लीवर प्रत्यारोपण में लीवर की क्षति को कम करने वाली विधि की खोज

                                     लीवर प्रत्यारोपण में लीवर की क्षति को कम करने वाली विधि की खोज

                                                                                                                                                 डॉ0 दिव्याँशु सेंगर एवं मुकेश शर्मा

                                          

शोधः डोनर से प्राप्त होने वाला अंग, अब प्रत्यारोपण के बाद अधिक समय तक प्रभावी तरीके से काम करने में सक्षम।

    किसी भी अंग के प्रत्यारोपण के समय उस अंग के मूल चरित्र या गुणों को होने वाली क्षतियों से बचाना अपने आप में एक चुनौति-भरा कार्य होता है और इस समस्या से निपटने के लिए विभिन्न प्रकार एहतियाती उपाय भी किए जाते हैं। इस मामले में हाल ही में किए गए एक अध्ययन में शोधकर्ताओं के द्वारा एक ऐसे प्रोटीन की खोज की गई है, जो कि लीवर प्रत्यारोपण के दौरान लीवर को होने वाली क्षतियों से सुरक्षा प्रदान करने का कार्य करता है।

शोधकर्ताओं के अनुसार, सीईएसीएएम-1, नामक यह प्रोटीन लीवर प्रत्यारोपण की सफलता की दर को बढ़ाने में सहयोग कर सकता है। हालांकि अभी तक सीईएसीएएम-1 प्रोटीन का यह सुरक्षातमक गुण अज्ञात ही था।

                                                                 

साइंस ट्राँसलेशन मेडिसिन नामक जर्नल के ऑनलाईन संस्करण में प्रकाशित इस शोध के आलेख में जानकारी प्रदान की गई है कि शोधकर्ताओं ने सीईएसीएएम-1 प्रोटीन के अन्तर्निहीत सुरक्षात्मक प्रबिधि का मॉलिक्यूलर मैकेनिज्म (आणविक तन्त्र) की खोज की है। इसमें वैकल्पिक जीन की सम्बद्वता और मॉलिक्यूलर टूल का उपयोग किया गया था। इससे प्रबिधि से अंग को हाने वाली क्षतियाँ कम होती हैं। अंग प्रत्यारोपण के दौरान अंग में रक्त की आपूर्ति (ब्लड सप्लाई) को जारी किया जाता है, परन्तु इस प्रक्रिया में सूजन अथवा जलन के चलते ऊतकों को नुकसान पहुँचता है, जिसे इस्केमिक रीपरफ्यूजन इंजरी या री-ऑक्सीजेनेशन इंजरी भी कहते हैं।

यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया लॉस एंजिलिस (यूसीएलए) के सर्जरी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर एवं शोध के मुख्य लेखक केनेथ डेरी का कहना है कि चूँकि प्रत्यारोण के लिए उपलब्ध होने वाले अंगों की निरंतर कमी बनी रहती है, इस कारण से यह एक बेहतर विकल्प हो सकता है, कि जो भी उपलब्ध अंग हैं, उसका प्रत्यारोपण व्यक्ति के जीवन पर्यन्त कामयाब रहें। परन्तु इस्केमिक रीपरफ्यूजन इंजरी के चलते अक्सर ऐसा हो नही पाता है जिससे प्रत्यारोपण पूरा लाभ नही मिल पाता है।

                                                                   

शोधकर्ताओं ने हाइपोक्सिया इंड्यूसिबल फैक्टर (एचआईएफ-1) की खोज की है, जो कि ऑक्सीजन के उपयोग को नियंत्रित करता है और सीईएसीएएम-1 को सक्रिय करने में सहायता प्रदान करता है। सीईएसीएएम-1-एस- सीईएसीएएम1-एस का ही एक संस्करण होता है, जिसके प्रभाव को चूहों के लीवर में देखा गया है, जो सेलुलर इंजरी को कम करके लीवर की कार्यप्रणाली में अपेक्षित सुधार लाता है। शोधकर्ताओं ने डोनर व्यक्तियों के लीवर में भी सीईएसीएएम1-एस एवं एचआईएफ-1 के बीच सम्बन्धों की खोज की है, जिससे लीवर प्रत्यारोपण तथा इम्यून फंक्शन के सम्बन्ध में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।

शोधकर्ताओं ने इसके साथ ही एक नई जीन अभिव्यक्ति की प्िरक्रया की खोज भी की है, जिससे इस्केमिया और ऑक्सीजन स्ट्रेस सक्रिय होता है। यह प्रक्रिया एक वैकल्पिक जोड़ (स्प्लाइस) के रूप में जानी जाती है। इसी के माध्यम से कोशिकाएं खतरे, इन्फ्लैमेशन अथवा इंजरी के समय प्रोटीन की विवधिता में वृद्वि करती है।

