खुम्ब की छतरी तले भूख टले

                                                                 खुम्ब की छतरी तले भूख टले

                                                                                                                डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

                                                           

         तत्काल पैसा मिलने की सोच ने युवा वर्ग का झुकाव ऐसी खेती अपनाने की ओर किया है, जो मेहनत भले ही कराए, मगर आमदनी में कमी न लाये। ऐसे में मशरूम यानि खुम्ब युवाओं का ऐसा ही पसंदीदा कृषि व्यवसाय है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह आमदनी के साथ-साथ पाष्टिक भी है, जो बढ़ती भूख से टक्कर लेने में सक्षम है। खुम्ब की खेती पौष्टिकता एवं औषधीय गुणों का ज्ञान धीरे-धीरे लोगों में बढ़ा है और यही कारण है कि पिछले दशक में पूरे संसार में खुम्ब की मांग एवं उत्पादन दोनों में ही अभूतपूर्व वृद्धि हुई है।

बटन खुम्ब की खेती से मिली सफलता के कारण युवा वैज्ञानिकों ने खुम्ब की अन्य जातियों को उगाने के लिये भी अनुसंधान और तेज कर दिये हैं। युवा वैज्ञानिकों की बदौलत ही आज खुम्ब की लगभग 80 जातियां प्रयोगशाला में संवर्धित की जा चुकी हैं, जिनकें से लगभग 20 जातियां प्रयोगशाला से बाहर की परिस्थितियों में भी उगायी जा चुकी हैं। फिर भी अब तक केवल 9 जातियों को ही वास्तविक अर्थ में व्यवसायिक दर्जा प्राप्त हुआ है और विभिन्न देशों में उनकी बढ़ती हुई खेती एवं मांग के कारण बटन खुम्ब की प्रतिशतता में पर्याप्त गिरावट आई है। यद्यपि बटन खुम्ब की वर्तमान भागीदारी मात्र 37 प्रतिशत ही रह गई है।

परन्तु भारत की परिस्थितयां, पूरे विश्व के परिप्रेक्ष्य से काफी भिन्न हैं और आज भी हमारे देश के विशाल बाजार में खुम्ब की उपलब्धता लगभग शून्य होने की वजह से और कई अन्य विशेष कारणों से खुम्ब की खेती की अपार संभावनाएं हैं। इसमें संदेह नहीं है कि इन संभावनाओं को परिणामों में रूपान्तरिक करने के लिये देश के युवा-वर्ग की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो सकती है। वस्तुतः उनके साथ खुम्ब उत्पादन स्वर्णिम-अवसरों का एक अतुल भण्डार प्रस्तुत करता है। यदि भारत के युवक-युवतियां इनका पूरा लाभ उठायें तो न केवल वे अपनी व अपने परिवार की आय बढ़ा सकेंगे, अपितु वे देश की अधिकांशतः शाकाहारी जनता को प्रोटीन का एक स्वादिष्ट एवं उत्तम स्रोत उपलब्ध कराने में भी सहायक सिद्ध होंगे।

                                                                

भारतीय युवाओं ने बढ़ाया खुम्ब उत्पादन - पिछले 5-7 वर्षों में भारत के खुम्ब उत्पादन में विलक्षण बढ़ोत्तरी हुई, जिसका सीधा श्रेय युवा वैज्ञानिकों को ही जाता है। आज हमारा खुम्ब का उत्पादन लगभग 40 हजार टन है, जिसमें बटन खुम्ब की भागीदारी लगभग 90 प्रतिशत है, परन्तु विश्व उत्पादन की तुलना में हमारा उत्पादन 1 प्रतिशत से भी कम है। इसी प्रकार हम अपने पड़ोसियों जैसे चीन, इंडोनेशिया एवं थाइलैण्ड से भी पीछे हैं, जबकि भारत और चीन दोनों में लगभग एक ही समय में इसके उत्पादन की शुरूआत हुई थी। इतना ही नहीं, चीन विश्व बाजार में काफी सस्ती दर पर खुम्ब उपलब्ध कराता है और विभिन्न प्रकार के खुम्बों का उत्पादन करता है।

