भारत को बनाने में अमेरिकी साझेदारी का योगदान

                                                  भारत को बनाने में अमेरिकी साझेदारी का योगदान

                                                 

    हिमालय के क्षेत्र में अमेरिकी सहयोग से जो संयुक्त रेखा प्रबन्ध प्रणाली स्वरूप ग्रहण कर रही है, वह चीन एवं पाकिस्तान की दोहरी चुनौतियों की एक प्रभावी काट भी बन सकती है। 

    तीव्र गति से बदल रही दुनिया में, अमरिका के साथ भात के सम्बन्ध दिन प्रति दिन प्रगाढ़ होते जा रहे हैं। इस सब में यदि मलाल है तो केवल इसी बात है कि इन द्विपक्षीय सम्बन्धों में जो गर्मजोशी आज दिखने को मिल रही है यदि वह कुछ समय पूर्व आ जाती तो यह निश्चित् है कि आज भारत के विकास की कथा कुछ और ही होती।

    हालांकि ऐना न होने का कारण यह भी है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पं0 जवाहर लाल नेहरू ही भारतीय विदेश नीति के एकमात्र निर्धारक एवं नियंता थे। आजादी प्राप्त करने से पहले से ही उनका झुकाव सोवियत रूस की ओर ही रहा था। एक योजनाबद्व विकास के लिए रूसी मॉडल का पंचवर्षीय योजना का प्रारूप उपयोगी तो था, लेकिन सीमित पूँजी और सीमित विदेशी सहायता के चलते इसका लाभ आर्थिक रूप से कम और वैचारिक रूप से अधिक था।

    साम्यवाद या समाजवादी विचारों के अतिश्य प्रभावों का परिणाम यह हुआ कि हमने सार्वजनिक क्षेत्र में उपक्रमों को प्रश्रय प्रदान किया जो यूनियनबाजी और घाटे का शिकार होकर एक बोझ बनकर ही रह गए। जबकि विश्व युद्व के बाद जापान, जर्मनी और फ्राँस के जैसे बर्बाद हुए देश अमेरिका और यूरोप के पूंजीगत सहयोग से अपने पुनःर्निर्माण में संलग्न हो गये। हालांकि अपनी आर्थिक प्रगति के लिए उस समय हमें भी अमेरिकी वित्तीय एवं तकनीकी सहयोग की आवश्यकता थी, परन्तु हम वैचारिक विभ्रम के शिकार ही बने रहे।

उस समय अपनाएं गए विकास मॉडल के अनुसार सोवियत रूस एवं जापान ने हमें बड़े कारखाने स्थापित करने में तकनीकी सहयोग तो दिया, लेकिन हमने पूँजी के बड़े स्रोतों, जो कि हमारे अपने उद्यमी भी हो सकते थे, उन्हें अपनी आर्थिक गतिविधियों में अपेक्षित भागीदारी नही दी और न ही उन्हें, अपने स्तर का निवेश करने के लिए प्रोत्साहित कर सके। बल्कि उनके ऊपर हमने कोटा, परमिट राज का प्रत्यारोपण कर दिया। जिसके परिणाम स्वरूप भारत की सुस्त आर्थिक वृद्वि के रूप में ही चतला रहा।

असल में, चीन के साथ मित्रता की नेहरू जी की रोमांटिक ललक अपने आप में बहुत ही आश्चर्य जनक थी। वह ‘एशिया फॉर एशियन्स’ के अनावश्यक नारे के तले चीन के साथ मिलकर एक नवीन गुटबन्दी की परिकल्पना कर रहे थे, और अमेरिका धैर्य के साथ नेहरू जी की इन वैश्विक कलाबाजियों पर नजर रखे हुए था।

                                                            

यदि हम तुलनात्मक आर्थिक पड़ताल करें तो देखते हैं कि वर्ष 1962 में जब चीनी आक्रमण हुआ था तो उस समय चीन की जीडीपी 47 अरब डॉलर, जापान की 60 अरब डॉलर और भारत की 44 अरब डॉलर थी। कहने का अर्थ यह है कि इन तीनों देशो की जीडीपी में कोई विशेष अन्तर नही था, बावजूद इसके भारत वर्ष 1970 के बाद इन दोनों देशों से पीछे छूटतार बिलकुल साफ दिखने लगा था। उस दौर में चीन की जीडीपी 92 अरब डॉलर तो जापान की जीडीपी 212 अरब डॉलर और जर्मनी की 215 अरब डॉलर थी। जबकि इन देशों की तुलना में भारत की जीडीपी 60 अरब डॉलर के स्तर पर ही अटकी हुई थी।

