नीम आधारित कीटनाशक कितने प्रभावी?

                                                             नीम आधारित कीटनाशक कितने प्रभावी?

                                                                                                                       डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

                                                       

नीम का नाम भारतवासियों के लिये नया नहीं है। प्राचीन युग से ही भारतवासी नीम के दिव्य गुणों से भली भांति परिचित हैं। सदाबहार नीम उन कल्पवृक्षों में से एक है, जिसके सभी भाग औषधीय, उद्योगों आदि में काम आते हैं। इसे खेतों व मेड़ों पर लगाकर किसान अन्य उपलब्ध वृक्षों की तुलना में अधिक आमदनी प्राप्त कर सकता है। नीम के पेड़ लगाने से हवा शुद्ध होती है और नीम की दातुन करने से मुख के सभी रोग दूर हो जाते हैं, यह कथन हम बचपन से बुजुर्गों से सुनते आ रहे हैं। पिछले कुछ समय से नीम के महत्व को जानते हुए भी हम उसे भुलाते जा रहे थे।

कहावत भी है कि घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध, अर्थात लोग अपने आस-पास उपलब्ध वस्तुओं को कम महत्व देते हैं, पर यदि वही वस्तु आसपास के गांव में उपलब्ध होती है तो उसे अधिक प्राथमिकता देते हैं। यही नीम के साथ हुआ। विदेशों से अचानक नीम के औषधीय व अन्य दिव्य गुणों के शोध परिणाम आने शुरू हुए, तब भारतीयों को सुध आई कि सचमुच नीम बहुपयोगी वृक्ष है। यह कटु सत्य है कि यद्यपि नीम भारतीय पौधा है व सदियों से हमारी धरती पर फल-फूल रहा है तथापि अधिकतर शोध विदेशों में हुये हैं। यही कारण है कि नीम आधारित औषधियों व अन्य उत्पादों पर अधिकरत पेटेंट विदेशियों को प्राप्त हैं और इनकी संख्या बढ़ती जा रही है।

                                                                      

नीम के कीटनाशक गुणों से भी भारतवासी बहुत पहले से परिचित हैं। हमारे बुजुर्ग अन्न संग्रहण के समय अन्न के साथ नीम की सूखी पत्तियों या नीम के बीजों की पोटली रख दिया करते थे। वे जानते थे कि यह प्राकृतिक उपाय न केवल कीड़ों को दूर रखेगा, बल्कि उनके अन्न को भी जहरीला नहीं करेगा। इसके अलावा यह उपाय सस्ता भी है। आज भी गांवों में अन्न संग्रहण में नीम, सीताफल, र्निगुंडी आदि की सूखी पत्तियों का प्रयोग होता है। इन ग्रामीणों को जहरीले कीटनाशकों पर विश्वास नहीं है। खेतों में फसलों को कीड़ों से बचाव के लिये नीम का प्रयोग यद्यपि पहले इतना प्रचलित नहीं था, तथापि देश के कुछ हिस्सों में आदिवासी नीम के घाल का छिड़काव कुछ पौध रोगों व कीटों को नष्ट करने के लिये करते थे।

आज बाजार में बहुत से नीम आधारित कीट-नाशक उपलब्ध हैं, जिसमें कि (एजीडिरेक्टीन) मुख्य तत्व के रूप में होता है। विभिन्न रसायनों से होने वाले पर्यावरण-मित्र के नाम से नीम आधारित कीटनाशकों की मारक क्षमता के अधिकतर प्रयोग विदेशों में भिन्न वातावरणीय परिस्थितियों में हुये हैं। विदेशी वैज्ञानिकों द्वारा अनुमोदित अधिकतर नीम आधारित कीटनाशक भारतीय बाजार में उपलब्ध हैं। भारती परिस्थितयों में इन कीटनाशकों की क्षमता को भलीभांति विश्लेषित नहीं किया गया है। केन्द्रीय चावल अनुसंधान केन्द्र, कटक में हाल ही में आयोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी के दौरान वैज्ञानिकों ने अनौपचारिक चर्चाके दौरान यह कटु सत्य उजागर किया कि भारतीय परिस्थितियों के लिये नीम आधारित कीटनाशक उपयुक्त नहीं है। इसका प्रचार कर किसानों को छला जा रहा है।

                                                                