अपने अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने पाया कि जब कोशिकाओं में ऑक्सीजन का स्तर कम होता है तो एचआईएफ-1 आरएनए स्प्लाइसिंग फैक्टर पॉलीपाइरिमिडाइन ट्रैक्ट बाइडिंग प्रोटीन-1 (पीटीबीपी-1) को रेग्यूलेट करना आरम्भ कर देता है, जो सीईएसीएएम1 जीन की स्प्लाइस के लिए निर्देशित करता है, जिससे सीईएसीएएम1-एस की सुरक्षा बढ़ जाती है और इससे प्रत्यारोपण से सम्बन्धित लीवर को अधिक सुरक्षित एवं गुणवत्तायुक्त बनाए रखते हुए जरूरतमंद लोागें में इसका प्रत्यारोपण किया जाना आसान होगा।

                                             अब त्वचा के रंग से सम्बन्धित रोगों का होगा उपचार आसान

                                                 

    मानव जाति में मानव की आँख, त्वचा और बालों के रंग अलग-अलग होते हैं, जिसके लिए मेलेनिन नामक एक जीन उत्तरदायी होता है, जो कि असल में प्रकाश को अवशोषित करने वाला एक रंजक होता है। भारतीय मूल के एक विज्ञानी विवेक बाजपेई के नेतृत्व में शोधकर्ताओं की एक टीम ने इस प्रकार के 135 नए मेलेनिन जीन्स की पहिचान की है, जो कि वर्णकता अर्थात पिगमेन्टेशन से सम्बन्धित होते हैं।

इसके सम्बन्ध में शोध्कर्ताओं का कहना है कि मेलेनिन के रेग्यूलेट होने की प्रक्रिया को समझने से लोगों की मेलानोमा या त्वचा कैंसर से बचाव करना आसान हो सकता है। इन मेनेनिन जीन्स को टारगेट कर मेलेनिन में सुधार करने वाली दवाओं का विकास भी किया जा सकता है और वर्णकता से सम्बन्धिम अन्य रोगों के प्रभावी उपचार की खोज भी की जा सकती है।

‘साइंस’ नामक जर्नल में प्रकाशित इस शोध में कहा गया है कि मानवीय शरीर में मेलेनिन का उत्पादन मेलानोसेम नामक एक विशेष संरचना में होता है। मेलानासोम, मेलेनिन-उत्पादक वर्णक कोशिकाओं के अंदर विद्यमान होते हैं, जिन्हें मेलानपोसाइट्स कहते हैं। हालांकि लगभग सभी इंसानों में इन मेलानोसाइट्स की संख्या एक समान ही होती है, परन्तु उनके माध्यम से उत्पादित किए गए मेलेनिन की मात्रा अलग-अलग होती है, जिसके चलते ही मानव की त्वचा के रंग में विभिन्नता पाई जाती है।

यूनिवर्सिटी ऑफ ओकलाहोम में असिसटेंट प्रोफेसर तथा इस शोध के मुख्य लेखक विवेक वाजपेई के अनुसार, मेलेनिन की उपलब्ध मात्रा में भिन्नता के कारणों को समझने के प्रयास में उन्होंने सीआरआईपीआर-सीएएस9 तकनीकी का उपयोग किया। इस तकनीक के उपयोग करने से वे अरबों मेलानोसाइट्स में से 20,000 से अधिक जन्स को अलग करके मेलेनिन के उत्पादन पर उनके प्रभाव का अध्ययन किया।

मेलेनिन के उत्पादन के लिए जिम्मेदार जीन्स की पहिचान करने वाले जीन्स को हटाने की प्रक्रिया के दौरान मेलेनिन को खोने वाली कोशिकाओं को उपलब्ध लाखों अन्य कोशिकाओं से अलग करने की आवश्यकता होती है, जो कि अन्य कोशिकाएं नही करती थी।

इसके लिए वालपेई की टीम ने इन-विट्रो सेल कल्चर के माध्यम से मेलेनोसाइट्स के उत्पादन में प्रयुक्त गतिविधियों और उसके उत्पादन की मात्रा का अध्ययन किया। साइड-फैक्टर ऑफ फ्लो साइटोमेट्री की प्रक्रिया से कम या अधिक मेलेनिन का उत्पादन करने वाली कोशिकाओं का विश्लेषण मेलेनिन-मॉडिफाइंग जीन की पहिचान के लिए किया गया।

                                                               

अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने पाया कि 169 प्रकार के जीन्स मेलेनिन के उत्पादन की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। जिनमें से 135 पहले से ज्ञात नही थे। इसके अतिरिक्त केएलएफ-6 और सीओएमएमडी-3 नामक दो नए जीन की कार्यप्रणाली को भी पहिचाना गया है।

इसके दौरान पाया गया कि डीएनए से जुड़ने वाला प्रोटीन केएलएफ-6 मानव एवं पशुओं में मेलेनिन के कम उत्पादन के साथ जुड़ा हुआ होता है। इसके अलावा सीओएमएमडी-3 प्रोटीन से रेग्यूलेट होने वाले मेलेनिन संश्लेषण को मेलानोसेम की अम्लता के जरिए भी नियन्त्रित किया जा सकता है।

लेखक:- डॉ0 दिव्याँशु सेंगर, प्यारे लाल शर्मा जिला अस्पताल मेरठ में मेडिकल ऑफिसर हैं।