अब यदि एक ट्रिलियन (एक लाख करोड़) डॉलर की अर्थव्यवस्था की बात करें तो तो जापान ने इसे वर्ष 1978 में, जर्मनी ने वर्ष 1986 में, चीन ने वर्ष 1998 में और भारत ने वर्ष 2007 में यह उपलब्धि हासिल की। जबकि वर्ष 1980 से लेकर वर्ष 1990 तक भारत और चीन की जीडीपी लगभग समान ही थी।

इसके बाद चीन ने साम्यवादी फरेब से मुकित पाकर अमेरिकी एवं यूरोपीय सहयोग से पूँजीवाद को अंगीकार किया। इसीके परिणामस्वरूप वर्ष 2014 में जब हम दो ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाने का जश्न मना रहे थे, तब तक चीन 10 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के स्तर को भी पार कर चुका था। चीन को यह सफलता अमेरिकी-यूरोपीय पूँजी निवेश और वैश्विक विनिर्माण का केन्द्र बन जाने के चलते ही प्राप्त हुई थी।

इस सब का सबक यह रहा कि साम्यवादी-समाजवादी विचारों ने भारत को जो आर्थिक क्षति पहुँचाई है, वह हमार बड़े से बड़ा शत्रु भी नही कर पाता। इसी काल के दौरान भारत में क्षेत्रीयता, भ्रष्टाचार और परिवार वाद से ग्रस्त होकर पस्त ही पड़ा रहा।

                                                        

इसके बाद भारत में नरेन्द्र मोदी का आगमन होता है और चीजें बदलने लगती हैं। मोदी ने अमेरिका के साथ अपने रिश्तों को एक नया आयाम दिया। ऐसे में यह कहना भी गलत नही होगा कि पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ऐतिहासिक रूप से सफल रही अमेरिका यात्रा, राष्ट्रपति कैनेडी काल में हुई नेहरू की उच्च स्तरीय, किन्तु असफल अमेरिकी यात्रा की भरपाई करने जैसी ही रही।

उक्त यात्रा के दौरान निवेश करने के लिए वह विश्वास स्थापित किया गया, जिसकी कमी एक दौर में अनुभव की गई, अन्यथा भारत तो अमेरिकी औद्योगिक पूँजी निवेश के लिए चीन से भी बेहतर विकल्प बन सकता था। अब हमें इतिहास में की गई भूलों को सुधारते हुए सहज निवेश का एक ऐसा परिवेश सृजित करना होगा, जिसमें संर्कीण सोच रखने वाली राज्य सरकारे बाधा न बन सकें, चूँकि राष्ट्रहित सर्वोप्परी होता है।

अपने इन हितों को साधने के लिए हमें यदि संविधान में भी संशोधन की आवश्यकता पड़े तो यह भी किया जाना चाहिए। हमें यह भी नही भूलना चाहिए कि विदेशी निवेश के चलते ही वर्तमान में चीन 17 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बना हुआ है, जबकि भारत अभी तक केवल चार ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के पड़ाव को पार करने की भी प्रतीक्षा में ही है।

अच्छी बात तो यह है कि अमेरिका भी भारत की आवश्यकताओं- अपेक्षाओं को भली-भाँति समझ पा रहा है। इसलिए मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान भारत में निवेश के अतिरिक्त अमेरिका ने रक्षा एवं तकनीकी हस्तांतरण के समझौतों पर भी हस्ताक्षर किए हैं।

जीई-414 इंजनों के निर्माण की राह के आसान होने पर अगली पीढ़ी के लड़ाकू विमान के विकास में बड़ी मदद मिलेगी। इससे हमारी वायु सेना की क्षमताओं में भी बढ़ोत्तरी होगी क्योंकि अमेरिकी सेना के एफ-18 लड़ाकू विमानों में भी यही इंजिन लगा हुआ है।

आर्थिक परिदृश्य से अलग यदि हम सामरिक मोर्चों की बात करें तो पश्चिमी एशिया और प्रशांत हिन्द क्षेत्र में भारत और अमेरिकी हितों में भी समानता ही गोचर हो रही है, लेकिन हमारी एक बड़ी चिन्ता उत्तरी हिमालयी सीमाओं को लेकर भी है। इस हिसाब से भारत की प्राथमिकता चीन को एक हाथ की दूरी पर ही रोकना तथा पाकिस्तान की समस्या का एक स्थाई हल ही होना लाजिमी है।

हिमालय के क्षेत्र में अमेरिका के सक्रिय सहयोग से भारतीय सीमाओं के लिए एक संयुक्त रक्षा प्रबन्धन प्रणाली को विकसित करने की महत्ती आवश्यकता है, क्योंकि यह व्यवस्था चीन और पाकिस्तान की संयुक्त रणनीति को भी निरर्थक बना देगी। भारत और अमेरिका की समीपता के चलते एक बड़ी रणनीतिक-आर्थिक साझेदारी भी आकार ले रही है।