भारत में अभी भी बटन खुम्ब उत्पादन की दोनों विधियां साथ-साथ चल रही हैं, परन्तु अधिकांश खुम्ब, उच्च तकनीकी वाले वातानुकूलित फार्मों में उगाई जाती है। उत्तर-पश्चिमी भारत में जैसे पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मौसमी फार्मों में अभी भी श्वेत बटन खुम्ब का उत्पादन प्राकृतिक परिस्थितियों में ही होता है और उनका उत्पादन खर्च भी काफी कम पड़ता है, परन्तु ऐसे मौसमी फार्मों में खुम्ब की उत्पादकता काफी कम होती है, वहां उगाये गये खुम्बों की गुणवत्ता अच्छी नहीं होती तथा इनमें बीमारियों एवं कीड़ों के आक्रमण की संभावना बहुत अधिक रहती है, दूसरी ओर वातानुकूलित फार्मों की लागत बहुत अधिक होती है, क्योंकि उन्हें आधारभूत ढांचे तथा आयात की गई मशीनों पर बहुत अधिक खर्च करना पड़ता है।

                                                             

इसके अतिरिक्त इन मशीनों के रख-रखाव तथा बिजली की ऊँची दरों के कारण इन फार्मों में खुम्ब उत्पादन की लागत काफी अधिक पड़ती है। भारत में खुम्ब उत्पादन की एक तीसरी प्रणाली का भी विस्तार हो रहा है, जिसमें एक ऐसी केन्द्रीय खुम्ब इकाई की स्थाना की जाती है, जिसमें खाद तथा खुम्ब के बीज बनाने की व्यवस्था होती है और वहां के पास्च्युरित बीजित खाद आसपास के प्रशिक्षित युवा खुम्ब उत्पादकों को दी जाती है, जो खुम्ब का उत्पादन करते हैं। कुछ राज्यों में ऐसी इकाई लगभग बन चुकी है और जल्द ही अपना कार्य शुरू करने वाली है। इस प्रणाली की सफलता के लिये केन्द्रीय सरकार ने पर्याप्त वित्तीय सहायता प्रदान की है और जल्द ही इसके परिणाम सामने आने लगेंगे।

आशा है कि इस प्रणाली की सफलता के फलस्वरूप देश में अनेक ऐसी इकाईयां सरकारी क्षेत्र में भी स्थापित की जाएंगी, जिनमें खाद और बीज के अतिरिक्त कटाई उपरांत संसाधन की भी व्यवस्था रहेगी, जिससे विपणन की कठिनाई भी कम हो जाएगी।

कुनबा खुम्ब का - युवाओं को भरपूर खुम्ब उत्पादन पाने से पहले सही किस्म अपनाना जरूरी है। देश में अभी भी केवल तीन प्रकार के खुम्ब ही उगाये जाते हैं:

1.   श्वेत बटन खुम्ब (ऐगेरिकस बाईस्पोरस)

2.   सीपीनुमा खुम्ब (प्लूरोटस की जातियां) तथा

3.   पुआल की खुम्ब (वॉलवेरियेला की जातियां)।

इनमें से 90 प्रतिशत उत्पादन केवल श्वेत बटन खुम्ब का होता है। देश में मौसम तथा कृषि अवशिष्टों की विविधता पाई जाती है, अतएव अनियंत्रित वातावरण में भी यहां कई प्रकार के खुम्ब अलग-अलग ऋतुओं में तथा अलग-अलग स्थानों में उगाई जा सकती है और कृषि अवशिष्टों के अतुल भण्डार का उपयोग करके उन्हें प्रोटीन में परिवर्तित किया जा सकता है। कुछ अन्य खुम्बों जैसे काला कन चपड़ा (ब्लैक इयर मशरूम), दूधिया मशरूम तथा शिटाके मशरूम को उगाने की विधि विकसित की जा चुकी है और उन्हें सरलता से अपने देश में लगाया जा सकता है। स्पष्ट है कि खुम्बों में विविधता लाकर इनकी खपत और विपणन दोनों में सुधार लाया जा सकता है।

                                                                  

