अवसाद रोधी उपचार

                                                                            अवसाद रोधी उपचार

                                                                                                                                 डॉ0 दिव्यांशु सेंगर एवं मुकेश शर्मा

                                                                         

बायपोलर डिसऑर्डर की वापसी को रोकनें में सहायक

    ‘‘बायपोलर डिसऑर्डर’’ के रोगियों में अवसाद की स्थिति के समाप्त हो जाने के बाद रोगी को अवसाद रोधी दवाएं दिए जाने की अवधि एक बहस का विषय है। यह दवाएं मरीज को दोबारा से अवसाद में जाने की स्थिति को रोने में मददगार होती हैं।

    आधुनिक अवसाद रोधी उपचार को जारी रखकर इसके मरीजों में ‘‘बायपोलर डिसऑर्डर’’ की वापसी को रोका जाना सम्भव है। कनाडा स्थित ‘यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलम्बिया’ के अनुसंधानकर्ताओं के नेतृत्व में किए गए एक अन्तर्राष्ट्रीय अध्ययन से प्राप्त परिणामों के माध्यम से उक्त जानकारी प्राप्त हुई है।

‘‘बायपोलर डिसऑर्डर’’ से गस्त मरीजों में भावनात्मक और उनके मूड में अनेक प्रकार के बदलाव आते हैं। इसका रोगी कभी तो अपने आपको बहुत ऊर्जावान और खुश अनुभव करता है तो कभी वह अवसाद में चला जाता है। इस स्थिति का प्रबन्धन करने के लिए अवसाद के रोगियों को अवसाद रोधी दवाओं के साथ ही साथ उनके मूड स्विंग होने की स्थिति को रोकने और मूड को स्थिर करने वाली या फिर मनोविकार राधी दवाएं भी जाती हैं।

    ‘‘बायपोलर डिसऑर्डर’’ के रोगी में अवसाद की स्थिति के समाप्त होने के बाद उसे अवसाद रोधी दवाएं दिए जाने की अवधि एक बहस का विषय बनी हुई है। यह दवाएं रोगी में फिर से अवसाद की स्थिति उत्पन्न होने से रोकने में सहायता प्रदान करती हैं।

                                                                      

    इस विषय पर बहस का कारण यह आशंका होना है कि अवसाद रोधी दवाएं रोगी के ऊर्जावान बने रहने की दशा में उसके हालात बिगाड़ सकती हैं और इन दवाओं के कारण रोगी के ऊर्जावान तथा फिर से अवसाद अनुभव करने की चरम भावनात्मक स्थितियों के चक्र में तेजी भी आ सकती है। कनाडा के दिशा-निर्देशों के अनुसार, अवसाद की स्थिति के एक बार समाप्त हो जाने के बादअवसाद रोधी दवाएं 8 सप्ताह तक दिये जाने की सिफारिश की जाती है, परन्तु भारतीय मनोरोग सोसाइटी इसके सम्बन्ध में किसी भी स्पष्ट अवधि की सलाह प्रदान नही करती है।

    यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलम्बिया के द्वारा किए गए अनुसंधान के परिणाम मौजूदा दिशा-निर्देशों से अधिक समय तक इन दवाओं को देने की सिफारिश करते हैं। उक्त परिणाम ‘‘बायपोलर डिसऑर्डर’’ के उपचार के तरीकों में वैश्विक स्तर पर व्यापक परिवर्तन ला सकते हैं। इस अनुसंधान के परिणामों को ‘न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन’ नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है और इसके सम्बन्ध में परीक्षण कनाडाई, दक्षिण कोरियाई और भारतीय स्थलों पर भी किए गए हैं।

    इस अध्ययन की प्रमुख लेखक और विश्वविद्यालय में मनोरोग चिकित्सा विभाग की प्रमुख लक्ष्मी याथम ने बताया कि कुछ अध्ययनों से ज्ञात हुआ कि कुछ रोगियों ने 6 महीने अथवा उससे भी अधिक लम्बे समय तक इन दवाओं का सेवन जारी खा।

