फर्जी विश्वविद्यालयों पर लगाना ही होगा अंकुश

                                                      फर्जी विश्वविद्यालयों पर लगाना ही होगा अंकुश

                                                                                                                                डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा

                                                  

    जैसा कि प्रत्येक वर्ष होता है ठीक उसी प्रकार से यूजीसी ने पूरे देश में संचालित किए जा रहे तमाम फर्जी विश्वविद्यलयों की सूची जारी की है। वस्तुतः यूजीसी अधिनियम, 1956 के अनुसार केवल केन्द्रीय, राज्यकीय एवं प्रांतीय अधिनियम के द्वारा स्थापित किए गए विश्वविद्यालय अथवा इस अधिनियम की धारा-3 के तहत विश्वविद्यालय माने जाने वाले सेस्थानों को ही विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान किया जा सकता है। ऐसे में यूजीसी के द्वारा प्रत्येक वर्ष जारी की जाने वाली फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची से स्पष्ट है कि इस प्रकार के विभिन्न फर्जी संथान आज भी अस्तित्व में हैं, जिन पर कठोर एवं प्रभावी कार्यवाही की आवश्यकता है।

यूजीसी के द्वारा विद्यार्थियों के लिए एबीसी में पंजीकरण अनिवार्य कर दिया गया है। ऐसे में समस्त विश्वविद्यालयों के द्वारा प्रदान की जाने वाली डिग्रियों की निगरानी सम्भव हो सकेगी, जबकि वर्ष 2013 में यूजीसी के द्वारा जारी किए गए दिशा-निदेशों के अनुसार समस्त उच्च शिक्षण संस्थानों को राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्ययन परिषद् (नैक) के द्वारा मूल्यांकन करने को अनिवार्य बनाया गया, जो उच्च शिक्षण संस्थानों की निगरानी एवं उनकी गुणवत्ता पर एक प्रभावी निगरानी का सशक्त माध्यम बन सकती है।

विगत दशकों में भारत में शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न निजी शिक्षण संस्थानों की भरमार हो गई है। ऐसे में इन शिक्षण संस्थानों की निगरान के लिए एक व्यापक निगरानी तन्त्र को विकसित करना होगा, हालांकि इसके लिए समय-समय पर विभिन्न प्रकार के कदम उठाए जाते रहे हैं, परन्तु उनकी प्रभावकारिता के ऊपर अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

                                                    

फर्जी विश्वविद्यालयों से सम्बन्धित मामलों की छात्रों के द्वारा शिकायत प्राप्त होने पर, जबकि राज्यों, केन्द्र शासित प्रदेशों (यूटी) और स्थानीय अधिकारियों के माध्यम से यूजीसी की जानकारी प्राप्त होती है। ऐसे में यूजीसी अमान्य डिग्री प्रदान करने वाले अनाधिकृत विश्वविद्यालयों को कारण बताओ नोटिस एवं चेतावनी नोटिस जारी करता है। वहीं देश में फर्जी विश्वविद्यालयों की राज्यवार सूची वाली प्रेस विज्ञप्ति और सार्वजनिक नोटिस जारी करता है औश्र राज्य के मुख्यमंत्रियों, शिक्षा सचिवों और प्रधान सचिवों को भी यूजीसी सूचित करते हुए उनके अधिकार क्षेत्र में स्थित फर्जी विवि व संस्थानों के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए सूचित करता है। प्रश्न यह है कि लाखों विद्यार्थी, जो प्रत्येक वर्ष ऐसे विवि में एडमिशन ले रहे हैं, प्रभावी सूचना तेत्र के अभाव में फर्जी विवि में मोटी रकम देकर नामांकन ले लेते हैं और उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ होती जाती है।

इतना ही नही, इस प्रकार से ठगे जाने का अहसास भी उन्हें बहुत समय के बाद होता है। अतः इस बात को भी समझने की आवश्यकता है कि प्रत्येक वर्ष केवल फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची जारी कर देना ही इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नही है। देशभर में दिन-प्रतिदिन हजारों नए निजी शिक्षण संस्थाएं खुल रही हैं। ऐसे में सभी पर निगरानी रखना एक कठिन कार्य है, लिहाजा ठोस कार्ययोजना बनाई जानी चाहिए।

फर्जी विश्वविद्यालयों से सम्बन्धित मामलों पर लगाने के लिए देश के समस्त राज्यों को भी तत्परता से यूजीसी का सहयोग करना चाहिए। इस क्रम में उच्च शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता पर भी केन्द्र सरकार के द्वारा की जा रही पहल को प्रभावी रूप से ही लागू करना होगा। उल्लेखनीय है कि शिक्षा या अनुसंधान और वैज्ञानिक एवं मकनीकी संस्थानों में मानकों का समन्वय तथा उनका निर्धारण करने में केन्द्र की उच्च शिक्षा के सन्दर्भ में अधिकार प्रदान करता है। ऐसे में यूजीसी की उच्च शिक्षा में सुधार को लेकर या फर्जी विवि से सम्बन्धित मामलों में भूमिका अधिक अहम हो जाती है।

                                                     

इसके लिए यूजीसी को प्रत्येक वर्ष फर्जी विवि की सूची की निगरानी और प्रभावी सूचना तन्त्र के विकास पर भी कार्य करना होगा, जिससे कि एक बड़ी संख्या में छात्रों एवं अभिभावाकें को फर्जी विव के द्वारा जारी किए जाने वाले विज्ञापनों के झाँसें में आने से बचाया जा सके और इसके साथ ही इस प्रकार के मामलों पर पूर्णतः लगाम लगाई जा सके।

देश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में लगभग एक तिहाई पद रिक्त

