिक्षामंत्री धर्मेंद्र प्रधान के द्वारा स्कूली शिक्षा हेतु राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की जो रूपरेखा (एनसीएफ) लाँच की गई है, उसके अन्दर ऐसे समस्त तत्वों का समावेश किया गया है, जिन्हें नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी), 2020 के अन्तर्गत प्रस्तावित किया गया था। दुनिया के सभी देशों की तरह ही भारत का भी यही मानना है कि देश की शिक्षा पद्वतियाँ भी यहाँ की संस्कृति एवं ज्ञान की परम्परा से अलोकित हों और शिक्षा व्यवस्था की जड़ें देश की ज्ञानार्जन परम्परा के साथ जुड़ी हुई हों। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था के लिए ब्रिटिशकालीन अनुभव बहुत अच्छा नही रहा है।

    चूँकि, उस समय की शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य देश के एक विशेष वर्ग को लाभ पहुँचाना और अपने लाभ के लिए लोगों को तैयार करना ही था। परन्तु अब जो नई रूपरेखा प्रस्तुत की गई है, उसके अन्तर्गत भारतीय शिक्षा के पुराने अनुभवों और कमियों के ऊपर एक बेहतर तरीके से पूर्ण रूप से विचार किया गया है। इस नई रूपरेखा के अन्तर्गत बच्चों पर पड़ने वाले तनाव के ऊपर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित किया गया है।

                                                                  

    पिछले काफी समय से हमारे स्कूली बच्चों के ऊपर पुस्तकों, पाठ्यक्रम और परीक्षा के बढ़ते भय और तनाव को लेकर चिंताएं जताई जा रही थी, और इन्हीं चिंताओं के समाधान के लिए एनसीएफ के अन्तर्गत प्रयास किए गए हैं। एक ही सत्र में बोर्ड की दो बार परीक्षाएं तथा इन परीक्षाओं में प्राप्त सर्वश्रेष्ठ अंकों को बरकरार रखने का विकल्प चुनने के जैसा प्रावधान निश्चित् रूप से बच्चों के ऊपर से पढ़ाई के दबाव को कमतर ही करेंगे। यद्यपि इसके लिए विभिन्न बोर्डों को भी अपने प्लेटफार्म तैयार करने होंगे। बच्चे जब भी स्वयं को तैयार समझेंगे वे अगली परीक्षा में पार्टिसिपेट कर सकेंगे।

    वास्तव में, वर्ष में एक ही आयोजित की जाने वाली बोर्ड की परीक्षा के दौरान बच्चों को अनेक परेशानियों का समाना करना पड़ता था। इसमें सबसे अहम बात यह है कि बच्चे ने पूरे वर्ष भर जो कुछ भी पढ़ा है, उसे कंठस्थ कर परीक्षा देने के तनाव को हम सभी भली-भाँति समझ सकते हैं, और यही वह कारण है जो कि कोचिंग व्यवस्था के पनपने एवं उसके फलने-फूलने के लिए जिम्मेदार है, और यहीं से पैदा होते है कोटा के जैसे कोचिंग के अड्डे।

    पिछले कुछ ही महीनों के दौरान कोटा में अध्ययन करने वाले 20 से अधिक बच्चों के द्वारा आत्महत्या करने के मामले सामने आ चुके हैं। इस प्रकार की घटनाओं से ही पूरा देश शर्मसार हो उठता है। इसमें सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि आखिर कोटा के जैसी संस्कृतियाँ पनप ही क्यों रही हैं? स्कूलों को भी यह समझना होगा इसका कारण उनकी अपनी संस्कृति ही हैं। क्योंकि उनकी लचर व्यवस्था से आहत बच्चों को कोटा के जैसे स्थान पर जाने की आवश्यकता का अनुभव होता है।

                                                         

