कृषि तकनीक आधारित उद्यमशीलता का विकास

                                                                      कृषि तकनीक आधारित उद्यमशीलता का विकास

फसल क्षेत्र

    भारत का आर्थिक आधार कृषि ही है और देश के सकल घरेलू उत्पाद 27 प्रतिशत कृषि उत्पादन का योगदान है तथा देश की सकल श्रम-शक्ति का 67 प्रतिशत भाग कृषि के विभिन्न कार्यों में ही संलग्न है। देश की 65 प्रतिशत जनसंख्या के लिए जीविको-पार्जन का साधन एकमात्र कृषि ही है। इन सब तथ्यों का आधार देश की 14.20 करोड हैक्टेयर भूमि है, जिस पर खेती की जाती है।

कृषि कार्यों हेतु यह क्षेत्र लगभग निश्चित है जिसमें आने वाले समय में वृद्वि होने की कोई सम्भावना नही है। हालांकि खेती की सघनता में वृद्वि हो सकती है, जिसके कारण फसलों के सकल क्षेत्रफल में वृद्वि होने की सम्भावना है, जिसका ब्योरा सारणी में दर्शाए गये आंकड़ों के माध्यम से स्पष्ट हो जाता है-

सारणी-1: फसल क्षेत्रफल का सम्भावित विकास

विवरण   वर्ष 1996-97   वर्ष 2011-12   वर्ष 2021-22

1.   शुद्व बुआई क्षेत्र (करोड़ हैक्टेयर) 14.20, 19.05 134.2

2.   सकल बुआई क्षेत्र (करेाड़ हैक्टेयर) 14.20 21.35 150.35

3.   फसल की सघनता (प्रतिशत में) 0.91 प्रतिशत 0.77 प्रतिशत 0.61 प्रतिशत

4.   सकल फसल क्षेत्रफल में अनुमानित वार्षिक वृद्वि दर (प्रतिशत में)

      (क) नवीं पंचवर्षीय योजना काल में

      (ख) दसवीं पंचवर्षीय योजना काल में

      (ग) ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना काल में  

    उपरोक्त सारणी में दिये गये आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि आने वाले वर्षों में विभिन्न फसलों के क्षेत्रफल में सघन खेती के माध्यम से कुछ वृद्वि होने की सम्भावना है जिसके द्वारा न केवल कृषि के सकल उत्पादन में वृद्वि होगी, अपितु कृषि के क्षेत्र में कुछ रोजगार के अवसरों में भी वृद्वि होगी। किन्तु रोजगार के अवसरों में होने वाली यह वृद्वि भारत की बेरोजगारी की समस्या का कितना समाधान कर पायेगी, इसका अनुमान लगाने के लिए भारत की वर्तमान जनसंख्या एवं रोजगार/बेरोजगारी के आंकड़ों पर दृष्टि डालना भी आवश्यक होगा।

    उपरोक्त सारणी के आंकड़ों से स्पष्ट है कि हमारी जनसंख्या की वृद्वि दर फसल क्षेत्रफल की वृद्वि दर से अधिक है, जिसके फलस्वरूप हमारी आबादी तीव्र गति से सघन होती जा रही है। भारत में भूमि पर आबादी का दबाव वर्ष 1991 तक पिछली शताब्दी की अपेक्षा चार गुनी हो चुकी थी।

    निरंतर बढ़ती आबादी के इस दबाव ने भारतीय कृषि को भी बुरी तरह से प्रभावित किया है। बढ़ती जनसंख्या के कारण कृषि योग्य भूमि भी निरंतर कम होती जा रही है और जोत क्षेत्र (लैण्ड होल्डिंग) दिन प्रति दिन सिकुड़ता ही जा रहा है।