देश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षकों के 33 प्रतिशत से भी अधिक पद रिक्त चल रहे हैं। इससे देश की उच्च शिक्षा व्यवस्था का स्पष्ट रूप से पता चल जाता है। यह अधिक चिंता का विषय इसलिए भी है, क्योंकि इन आँकड़ों का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि देश के कई केन्द्रीय विवि तो ऐसे भी है जहाँ किसी विषय विशेष का एक भी शिक्षक उपलब्ध नही है। विश्वविद्यालयों के अनेक संकाय होते हैं और इन संकायों में भी अनेक विषय और इन विषयों में भी विशिष्ट अध्ययन किए जाते हैं।

आखिर उच्च अध्ययन जैसे शिक्षा के गम्भीर क्षेत्र को भी किसके भरोसे पर छोड़ा जा रहा है। तो वहीं दूसरी ओर, हम अपने देश में स्तरीय शिक्षा व्यवस्था की अपेक्षा रखते हैं। ऐसी दशा में तो स्पष्ट रूप से यह कहा जा सकता है कि इस दिशा में हमारी उच्च शिक्षा के हालात अति गम्भीर हैं। दरअसल हम एक ओर तो देश को विश्व गुरू बनाने का सपना संजोएं है और विश्व के स्तरीय विश्वविद्यलयों में अपने उच्च शिक्षण संस्थानों को भी शामिल करना चाहते र्हैं, परन्तु इसके उपरांत भी हमारे उच्च शिक्षण संस्थानों में इतनी बड़ी संख्या में शिक्षकों के पद रिक्त चल रहे हैं।

भारत के शिक्षा मंत्रालय के द्वारा सूचना के अधिकार के तहत प्रदान की गई जानकारी को ही यदि आधार मानकर विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि देश के 45 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के लगभग 30 प्रतिशत पद रिक्त हैं। वस्तुतः देखा जाए तो इस मामले में केरल एवं मिजोरम के हालात थोड़े सही हैं, परन्तु वहाँ भी शिक्षकों के लगभग 15 प्रतिशत पद रिक्त हैं। जबकि जम्मु-कश्मीर में 54 प्रतिशत, त्रिपुरा में में 50 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 47 प्रतिशत, कर्नाटक तमें 47 प्रतिशत, मेघालय में 42 प्रतिशत, उत्तराखण्ड़ में 42 प्रतिशत, दिल्ली में 35 प्रतिशत, ठारण्खण्ड़ में 35 प्रतिशत और हिमाचल प्रदेश में 33 प्रतिशत शिक्षकों के पद रिक्त हैं।

यदि इसे समग्र रूप में देखा जाए तो अपने पूरे देश के केन्छ्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के कुल 18,956 पद स्वीकृत किए गए हैं, जिनमें से 6,025 अर्थात एक तिहाई पद रिक्त हैं। ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि जब देश के कन्द्रीय विश्वविद्यालयों की हालत यह है तो देश के राज्यो एवं निजी क्षेत्र के माध्यम से संचालित विश्वविद्यलयों की दशा क्या होगी, इसकी कल्पना सहज रूप से ही की जा सकती है। ऐसे में एक सीधा-सीधा सवाल यह उठता है कि जिस उद्देश्य के साथ देश में विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई है, यदि उनमें पढ़ाने वाले और शोध कार्य कराने वाले ही नही होंगे तो फिर इन विश्वविद्यालयों से स्तरीय अध्ययन शोध कार्यों की अपेक्षा किस प्रकार की जा सकती है।

वस्तुतः मात्र शिक्षण संस्थानों की स्थापना करने से ही इस समस्या का समाधान नही हो पाएगा। इस परिप्रेक्ष्य में हमारे सामने शिक्षा के हालातों अनेक उदाहरण हैं। फॉर एक्जाम्पल एक समय था कि जब एमबीए का बहुत बड़ा क्रेज हुआ करता था और पूरे देश में एक बाद एक करके बहुत से एमबीए संस्थान स्थापित किए गए, परन्तु वर्तमान में इन एमबीए संकायों की दशा क्या है यह किसी से भी छिपा नही है। ठीक इसी प्रकार पिछले दशक के दौरान देश में इंजीनियरंग कॉलेजों की स्थापना भारी संख्या में की गई थी, जबकि अब इन कॉलेजों में एक बड़ी संख्या में सीटें खाली ही रहती हैं। इस सबमें सबसे पहली और बड़ी शर्त तो यही है कि शिक्षा इन मन्दिरों में पर्याप्त संख्या में शिक्षकों का होना ही परम आवश्यक है और इस क्रम में यह ध्यान रखना भी उतना ही आवश्यक है कि कॉलेजों के लिए चयन किए जाने वाली फैक्ल्टीज का स्तर भी उच्च गुणवतायुक्त ही होना चाहिए। योग्य, विशेषज्ञ, विद्वान एवं गुणी शिक्षक ही शिक्षा को स्तरीय बनाए रखने में सक्षम होते हैं। जब हमारे उच्च शिक्षण संस्थानों में उत्तम स्तर की पौध तैयार होगी तो उसे फल भी उत्तम किस्म के ही होंगे।

अतः केवल केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में ही नही, अपतिु देश की सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था को लेकर हमें एक गम्भीर रूख अपनाना होगा। शिक्षकेां के रिक्त पदो पर नियुक्तियाँ करने के साथ ही हमें उच्चस्तरीय संकाय सदस्यों का भी चयन करना होगा, जिससे कि हमारी आने वाली पीढ़ियों में ज्ञान एवं समझ का स्तर श्रेष्ठ और व्यवहारिक बन सके।     

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।