    इस व्यवस्था के प्रति हमारा सुझाव तो यह है कि इसके लिए हमें अपने गाँवों में उपलब्ध प्राथमिक स्कूलों की शिक्षा की गुण्वत्ता को अधिक सुदृढ़ता प्रदान करनी होगी और अपने प्राथमिक स्कूल की दशा को भी सुधारना होगा। बच्चों को उनके बचपन से ही प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उन्हें मानसिक रूप से तैयार करने की शुरूआत भी वहीं से करनी होगी।

इसमें अच्छी बात तो यह है कि वर्तमान सरकार भी इसके प्रति पूरी तरह से गम्भीर ही दिख रही है। अब केन्द्रीय मंत्री ने स्वयं ही कहा है कि अब छात्रों को कोचिंग मॉडल एवं रटन विद्या तंत्र से मुक्ति प्राप्त हो सकेगी।

    कहने का अर्थ यह है कि हम स्वयं वर्ष 1993 से अध्यापन का कार्य रहें हैं और ऐसे विभिन्न स्कूलों के बारे में जानते हैं, जहाँ स्कूली शिक्षा के साथ ही प्रतिस्पर्धात्मक शिक्षा को भी चलाया जा रहा है और ऐसे में यह बच्चे विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं में सफलता भी प्राप्त कर रहें हैं। हालांकि, इसके लिए हमारे शिक्षकों को भी विशेष रूप से कार्य करना होगा, जिससे कि बच्चों के ऊपर से प्रतियोगी परीक्षाओं के दबाव को कम किया जा सके।

    एनसीएफ की रूपरेखा के अन्तर्गत उक्त समस्त बिन्दुओं का संज्ञान भी उचित प्रकार से लिया गया है। वैसे यह किस प्रकार से कार्यान्वित किया जाएगा इसके ऊपर सीबीएससी एवं एनसीईआरटी के द्वारा भविष्य में जानकारी प्रदान की जाएगी।

                                                        

    वर्ष 1982 तक तत्कालीन सोवियत संघ में 5वीं कक्षा तक के बच्चों की अभिरूचियों पर विशेष ध्यान दिया जाता था। वहाँ की सरकार के द्वारा आवासीय स्कूलों का निर्माण करवाया गया था, जिनमें इन बच्चों की सामान्य पढ़ाई को जारी रखते हुए उनकी अभिरूचियों के सन्दर्भ में विशेष कुछ विशेष व्यवस्थाएं भी की गई थी। अब यदि इसी पैटर्न को भारत में भी अपनाया जाता है तो इससे हमारे सरकारी स्कूलों की स्थिति निश्चित् रूप से सुदृढ़ तो होंगे ही इसके साथ ही निजी स्कूलों का चलन भी कम होगा।

    इसी प्रक्रिया के तहत कोटा के जैसे कोचिंग केन्द्रों को भी हत्तोसाहित किया जा सकेगा और देश का प्रत्येक बच्चा देश की प्रगति में अपना अभिनव सहयोग भी प्रदान करने में सक्षम होगा। हालांकि एनसीएफ के तहत इस मामले को भी पूरी गम्भीरता के साथ लिया गया है। इसके अन्तर्गत कक्षा 9 तथा 12वीं के पाठ्यक्रम को इस प्रकार से डिजाइन किया गया है, जिससे कि छात्र स्वयं यह निर्धारित कर सकें कि उन्हें अपना भविष्य किस क्षेत्र के लिए संवारना है। 

     अगले शैक्षणिक सत्र के लिए एनसीएफ के द्वारा जारी की गई गाइडलाइन्स के अनुसार, पाठ्य पुस्तकों को तैयार करने का उत्तरदायित्व एनसीईआरटी को दिया गया है, जो कक्षा 3 से लेकर कक्षा 12 तक की कक्षाओं के लिए नवीन पाठ्यक्रम के अनुसार पुस्तकें तैयार कर रही है। कुछ लोग इन सभी परिवर्तनों का विरोध भी कर रहें हैं, हलांकि ऐसे में ऐसे लोगों को इसके सम्बन्ध में पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।

