बीजोपचार द्वारा पौध संरक्षण क्यों और कैसे

                                                बीजोपचार द्वारा पौध संरक्षण क्यों और कैसे

                                                                                                                    डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

                                                  

फसलों से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये बीज का स्वस्थ होना भी अति आवश्यक होता है, क्योंकि स्वस्थ बीजों से ही स्वस्थ पौधा उत्पन्न होता है। वैसे कहावत भी है कि ‘जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे’। अधिक उपज देने वाली जातियाँ भी तभी सार्थक हैं, जब इनके स्वस्थ बीजों को ही बुवाई हेतु प्रयोग किया जाए। फसलों में अनेक रोगों का प्रारम्भिक संक्रमण बीज या भूमि अथवा दोनों के माध्यम से होता है।

रोगकारक फफूंद व जीवाणु बीज के उपरी या अंदरूनी सतह पर सुषुप्तावस्था में विद्यमान रहते हैं, जोकि बीज अंकुरण से पहले अपनी संख्या बढ़ाकर अंकुरित बीज के बीजांकुर को सड़ा देते हैं। इस प्रकार बीज सड़न, पौध गलन, पौध सड़न आदि के कारण पौध का निर्माण नहीं हो पाता है। कभी-कभी यह अपने स्वभाव के अनुसार पौधे के विभिन्न भागों पर भी अंकुरण करके रोग उत्पन्न करते हैं।

कुछ रोगों के रोगाणु, बीजाणु/फफूंद भूमि में पाये जाते हैं, जैसे ही बीज का अंकुरण होता है। यह फफूंद पौधों के बीजांकुर को नष्ट कर देते हैं। इन बीजोढ़ तथा मृदोढ़ फफूंद/जीवाणु द्रव्य (इनोकलम) के कारण बीजों का अंकुरण कम होता है। कुछ बीज मिट्टी के अन्दर ही सड़ जाते हैं, ओर जो कुछ निकलते हैं वह पीले और कमजोर होते हैं। इन कमजोर पौधों में आगे चलकर कई प्रकार की बीमारियां होने लगती हैं।

                                                             

विभिन्न प्रकार के रोगों से फसल को बचाने के लिए बुवाई से पूर्व बीज उपचार करना अति आवश्यक है, जोकि बीज को अंकुरित होने की प्रतिबद्धता को सम्पादित करता है। बीजोपचार से पहले कटे-फटे बीजों की छंटाई करके कचरे को अलग कर देना चाहिए। स्वस्थ बड़े तथा चमकीले बीजों का ही बुवाई के लिए प्रयोग करना चाहिए। बीजों की सफाई मात्र से ही अनेक रोगों से फसल की रक्षा हो सकती है, क्योंकि फफूंद के बीजाणु जैसे गाल्स स्कलेरोशिया, स्मट बाल्स आदि भी कटाई के समय बीजों के साथ ही उग जाते हैं। यह सभी बीजाणु सफाई द्वारा दूर किये जा सकते हैं।

बीजोपचार से प्राप्त होने वाले लाभ:

1.   फसल सुदृढ़ एवं स्वस्थ होती है, क्योंकि पौधे विशेषकर उनकी जड़ें व अंकुर रोग के आक्रमण से मुक्त होने के कारण शीघ्रता से अपने को स्थापित कर लेते हैं।

2.   उपचारित बीजों के चारों ओर फफूंदनाशक औषधि का आवरण, फफूंदों के आक्रमण के समय एवं बीज उगने तक एक कवच का कार्य करता है, जिससे फफूंदों/जीवाणुओं आदि के बुरे प्रभाव से पौधा बच जाता है।

3.   अनुपचारित बीज के साथ ही फफूंद खेत में चली जाती है, यही फफूंद आगे बहुत से रोगों का कारण बनती है, क्योंकि इसकी वृद्धि वर्ष दर वर्ष होती रहती है। बीजोपचार कर बीज की बुवाई करने से यह फफूंद नष्ट हो जाती है, जिससे रोग लगने की संभावना घट जाती है, साथ ही अंकुरण भी अच्छा होता है। खेत में पौधों की संख्या बढ़ने से फसल उत्पादन में भी वृद्धि होती है।

4.   यह विधि सरल एवं कम खर्च में पौधे की प्रारम्भिक अवस्था में रोगों से सुरक्षा करती है।

बीजोपचार विधियां:-

                                                                       

(क) नमक के घोल का उपचार - साधारण नमक का 20 प्रतिशत घोल यानि 20 किलोग्राम नमक 100 लीटर पानी में लेकर घोल बनायें। इस घोल में बीजों को डुबोयें। स्वस्थ बीज नीचे बर्तन की सतह पर बैठ जायेंगे तथा अस्वस्थ बीज, कचरा एवं फफूंद के बीजाणु जैसे स्केलेरोशिया, बाल्स (स्मट) गाल्स (कृमिजीव) आदि घोल की सतह पर इकट्ठे हो जायेंगे। इन्हें चलनी या बांस की टोकरी या हाथ से अलग कर लेना चाहिए। स्वस्थ बीजों को साफ पानी में धोकर छाया में सुखा लेना चाहिए। यह उपचार गेहूँ में ईयर काकल, टुण्डू रोग के लिये तथा धान में अधिक उपयोगी है।