भारतीय क्षेत्रों में तापक्रम अधिक होने के कारण लम्बे समय तक ये कीटनाशक प्रभावी नहीं रह पाते हैं। एक बार कीटनाशक डालने के बाद मुश्किल से दो-तीन दिनों तक ही इसका प्रभाव रहता है, जबकि कीटनाशक निर्माता 10 से 15 दिनों तक प्रभाव रहने का दावा करते हैं। विदेशों में खासकर ठंडे देशों में कम तापक्रम की वजह से ये कीटनाशक वास्तव में 10-15 दिनों तक प्रभावी रहते हैं। हमारे देश में उत्तरी क्षेत्रों में जहां गर्मी अधिक नहीं पड़ती है, कुछ अधिक समय तक ये कीटनाशक प्रभावी रहते हैं। इस प्रकार की जानकारी किसानों को उपलब्ध नहीं है। यही कारण है कि वे लगातार बहकावे में आ रहे हैं।

विदेशों से नीम आधारित कीटनाशकों के गुणों का बखान सुनकर भारत के कुछ प्रमुख अनुसंधान केन्द्रों में इन प्रयोगोें को जब दोहराया गया तो बिल्कुल उलटे परिणाम मिले। इसलिये भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने अब इन कीटनाशकों के विरोध में खुलकर कहना शुरू कर दिया। इसके अलावा नीम अधारित कीटनाशकों के साथ एक समस्या है कि ये रिपेलेन्ट का काम करते हैं, अर्थात् कीटों को नष्ट करने के स्थान पर पौधों पर उनकी उपस्थिति कीटों को दूर भगाती है। अतः नीम पर आधारित उत्पादों को कीड़ों के आक्रमण के पूर्व छिड़कना होता है, जिससे कि कीड़े पौधे पर आक्रमण न कर पाएं। भारत में अभी मौसम पूर्वानुमान में सुधार हो जाये तो वातावरणीय परिस्थितियों के अनुसार पौध रोग व कीटों के प्रकोप का पहले से पता लगाकर नीम आधारित उत्पादों का प्रयोग किया जा सकता है।

नीम के बीजों का तेल एक अच्छे रिपेलेन्ट का कार्य करता है। जैविक कृषि से उनके स्वयंसेवी संगठनों ने अपने अनुसंधानों में 1 प्रतिशत नीम के तेल को अधिक प्रभावी पाया है। नीम का तेल गांवों में आसानी से निकाला जा सकता है। सस्ता व आसान उपलब्धता होने से किसानों द्वारा इसे अपनाने की गति तेज है।

                                                         

आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत में किसी भी कीटनाशक के प्रयोग की सलाह किसानों को देने से पहले कुछ शोध अनुसंधान केन्द्रों में किये जायें, जिससे भारतीय परिस्थितियों में उनकी प्रभावशीलता के आंकलन को प्राथमिकता दी जाये। आज पूरा विश्व एक खुला बाजार बन गया है। ऐसे में अशिक्षित और भोले-भाले भारतीय किसानों को गुमराह होने से रोकने की महती आवश्यकता है।

जैविक कीट नियंत्रण: क्यों और कैसे ?

खेती में विभिन्न प्रकार के रसायनों का प्रयोग प्राचीन काल से ही होता चला आ रहा है, लेकिन अथाह पैदावार की चाह में हमने जैसे ही वैज्ञानिक खेती और हरित क्रांति का रूख किया, रसायनों का अंधाधुंध इस्तेमाल शुरू हो गया। इन रसायनों में प्रमुख है - कीटनाशक, फफूंदनाशक, अष्टपदीश्नाशक दवाएं, खरनपतवारनाशक, वृद्धि नियंत्रक, वृद्धि कारक रसायन और उर्वरक। आज बाजार में सैकड़ों प्रकार के रसायन उपलब्ध हैं। वास्तविकता यह है कि इन रसायनों के बिना आज खेती की कल्पना ही नहीं की जा सकती।

कीट नियंत्रण में इस्तेमान होने वाले रसायन विषैले होते हैं तथा अपने हानिकारक अवशिष्ट फसलों व फसल उत्पादों पर छोड़कर जाते हैं। इन रसायनों के उपयोग से लाभदायक कीटों को हानि पहुंचती है, फसलों के गौण कीट महत्वर्पूा कीट का स्तर पा लेते हैं और कीटों में इनके विरूद्ध प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है। साथ ही ये पर्यावरण को प्रदूषित कर, मानव जीवन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारी प्रभाव डालते हैं। इनके अनियंत्रित इस्तेमाल से जैविक असंतुलन भी धीरे-धीरे बढ़ रहा है।जैविक कीट नियंत्रण इस दिशा मंे एक सार्थक प्रयास हो सकता है। कीटनाशक रसायनों के उपयोग को कम करने के लिये जैविक कीट नियंत्रण को प्रोत्साहन देना आवश्यक है।