    प्रद्वत आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि आबदी के बढ़ने के साथ ही जमीन का बंटवारा होता गया, बड़ा जोत क्षेत्र छोटा होता चला गया जिससे छोटी जोत क्षेत्रों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्वि होती चली गई। वर्ष 1960-61 में कुल 489 लाख हैक्टेयर जोत क्षेत्र था जो कि 2021-22 तक काफी कम हो गया, और यह प्रक्रिया निरंतर जारी है, जिसका परिणाम यह हुआ कि अधिकाँश जोत इतनी अधिक छोटी हो गई कि अब वे एक परिवार के जीविकोपार्जन के लिए भी पर्याप्त नही रह गई हैं, इसी के चलते उनकी अािर्थिक क्षमता अत्याधिक क्षीण हो गई है और इस विषम स्थिति में अर्थोपार्जन के लिए पूरक उपाय अति आवश्यक हो गये हैं किन्तु साधनों के उपलब्ण नही होने के कारण यह भी सम्भव नही हो पा रहा है।

इसके परिणाम स्वरूप भारत का ग्रामीण जीवन बिखर गया, वहाँ अशान्ति का वातारण है, बेरोजगारी बढ़ती जा रही है, समस्त सामाजिक मान्यताएँ अद्योगति की ओर अग्रसर हैं तथा असंतोष एवं अव्यवस्था बहुत तेजी के साथ बढ़ रही हैं। फलस्वरूप रोजगार की तलाश में ग्रामीण युवकों का पलायन शहर की ओर बढ़ रहा है, इसके कारण केवल हमारे गाँवों की व्यवस्था ही ध्वस्त नही हुई अपितु शहर भी अस्त-व्यस्त हो गये हैं। कुलमिलाकर कहना यह है कि भारत एक बहुत ही कठिन दौर से गुजर रहा है।

कृषि पर आधारित रोजगार

    योजना आयोग के द्वारा नवीं पंचवर्षीय योजना के प्ररूप में लिखा है कि भारत के योजनाबद्व विकास एक प्रमुख उद्देश्य है जिसमें गरीबी उन्मूलन और गरीबी ही प्रमुख निर्धारक हैं। उत्पादक रोजगार हीनता एवं आंशिक बेरोजगारी, जिसके कारण लोगों की आय कम है के चलते उनमें क्रय शक्ति का अभाव उत्पन्न हो रहा है। 

भारत में बेरोजगार तथा आंशिक बेरोजगारी की समस्या तो अपने आप में काफी गम्भीर है ही वहीं इसकी गम्भीरता अदृश्य बेरोजगारी के कारण अधिक गहरा गयी है। इस समय भारत अधिसंख्य लोग तो इस प्रकार के हैं कि वे काम में तो लगे हैं और वे व्यस्त भी हैं परन्तु उनके काम से इतना धनोपार्जन नही हो पाता है कि वह उनकी दैनिक जरूरतो की पूर्ति कर सके, अतः उन्हें अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए कुछ और करने के विकल्प तलाशने पड़ते है।

वास्तव में इस प्रकार के लोग ही आंशिक बेरोजगार कहलाते हैं यद्यपि बाहरी तौर पर ऐसा दिखता नही है ओर ये लोग अदृश्य अथवा अप्रत्यक्ष आंशिक बेरोजगारी की श्रेणी में ही आते हैं। वास्तव में बेरोजगारी की समस्या गहन होने के साथ ही जटिल भी है, जिसका आभास इन आंकड़ों से अच्छी तरह से हो जाता हैं।

    वर्ष 1987-88 के आंकड़ें स्पष्ट तौर पर बताते हैं कि रोजगार के प्रतिशत में 1972-73 से लगातार कमी होती चली आ रही है इसका अर्थ यह है कि ग्रामीण स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर भी बेरोजगारी के प्रतिशत में इसे जोड़ा जाए तो ज्ञता होता है कि बेरोजगारी की वास्तविक संख्या में जो वृद्वि हुई है, वह अपने आप में काफी भयावह स्थिति है।