                                                                               

    अध्ययन में ‘‘बायपोलर डिसऑर्डर’’ के 178 ऐसे रोगियों को शामिल किया गया था, जो कि अवसाद रोधी आधुनिक दवाओं का सेवन करने के बाद अवसाद की स्थिति से उबर रहे थे। इन रोगियों को अपनी इच्छा के अनुसार या तो 52 सप्ताह तक अवसादरोधी उपचार ाके जारी रखने या 6 सप्ताह में धीरे-धीरे इनका सेवन बन्द करने और 8 सप्ताह में ‘‘फ्लेसिवो’’ (भा्रमक उपचार पद्वति) को अपनाने के लिए कहा गया था। सालभर के अध्ययन के अंत में फ्लेसिवो समूह के 46 प्रतिशत रोगियों के मूड में परिवर्तन देखा गया जबकि अवसाद रोधी दवाओं का सेवन जारी रखने वाले केवल 31 प्रतिशत रोगियों में ही ऐसा पाया गया।

    अध्ययन के अन्तर्गत ऐसे रोगियों में अवसाद के उत्पन्न होने की समस्या में 40 प्रतिशत तक की कमी पाई गई, जिन्होंने अवसाद रोधी दवाईयों का सेवन लम्बी अवधि तक किया था। अवसाद की स्थिति में रोगी उदास, हताश, अपनी गतिविधयों के प्रति अरूचि, नींद की समस्याए्र, भूख की प्रवृत्ति में बदलाव तथा आत्महत्या करने के जैसे विचारों से जूझता है। ऊर्जावान अनुभव करने की स्थिति की तुलना में इस स्थिति में रोगियों के आत्महत्या करने या इसकी कोशिश करने की आशंका कम से कम 18 गुना अधिक होती है। 

                                                              अवसादः महामारी के रूप में बढ़ती एक समस्या

    अभी हाल ही में भारतीय रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ) के एक जवान ने जयपुर से महाराष्ट्र जा रही एक रेल में गोलबारी करते हुए तीन यात्रियों को मौत के घाट उतार दिया। बेहद ह्नदय विदारक इस घटना ने हम सब का ध्यान एक बार फिर से मानसिक स्वास्थ्य की ओर आकर्षित किया है।

    बताया जा रहा है कि इस घटना को अंजाम देने वाले इस काँस्टेबल का मानसिक स्वास्थ्य ठीक नही था, और किसी को यह अंदाजा भी नही था कि सम्बन्धित काँस्टेबल की मानसिक हालत इस खतरनाक स्तर तक बिगड़ी हुई है।

    वास्तव में देखा जाए तो इस घटना में शामिल केवल उस काँस्टेबल का ही दोष नही था अपितु इसमें हमारे समाज का भी उतना ही दोष है, क्योंकि हमारे समाज में मानसिक सेहत को लेकर न तो कभी कोई चर्चा की जाती है और न ही इस बीमारी को कोई विशेष तव्वजों दी जाती है।

    डिप्रेशन (अवसाद) के जैसे मानसिक रोग पर कभी कोई मन्थ न करना एक चिन्तनीय विषय है। हमारे जीवन में डिप्रेशन किस हद तक हावी हो चुका है इस बात किसी को कोई भी अन्दाजा नही है।

    एक ताजा अध्ययन की माने तो भारत की लगभग 4.5 प्रतिशत जनता इस समय अवसाद के उच्चतम स्तर अर्थात ‘एक्यूट डिप्रेशन’ से ग्रस्त है। इसमें 13 से 15 वर्ष के आयुवर्ग के किशोरों में प्रति चार में से एक को अवसाद की समस्या है, तो वहीं डब्ल्यूएचओ यानी विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण-पूर्व एशिया के लगभग 8.6 करोड़ लोग इस व्याधि के कारण परेशान हैं।