(ख) फफूंदनाशक दवाओं से उपचार - बीजोपचार के लिए दो प्रकार की फफूंदनाशक दवायें काम में लाई जाती हैं:

1.  अदैहिक दवायें: इन दवाओं के उपचार से बीज में बाहरी (ऊपरी) सतह पर लगे रोग कारक बीजाणु नष्ट हो जाते हैं। इनमें प्रमुख दवाइयाँ ”केप्टान, थाइराम, मेकोजेब“ एवं पारायुक्त कवकनाशी आदि हैं। इन दवाओं की मात्रा 3 ग्राम/किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचार हेतु प्रयोग में लेनी चाहिए।

2.  दैहिक दवायें: इन दवाओं से बीज के अंदर पाई जाने वाली फफूंदों के बीजाणुओं को नष्ट किया जा सकता है एवं बीज के अंकुरण को अबाध रूप से सुनिश्चित किया जा सकता है। इसमें प्रमुख दवा जैसे कार्बेण्डाजिम, बेनोमिल इत्यादि हैं। इन दवाओं से 1.5 से 2.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित किया जाता है।

अदैहिक एवं दैहिक दवा का मिश्रण भी बीजोपचार के लिए उपयोग में लाया जाता है, जैसे मिश्रण थाइरम 2 ग्राम़ 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित किया जाता है।

उपर्यक्त दवाओं से बीजोपचार दो प्रकार से किया जाता है:

                                               

(अ) शुष्क विधि: बीज तथा फफूंदनाशी दवा की उपयुक्त मात्रा को बीजोपचार ड्रम में डालकर 10-15 मिनट तक घुमाना चाहिए। ड्रम न हो तो मटके को भी काम में ले सकते हैं ड्रम को घुमाने से बीजों पर दवा की हल्की परत बन जाती है। कभी-कभी सूखे बीज पर दवा नहीं चिपकती है, तब पानी की कुछ बूंद या तेल की कुछ बूंद बीज में डालकर दवा के साथ्ज्ञ अच्छे से हिलाना चाहिए। इस प्रकार उपचारित बीज को सीधे बुवाई के काम में लेना चाहिए।

(ब)  गीली विधि: मिट्टी अथवा प्लास्टिक के बर्तन में बीज तथा दवा की आवश्यक मात्रा लेकर पानी में घोल लेना चाहिए। बीजों को 5-10 मिनट तक घोल में डुबाकर रखें तथा छाया में सुखाकर बुवाई करनी चाहिए। यह विधि विशेष तौर से आलू, गन्ना तथा पान के लिए अपनाई जाती है।

(स) जीवाणु कल्चर का उपयोग:- दलहनी फसलों में फफूंदनाशक दवा द्वारा बीजोपचार के बाद जीवाणु कल्चर से उपचारित करना चाहिए।

बीजोपचार में सावधानियां:-

                                                  

बीजोपचार से पूर्व:

1.   बीजोपचार के लिए मिट्टी का बर्तन या ड्रम ही उपयोग में लाना चाहिए। बीजोपचार के लिए गृहकार्य में उपयोग किए जाने वाले बर्तन कभी भी उपयोग में नहीं लाना चाहिए। बर्तन या घड़े के मुंह पर पहले कागज लगाना चाहिये, उसके ऊपर फिर कपड़ा बांधना चाहिए। इस प्रकार से वह वायुरूद्व हो जाता है।

2.   दलहनी एवं तिलहनी फसलों के बीजोपचार के लिए पारायुक्त कवकनाशी आदि को उपयोग में नहीं लाना चाहिए, क्योंकि यह दवायें राइजोबियम कल्चर एवं पौधों की जड़ में गांठ बनने में प्रतिकूल असर करती है।

3.   दवाई उपयोग से पहले लेबल एवं निर्माता द्वारा दिये गये निर्देश सावधानी से पढ़ लेने चाहिए।

4.   बीजोपचार कर रहे व्यक्ति के हाथों में किसी प्रकार की चोट या जख्म इत्यादि नहीं होना चाहिए।

5.   बीजोपचार करते समय हाथों में रबर के दस्ताने तथा नाक को सूती कपड़े से ढकना चाहिए।

6.   उपयोग में लाई जाने वाली दवा का एक्सपायरी दिनांक अवश्य देख लेना चाहिए। एक्सपायर दवा को उपयोग में नहीं लाना चाहिए, क्योंकि यह दवा रोगकारक, फफूंद को समाप्त करने में सक्षम नहीं होती है।

                                                                 

बीजोपचार के पश्चात्:-

1.   उपचारित बीज की बुवाई नमीयुक्त भूमि में ही करनी चाहिए।

2.   उपचारित बीज को स्वयं या जानवरों के खाने के प्रयोग में कभी नहीं लाना चाहिए, क्योंकि यह जहरीले होते हैं।

3.   उपचारित बीज को सूखी एवं छायादार जगह पर फैलाना चाहिए। कभी भी गीली जगह पर नहीं फैलाना चाहिए।

4.   दवा के खाली पैकेट तथा बीजोपचार के लिए प्रयोग में लाये गये डिब्बे, मटका या अन्य उपयोग में लिए सामान को उपचार करने के तुरन्त बाद ही नष्ट कर देना चाहिए।

5.   शेष बची हुई दवा को अच्छी तरह से चैक करके बच्चों की पहुंच तथा खाने की वस्तुओं से दूर ही रखना चाहिए।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभागए सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।