
समय की उपासना का महत्व Publish Date : 29/06/2025
समय की उपासना का महत्व
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
सृष्टि के उपादान कारण भले ही पंचतत्व हों, पर इसका मूल कारण तो समय ही है। अविनाशी और व्यापक होने से यह चराचर जगत उसी में व्याप्त है। यही समय साक्षी और द्रष्टा है। न तो उसके आदि-अंत का निर्धारण किया जा सकता है और न दिव्य स्वरूप का ज्ञान। निर्गुण, निराकार, निर्विकार, निर्लिप्त आदि परमात्मा के सभी विशेषण समय के भी हैं। दोनों की एकरूपता और शक्तिमत्ता को हर व्यक्ति समझता है। तभी मुख से सहसा निकलता है- हमारे वश में कुछ नहीं। जो समय चाहेगा, वही होगा। समय को चिरंतन सत्य परमात्मा का स्वरूप कहा गया है।
सृष्टि का सृजन और विलय आदि भी समय में ही होता है। इसीलिए उसे महाकाल की संज्ञा दी जाती है। गीता में श्रीकृष्ण भी आत्मस्वरूप का परिचय देते हुए अर्जुन से कहते हैं- सबका नियंता और धारण कर्ता काल मैं ही हूं।
समय त्रिकालाबाधित और त्रिकालातीत है। सदा गतिमान रहने के बाद भी वह फिर कभी नहीं लौटता है। इसीलिए विद्वानों ने समय के दुरुपयोग को सबसे बड़ी हानि कहा है। यद्यपि उस पर किसी का नियंत्रण संभव नहीं, किंतु श्रेष्ठ कर्मों. द्वारा उसे सार्थक और नियंत्रित किया जा सकता है। जब दरबार में आए याचक को अभिमान वश कल आने का आदेश देकर धर्मराज युधिष्ठिर ने समयं की इस विलक्षणता को विस्मृत कर दिया, तब भीम ने उन्हें इसका अहसास कराया। अपनी अज्ञानता पर पश्चाताप करते हुए उन्होंने याचक को बुलाकर उसकी मनोकामना पूर्ण की। अनादि-अनंत होने से समय को संवत्सर, मास, दिवस, घटी, पल आादि में तथा जीवन को चार आश्रमों में विभक्त कर उसकी आराधना का विधान किया गया है।
प्रथम चरण में विद्यार्जन, द्वितीय में धर्मपूर्ण धनार्जन, तृतीय एवं चतुर्थ में सांसारिक प्रपंचों से विरक्ति ही समय की साधना के प्रमुख आयाम हैं। अतः सत्कर्मों की आहुति देकर की गई समय की उपासना परमात्मा की सच्ची उपासना है और संकल्प सिद्धि का मंत्र भी है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।