बात खुम्ब के उत्पादन के बाद की - देश में अधिकांश लोग शाकाहारी हैं अथवा यहां के भोजन में शाकाहारी व्यंजनों की प्राथमिकता होती है, परन्तु अभी भी यहां खुम्ब की खपत 20-25 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष है, जो स्पष्टतः नगण्य है। इसकी तुलना में दूसरे देशों में 2.5-3.0 किलोग्राम खुम्ब की खपत प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष होती है। स्पष्ट है कि यदि हम लोगों में खुम्ब की पौष्टिकता व औषधीय गुणों के बारे में जागृति पैदा करें और खुम्ब को वाजिब दामों पर तथा विभिन्न प्रकार के उत्पादनो/व्यंजनों के रूप में उपलब्ध करायें तो हमारे देश में भी खुम्ब के प्रति लोगों की रूचि बढ़ेगी और खुम्ब की खपत अधिक होगी।

युवा खुम्ब उत्पादक जान लें कि खुम्ब की भंडारण क्षमता इतनी कम है कि कटाई के बाद ताजी अवस्था में उन्हें तुरंत बाजार भेजा जाना जरूरी होता है, अन्यथा यह काले पड़ने लगते हैं। साथ ही सामान्य तापमान पर उन्हें दो-एक दिन से ज्यादा रखना भी संभव नहीं होता, क्योंकि शीघ्र ही वे सड़ने लगते हैं। ऐसी अवस्था में उन्हें डिब्बाबंद करके अथवा संसाधित करके ही बचाया जा सकता है। और बाजार में बेचा जा सकता है। भारत का घरेलू बाजार बहुत बड़ा है, परन्तु खुम्ब के विपणक में कई समस्यायें सामने आती हैं।

उदाहरण के लिये, खुम्ब एक गैर-पारंपरिक उत्पाद है और लोगों में विशेषकर पुरानी पीढ़ी के लोगों में कई प्रकार की भ्रांतियां एवं अंधविश्वास विद्यमान हैं।

इन्हें दूर करने के लिये बहुत ही सक्रिय तथा आक्रमक विपणन - कार्यक्रमों की तथा समर्पित बिक्री - कर्मचारियों की आवश्यकता होगी। यह काम फिर आता है, युवाओं के कंधों पर। इसके अतिरिक्त, सरकार की ओर से भी, गुणवत्ता पर आधारित मूल्य-निर्धारण तथा कम से कम बिचौलियों वाली एक सक्षम विपणन-प्रणाली के विकास के लिये आवश्यक सहायता अनिवार्य होगी।

                                                                             

यदि प्रशिक्षित युवाओं-युवतियों की सहायता ली जाये तो दोहरे लाभ की आशा की जा सकती है। एक ओर खुम्ब उत्पादन से संबंधित व्यवसाय को अपनाकर हमारे देश के युवक-युवतियां अपना रोजगार चला सकते हैं और दूसरी ओर खुम्ब उत्पादन से जुड़ी समस्यायें एवं चुनौतियों का भी प्रभावी ढंग से समाधान किया जा सकता है। यहां यह स्पष्ट करना उचित होगा कि खुम्ब उत्पादन से संबंधित कई छोटे-छोटे व्यवसाय भी किये जा सकते हैं और यह आवश्यक नहीं कि कोई एक उद्यमी उत्पादन तथा विपणन से जुड़े सभी कार्यों को एक साथ अपनाये। वर्तमान में खुम्ब से जुड़े निम्नलिखित व्यवसायों की संभावनायें उपलब्ध हैं, जिन्हें अपनाकर अलग-अलग उद्यमी अपना व्यवसाय शुरू कर सकते हैं।

खुम्ब की समेकित खेती - इसमें एक या एक से अधिक जाति के खुम्बों का उत्पादन मौसमी या वातानुकूलित फार्मों में किया जाता है, परन्तु ऐसे फार्म में बीज उत्पादन, खाद-निर्माण तथा संसाधन इकाईयों का होना आवश्यक होता है। इसलिए किसी भी वातानुकूलित मशरूम (खुम्ब) फार्म की स्थापना में काफी धन की आवश्यकता होती है और साथ ही इसमें अनेक व्यक्तियों को रोजगार भी मिलता है।