जैविक कीट नियंत्रण से आशय यह है कि जीव-जन्तुओं जैसे फफूंद, जीवाणु, विषाणु, कीट-पतंगों इत्यादि द्वारा फसलों के हानिकारक कीटों का नियंत्रण। इस विधि में जीवों में मौजूद कुदरती गुणों का उपयोग किया जाता है। मसलन किसी कीट का कोई कुदरती दुश्मन है तो इस स्थ्ािित का उपयोग किया जाये। ये जीव हानिकारक कीटों को खाकर अथवा परोक्ष रूप से रोग आदि उत्पन्न कर उन्हें नष्ट कर देते हैं।

कीट नियंत्रण की इस विधि का मुख्य उद्देश्य कीट को नष्ट करना नहीं, बल्कि उनकी संख्या को उस स्तर तक नियंत्रित कर देना है कि उनके द्वारा पहुंचाई गई हानि बहुत ही कम हो अथवा नगण्य हो। इस तरह जैविक कीट नियंत्रण प्रकृति का संतुलन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

जैविक नियंत्रण का सबसे महत्वपूर्ण लाभ यह है कि इसके परिणाम स्थाई होते हैं। एक बाद किसी क्षेत्र विशेष्ज्ञ में कोई जैविक कारक स्थापित हो जाये तो वह स्वयं ही कार्य करता रहता है। यानी इनके बार-बार के इस्तेमल से छुट्टी। इस तरह ये किफायती होने के साथ-साथ सुरक्षित भी हैं। इसके अलावा ये फसलों पर हानिकारक अवशेष भी नहीं छोड़ते। हानिकारक कीटों के इनके विरूद्ध प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने की संभावना भी नहीं रहती। ये पर्यावरण और लाभदाई कीटों के लिये भी पूर्णतः सुरक्षित होते हैं। कुछ जैविक कारकों को कम खर्च पर भी तैयार किया जा सकता है।

सीमाएं - जैविक नियंत्रण के लाभ तो हैं ही, कुछ सीमाएं भी हैं। इसे स्वतंत्र रूप से नहीं अपनाया जा सकता। केवल जैविक कारकों द्वारा अधिकतर हानिकारक कीटों का नियंत्रण असंभव है। इसे कीटनाशकों व अन्य विधियों के साथ उपयोग किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त जैविक कारकों के उपयोग के लिये तकनीकी शिक्षा प्राप्त प्रयोगकर्त्ता का होना आवश्यक है। जैविक कारक कुछ सीमित क्षेत्र में किसी विशेष प्रजाति के कीटों के लिये ही उपयोगी साबित होते हैं इनका प्रभाव धीमा होता है और नियंत्रण में भी काफी समय लगता है। इसकी प्रारंीिाक लागत काफी ज्यादा होती है और शुरू-शुरू में मेहनत भी काफी करनी पड़ती है। यही कारण है कि इनकी उपयोगिता लम्बे अध्ययन के बाद ही निश्चित की जा सकती है।

                                                                          

जैविक कारकों की अन्य जातियों के साथ्ज्ञ प्रतिस्पर्धा तथा उनकी सुसुप्तावस्था की वजह से भी मुश्किल आती है। जैविक नियंत्रण हेतु उपयोग में लाई जा सकने वाली कीट प्रजातियों की खोज में काफी समय लग जाता है। यहां यह भी ध्यान में रखना होता है कि हानिकारक कीटों के खिलाफ जो प्रजातियां इस्तेमाल में लाई जाएं, वे स्वयं किसी महामारी के रूप में विकसित न हो जाएं। प्रायः देखा यह गया है कि जैविक नियंत्रण ऐसे कीटों के लिये अधिक सफल होता है, जो गिने-चुने पौधों से अपना पोषण प्राप्त करते हैं।

किसी भी कीट या कीट वर्ग का जैविक नियंत्रण रासायनिक नियंत्रण की तरह आसान भले ही न हो, परन्तु यह कीटों की रोकथाम का एक स्थाई, सुरक्षित व मनुष्य, पशु-पक्षी और वातावरण के लिये हानि रहित तरीका है। किसी भी प्रकार के दुष्परिणाम का न होना, इसका सबसे प्रमुख व उपयोगी पहलू है।

कीटों द्वारा कीट नियंत्रण - कीटों के जैविक नियंत्रण  का सर्वाधिक प्रचलित तरीका कीटों के द्वारा कीटों का नियंत्रण है। प्रकृति में कुछ कीट-पतंगे हैं, जो कीट की जाति के होते हुए भी हानिकारक कीटों को नष्ट कर देते हैं। सामान्यतः ये कीट-पतंगे स्वतः ही हानिकारक कीटों को नष्ट करने का कार्य कर लाभदायक व हानिकारक कीटों का प्राकृतिक संतुलन बनाये रखते हैं। इनकी अनुपस्थिति में हानिकारक कीट बहुत ज्यादा हानि पहुंचा सकते हैं। इसलिये कीटनाशकों के गलत चयन, अनुचित व असंतुलित इस्तेमाल या अनुचित प्रक्रियाओं के उपयोग से इन लाभदायक कीटों की कम होती संख्या को रोकने का प्रयास करना चाहिये। कीट प्रबंध में सर्वप्रथम यह ध्यान रखना चाहिये कि वह लाभदायक कीटों का संरक्षण एवं संवर्धन करने में सहायक हो। यदि हम यह उचित तरीके से कर पाते हैं तो कीट प्रबंधन में रसायनों या अन्य विधियों के उपयोग की आवश्यकता न्यूनतम अथवा बिल्कुल नहीं रह जायेगी।