    एनसीएफ के द्वारा जारी किए गए दिशा-निर्देश हमारे समस्त राज्यों की सहभागिता के अनुसार ही तैयार किए गए हैं। विभिन्न राज्यों के शिक्षा क्षेत्र के गणमान्य व्यक्ति एवं संवैधानिक पदों पर आसीन विद्वानों के परामर्श के भी इसके अन्तर्गत शामिल किया है।

    यह एक शश्वत् सत्य है कि शिक्षा को सदैव ही राजनीति से दूर ही रखा जाना चाहिए और एनसीईआरटी इस तथ्य एवं स्थानिकता के महत्व को अच्छी तरह से समझती है। यही कारण एनसीईआरटी के द्वारा पहले भी कहा जाता रहा है कि प्रत्येक राज्य अपनी मातृभाषा में ही पुस्तकों को तैयार कर उनमें स्थानीय पाठ्यक्रम/पाठों को भी शामिल करें।

                                                                   

    जैसे, माना जाए कि पुस्तक का कोई अध्याय पर्यावरण से सम्बन्धित है, तो उसकी विषय-वस्तु के क्रम में तिरूअनंतपुरम एवं त्रिपुरा के सन्दर्भ में एक समान कभी भी नही हो सकती, जबकि इसका स्तर एक समान होना बहुत आवशक है। देश के समस्त शिक्षा बोर्ड एनसीईआरटी के साथ ही सम्बद्व हैं, जो कि एक सलाह प्रदायक निकाय है, और इसकी साख पर कोई सवाल नही उठाए जा सकते हैं। एनसीएफ के द्वारा जारी किए गए दिशा-निर्देश का एकमात्र उद्देश्य देश की शिक्षा व्यवस्था को स्तरीय बनाने का है। अतः इन दिशा-निर्देशों की आलोचना करने से पूर्व हमें गम्भीरतापूर्वक इनका अध्ययन करना चाहिए।

जारी की गई राष्ट्रीय पाठ्यचर्या का अवलोकन करते हुए गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का यह कथन सामयिक है, जिसमें उन्होंने कहा था कि देश के प्रत्येक बच्चे को बिना किसी भेदभाव के दो वरदान प्रकृति से प्राप्त होते हैं, जिनमें से पहला, विचारों की शक्ति एवं दूसरा होता है उनकी कल्पना की शक्ति, और मैं इनमें दो तत्वों को और जोड़ना चाहता हूँ और वह हैं जिज्ञासा एवं सृजनात्मकता, और जब इन चारों तथ्यों की अवहेलना की जाती है तो हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था ही कुंठित हो जाती है।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या के अन्तर्गत इन चारों तथ्यों पर उचित ध्यान दिया गया है, जिससे कि ज्ञान समाज की सर्वाधिक दीर्घ आवश्यकता ‘नवाचार’ को पूर्ण किया जा सके। जबकि इनकी सफलता सही अर्थों में राष्ट्र-निर्माता शिक्षकों पर ही निर्भर करती है।

                                                         

इसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था का जुड़ाव अपनी साँस्कृतिक जड़ों से होने की है और साथ ही इसे नैतिकता और मानवीय मूल्यों से जोड़ने की भी आवश्यकता है। इसे गाँधी के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के कल्याण तक लेकर जाने की आवश्यकता है।

हालाँकि, वसुधैव कुटुम्बकम हमारी ज्ञान परम्परा का पुरातन आधार है और यह अच्छी बात है कि पुस्तकों में 21वीं सदी की आवश्यकताओं के साथ ही भारतीय ज्ञान परम्परा को विशेष रूप से शामिल किया गया है। केन्द्र सरकार के द्वारा राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की जो रूपरेखा प्रस्तुत की गई है वह अन्ततः इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति करने की दिशा में उन्मुख हो रही हैं। 

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।