    वर्तमान समय में हमारे समाज में हताशा, निराशा और अकेलापन इतना बढ़ चुका है कि आज लोग अपने इस अमूल्य जीवन का आन्नद लेने के स्थान पर मौत का आलिंगन कर रहें हैं या फिर वे मौत बाँट रहें हैं। इसका केवल और केवल एक ही कारण नजर आता है कि हम लोग चुनौतियों से निपटने की तकनीक से पूर्ण रूप से अनभिज्ञ हैं।

    इससे स्पष्ट है कि अनपेक्षित हालात से समायोजन नही कर पाने वाले लोग ही इस प्रकार के निराशाभरे कदम उठाते हैं। परन्तु ऐसा हो भी क्यों नही, इसमें दोष हमारा नही है क्योंकि हमारे समाज का ढाँचा ही कुछ इस प्रकार का है कि इसमें बिखराव और हताशा जैसी स्थिति से निपटने के लिए कोई भी कारगर और अचूक व्यवस्था उपलब्ध नही है।

    न तो कभी हमें इस प्रकार के हालातों से पार पाने के लिए कोई सामाजिक तकनीक बताई जाती है और न ही परिस्थितियों के साथ सामजस्य स्थापित करने के बारे में कोई शिक्षा प्रदान की जाती है। इससे स्पष्ट है यदि किसी परीक्षा की तैयारी ठीक से नही की जायेगी तो उसमें विफल होने के पूरे आसार होते हैं।

    यदि इस प्रकार के हालातों से येन केन प्रकारेण हम स्वयं को उबार भी लेते हैं तो उसके बाद के समय में सकारात्मकता के साथ स्वयं को जीवन की रफ्तार के साथ चलने का भी कोई उपाय हमारे पास उपलब्ध नही होता है।

    वर्तमान समय में अधिकतर लोग एकल परिवार में रहते हैं, जिसके चलते उनके जीवन में सकारात्मक विचारों की बेहद कमी होती है, जिससे ऐसे लोग बहुत ही आसानी के साथ मानसिक रोगों की चपेट में आ जाते हैं। जबकि अन्य देशों में इस प्रकार की चुनौतियों से निपटने के सम्बन्ध में काफी शोध कार्य किए गए हैं।

    विदेशों में अवसाद से निपटने के सम्बन्ध में विभिन्न कार्यशालाओं और प्रायोगिक प्रशिक्ष्णो इत्यादि को आम लोगों के जीवन का हिस्सा बनाया जाता है। इन शोधों के माध्यम से तनावपूर्ण क्षणों में स्वयं को खुश रखने के लिए विभिन्न बेमिशाल तरीकों की खोज भी की गई है।

    गहरे तनाव से जूझते, प्रतिस्पर्धात्क दौड़ से निपटते और दमघोंटू स्कूली वातावरण में अवसाद का बोझ उठाते लोगों से एक मजबूत राष्ट्र का स्तम्भ बनने की अपेक्षाएं नही की जा सकती और इसी के साथ ही उनसे समाज एवं परिवार आदि संस्थाओं के हित में प्रगति की आशा की जा सकती है।

    हमारी साँस्कृतिक विविधता और समुत्थान शक्ति हमारे समाज में एक खुशहाल समंदाय की सकारात्मकता का पैमाना माना जाता है। जिसे स्कूल एवं कॉलेजों के वातावरण के साथ समाज में व्याप्त विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से बढ़ावा दिया जाए तो इसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आ सकते हैं।

    विपरीत एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में स्वयं को मजबूत एवं अवचिल बनाए रखना अपने आप में अति कठिन एवं दुष्कर कार्य है परन्तु यह इतना भी दुष्कर नही होता कि इससे निपटा ही न जा सकें। वर्तमान समय में इस महामारी से निपटना बहुत ही आवश्यक है, नही तो इस प्रकार से मौत बाँटने वाले लोगों से जीवन के किसी न किसी मोड़ पर आपसे भी टकराव हो सकता है।     

                                                                               

लेखकः डॉ0 दिव्यांशु सेंगर, प्यारे लाल शर्मा जिला अस्पताल मेंरठ में मेडिकल ऑफिसर हैं।