विश्व मंे कीटों की लगभग 7 लाख 50 हजार प्रजातियां हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार कीटों के 25 से 33 प्रतिशत परिवार जैव नियंत्रण में उपयोगी हैं। भारत में भी ऐसे हजारों कीटों की पहचान की गई है। हम इनकी उपयोगिता से अनभिज्ञ कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग से ऐसे लाभदायक कीटों को नष्ट करते जा रहे हैं।

हानिकारक कीटों को नष्ट करने वाले कीटों को लाभदायक या किसानों के मित्र कीट की संज्ञा दी जाती है। जैविक नियंत्रण में उपयोगी कीट परभक्षी एवं परजीवी दो प्रकार के होते हैं। मोटे तौर पर जब कोई बड़ा कीट किसी छोटे कीट को खाता है तो बड़े कीट को परभक्षी कहते हैं। ठीक इसके विपरीत छोटा कीट किसी बड़े कीट को खाता है तो उस छोटे कीट को परजीवी कीट कहते हैं।

परभक्षी कीट तो अपने शिकार को आसानी से नुकसान पहुंचा सकते हैं, किन्तु अनेक परजीवी कीट मिलकर ही अपना शिकार कर पाते हैं। इसके अतिरिक्त परभक्षी बहुत सक्रिय होता है एवं अपने शिकार को पकड़कर एक खुराक में ही हड़प कर लेता है। इसे अपने पोषण हेतु पर्याप्त संख्या में शिकार की आवश्यकता होती है। परभक्षी कीट स्वतंत्र जीवी होते हैं और इनका जीवन चक्र लम्बा होता है।

परजीवी अपने शिकार को खोजकर उससे बाहरी या आंतरिक रूप से अपना पोषण प्राप्त कर उन्हें नष्ट कर देते हैं। एक परपोषी पर कई परजीवी पोषण प्राप्त कर सकते हैं एवं इनके रहने का स्ािान परपोषी के रहने के स्थान की तरह ही होता हैं परजीवी कीटों का जीवन चक्र छोटा होता है एवं परपोषी के साथ रहने हेतु उनके शरीर में आवश्यक रूपान्तरण पाए जाते हैं।

जैविक कीट नियंत्रण के लिये हानिकारक कीट प्रजाति की पहचान, उसकी हानिकारक अवस्था, भौगालिक व मौसमी वितरण, जीवन चक्र, जीवन चक्र की कमजोर अवस्था और उस पर आक्रमण करने वाले परभक्षी या परजीवी कीट आदि की विस्तृत जानकारी होना आवश्यक है। जैविक नियंत्रण में सफलता हानिकारक व लाभदायक दोनों प्रकार के जीवों के बारे में अधिकाधिक ज्ञान में निहित है।

एक अच्छे जैविक नियंत्रण कारक को अधिक जनन क्षमता वाला तथा मादाओं की अधिक संख्या वाला होना चाहिए। उसमें परपोषी के साथ रहने तथा उसे शीघ्र ढूंढने का गुण होना चाहिए। उसका जीवन चक्र छोटा होना चाहिए तथा उसमें कीट-विषों को सहने की क्षमता होनी चाहिए।

परजीवी/परभक्षी कीटों की पर्याप्त संख्या होने पर कीटनाशक दवाओं का कम से कम उपयोग करना चाहिए तथा जहाँ जरूरी हो, वहां सुरक्षित कीटनाशक दवाओं का ही उपयोग करना चाहिए। लाभदायक कीटों को आश्रय स्थल देने हेतु (संवर्धन हेतु) मुख्य फसल के साथ अंतरवर्ती फसल लेना उपयोगी होता है। प्राकृतिक शत्रुओं (परजीवी/परभक्षी) के उपयोग के तीन प्रमुख तरीके हैं:

1.   प्रजातियों का आयात कर उन्हें एक नए स्थान में स्थापित करना।

2.   स्थानीय प्रजातियों की संख्या में प्रजनन द्वारा वृद्धि।

3.   पर्यावरण संरक्षण द्वारा उनका संरक्षण।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।