                                                            

बीज उत्पादन इकाई - बीज उत्पादन का व्यवसाय किसी भी विज्ञान के स्नातक द्वारा किया जा सकता है। इसके लिये उस व्यक्ति को प्रारंभिक प्रशिक्षण लेना आवश्यक होता है। साथ ही किसी खुम्ब वैज्ञानिक की देखरेख में एक प्रयोगशाला की स्थापना करनी पड़ती है, जिसकी लागत कम से कम दो लाख रुपये होती है, जो इसकी बीज उत्पादन क्षमता पर निर्भर करता है। बीज उत्पादन के व्यवसाय में युवक-युवतियां दोनों ही भाग ले सकते हैं और अच्छी कमाई कर सकते हैं।

                                                          

खाद निर्माण इकाई - बटन मशरूम की खाद तथा अन्य खुम्बों के लिये आवश्यक सामग्री के निर्माण हेतु ऐसी इकाईयों की स्थापना की जा सकती है, जिनमें बड़ी मात्रा में खाद बनाई जा सके और खुम्ब उत्पादकों को बेची जा सके। इसके लिये खाद निर्माण की मशीनें, एक पास्चुरीकरण कक्ष और एक खाद प्रांगण की आवश्यकता होती है, जिन पर कई लाख रुपये की लागत आती है। यदि मशीनों की जगह अधिकांश कार्य श्रमिकों की सहायता से पूरे किए जायें तो ऐसी इकाई पर आने वाला खर्च कम किया जा सकता है, परन्तु श्रमिकों पर आधारित इकाई की क्षमता सीमित होती है और दैनिक खर्च अधिक आता है। ऐसी इकाईयों के लिये खेती के लिये अनुपयुक्त जमीन से काम चल जाता है, परन्तु उन्हें रिहायशी इलाकों से दूर स्थापित करना होता है।

खुम्ब उत्पादन इकाइयां - इन इकाईयों में केवल खुम्ब का उत्पादन किया जाता है, जो एक या अधिक जाति की खुम्बों पर तथा मौसमी या वातानुकूलित परिस्थितियों में कार्य करती है। ऐसे उत्पादक अपनी आवश्यकतानुसार बीज तथा खाउद दूसरे उद्यमियों से खरीदते हैं और उनका पूरा ध्यान खुम्ब उत्पादन पर ही केन्द्रित होता है। इसलिये ऐसे फार्मों में अच्छा उत्पादन एवं उत्पादकता प्राप्त होने की संभावना अधिक होती है, साथ ही इसकी लागत भी कम होती है।

                                                     

संसाधन इकाईयां - ऐसे क्षेत्रों में जहां खुम्ब की कई उत्पादन इकाईयां कार्यरत हों, वहां डिब्बाबंदी तथा संसाधन की इकाई स्थापित की जा सकती है और खुम्ब के विभिन्न उत्पाद जैसे खुम्ब का अचार, सूप पाऊडर, खुम्ब का सुखौता, चिप्स, बड़ियां, आदि बनाये जा सकते हैं। ऐसी इकाईयों में उस क्षेत्र में प्राप्त अन्य फलों एवंसब्जियों का भी संसाधन किया जा सकता है। क्षमता के आधार पर ऐसी इकाई की स्थापना कुछ एक लाख रुपये लगाकर की जा सकती है।

प्रशिक्षण/परामर्श/सहायता इकाई - ऐसे खुम्ब उत्पादक जिन्होंने पर्याप्त खुम्ब संबंधी ज्ञान तथा व्यावहारिक अनुभव प्राप्त कर लिया है, वे नये उत्पादकों/उद्यमियों को प्रशिक्षण/परामर्श/अन्य सहायता प्रदान कर सकते हैं। इसके लिये वे अपने फार्म में उपलब्ध सुविधाओं की सहायता से सफल प्रशिक्षण का कार्यक्रम भी चला सकते हैं और समाज सेवा के अतिरिक्त लाभ भी प्राप्त कर सकते हैं।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।