                                                

पश्चिम एशिया से लेकर हिन्द-प्रशांत क्षेत्र तक दोनों देश एक दूसरे की आवश्यकता का अनुभव कर रहें हैं। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में निरंतर वृद्वि कर रही इन दोनों देशों की निकटता से भारत के वामपंथियों एवं भारत विरोधी शक्तियों को भले ही परेशानी का अनुभव हो रहा हो, लेकिन अतीत की हिचक को छोड़कर हमारे साझा आर्थिक-रणनीतिक हितों की दिशा में यह एक ऐसे सशक्त अभियान का आरम्भ है, जिसके परिणाम बहुत ही दूरगामी होने वाले हैं।     

       

                                       खुदरा महंगाई दर के पाँच प्रतिशत से अधिक होने के आसार

रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया पर होने वाली बैठक में ब्याज की दरें बढ़ाने का दबाव बढ़ा

  • अगस्त माह में मुद्रास्फीति के 06 प्रतिशत से ऊपर रहने की सम्भावना हैं।
  • खुदरा महंगाई की दर गत जून माह में 4.81 प्रतिशत थी।

    सब्जियों की निरंतर बढ़ रही कीमतों ने आम आदमी के घर के बजट को बुरी तरह से प्रभावित किया है। विशेषज्ञों ने अनुमान लगाया है कि खुदरा महंगाई की दर जुलाई माह में 5 प्रतिशत रह सकती है। सब्जियों की बढ़ती हुई कीमतों के चलते अगस्त माह में मुद्रास्फीति के 6 प्रतिशत से ऊपर रहने का अनुमान है। इस कारण भारतीय केन्द्रीय बैंक पर ब्याज की दरें बढ़ाने का दबाव भी बढ़ सकता है।

    जून माह में खुदरा महंगाई 4.81 प्रतिशत रही जो कि मई माह की अपेक्षा 0.56 प्रतिशत अधिक रही। हालांकि इससे पहले आरबीआई पर ब्याज दरें कम करने का दबाव था, जिसके विपरीत अब इसके आरबीआई ब्याज की दरों में वृद्वि कर सकता है।

    विशेषज्ञों ने जुलाई के आरम्भ में चेताया था कि भारत में बारिश के चलते टमाटर, पत्तागोभी, फूलगोभी और शिमला मिर्च आदि की खड़ी फसलों में नुकसान हो सकता है, जिसके कारण इनकी कीमतें काफी हद तक बढ़ सकती हैं और ऐसे में जुलाई माह के महंगाई दर के आँकड़े चौंका भी सकते हैं।

ंिक्रसिल के मुताबिक जून माह में सब्जियों की कीमतों में उछाल, अनाज और दालों की मुद्रस्फीति में तीव्र वृद्वि के कारण पिछले दो माह की नरमी के बाद मुख्य मुद्रास्फीति में इजाफा कर दिया है। वहीं आईसीआरए की मुख्य अर्थशास्त्री अदिति नायर कहती हैं कि जुलाई माह में उपभोक्ता मूल्य सूचांक 5.3 से 5.5 प्रतिशत होने की सम्भावना है।

एक संतुलित दृष्टिकोण के तहत काम करेगा आरबीआई

    पिछले दिनों, फेड रिजर्व ने ब्याज दर में 0.25 प्रतिशत तक की वृद्वि की है। इसके सम्बन्ध में विशेषज्ञों का कहना है कि आरबीआई अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा के दौरान एक संतुलित दृष्टिकोण को ही अपनाएगा। मुद्रास्फीति की दरों की चुनौतियों के कम होने की बात को ध्यान में रखते हुए, अपनी प्रमुख ब्याज की दरों में बढ़ोत्तरी करने की आवश्यकता नही है।    

चावल की मुद्रास्फीति 9 प्रतिशत से बढ़का 12 प्रतिशत तक पहुँची

भारतीय सांख्यिकी मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार खुदरा महंगाई दर मई माह में 4.25 प्रतिशत तो जून माह में 4.81 प्रतिशत थी। इस प्रकार से देखा जाए तो मई माह के मुकाबले जून माह में खुदरा महंगाई की दर में 0.56 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। मार्केट रिसर्च फर्म नोमुरा के अनुसार, चावल पर वर्ष 2022 में लगे प्रतिबन्धों के उपरांत भी चावल की मुद्रास्फीति वार्षिक आधार पर 9 से बढ़कर जून में 12 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है। जबकि दैनिक आँकड़ें जुलाई माह में भी वृद्वि के ही संकेत दे रहें हैं।