    उक्त आंकड़े दर्शाते हैं कि मात्र 15 वर्षों की अल्प समयावधि (1972-87) में बेरोजगारों की संख्या में ग्रामीण स्तर पर लगभग चार गुनी तथा राष्ट्रीय स्तर पर तीन गुना से अधिक वृद्वि हुई है। वर्ष 1987-88 के बाद अभी तक के आंकड़े तो कहीं अधिक भयवह होंगे। केवल इतना ही नही, जो लोग रोजगार में लगे हुए दिख रहें हैं उनमें से काफी लोग ऐसे भी होंगे जो आंशिक बेरोजगारी के तहत आते होंगे। प्रस्तुत सारणी में प्रद्वत आंकड़ों से इस तथ्य की भली-भाँति पुष्टि होती है।

    जैसा कि उपरोक्त सूची से स्पष्ट है कि एक हजार रोजगाररत लोगों में ग्रामीण स्तर पर केवल 747 तथा राष्ट्रीय स्तर पर मात्र 754 लोग ही पूर्ण रूप से रोजगार में संलग्न है। उक्त आंकड़ें यह भी दर्शातें हैं कि महिलाओं में ओशिक बेरोजगारी की समस्या पुरूषों की अपेक्षा अधिक है।

    कुल मिलाकर, यदि हम कृषि आधारित भारत की आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन करें तो उक्त आंकड़ें निम्नलिखित संदेश देते हैं-

  • कृषि योग्य भूमि सीमित है। इसके क्षेत्रफल में शहरी एवं औद्योगिक विकास के चलते कमी आने की पूरी सम्भावनाएं है, न कि इसमें बढ़ोत्तरी होने की।
  • उन्नत कृषि तकनीक तथा अन्य संसाधनों के उपयोग से फसलों की सघनता में वृद्वि होने की सम्भावना है, जिससे कुछ रोगार का सृजन भी होगा और इससे अतिरिक्त आमदनी भी प्राप्त होगी, परन्तु जनसंख्या वृद्वि की तुलना में यह वृद्वि नगण्य ही सिद्व होगी।
  • वर्तमान में बेरोजगारी की समस्या गम्भीर से गम्भीरतम होती जा रही है, जो कि सामाजिक एवं आर्थिक दोनों ही दृष्टिकोणों से खतरनाक है।
  • हालांकि यह स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक चिन्ताजनक है, क्योंकि वहाँ की सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था मूल रूप से कृषि पर ही केन्द्रित होती है।

अतः इस स्थिति से उबरने का एकमात्र उपाय है कि ग्रामीण क्षेत्रों में उद्यमिता का विकास किया जाए। चूँकि भारत में ग्रामीण क्षेत्र एवं कृषि दोनेां ही एक-दूसरे का पर्याय हैं, ग्रामीण क्षेत्रों में उद्यमिता यदि कृषि पर ही आधारित होगी तो अधिक उपयुक्त एवं ग्राहय सिद्व होगी।

रोजगार सृजन के अनुभव

भारत में इस प्रकार के प्रयास आठवीं पंचवर्षीय योजना के समय से ही किए जा रहे हैं। उधर ग्रामीण विकास के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों का संचालन भी किया गया जैसे कि सघन ग्रामीण विकास योजना (आई.आर.डी.पी.), स्वरोजगार के लिए ग्रामीण युवकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम (ट्राइसेम), ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं तथा बच्चों का कार्यक्रम (ड्वाका) आदि।

यह समस्त कार्यक्रम राज्य सरकार के द्वारा संचालित, आर्थिक सहायाता एवं अनुदान के आधार पर अधोमुखी (टॉप टू डाउन) संचालित हैं, जिनमें ग्रामीणों के अािर्थक विकास को लक्ष्य बनाया गया था, संसाधन नही, परन्तु इनमें अपेक्षा के अनुरूप  सफलता प्राप्त नही हो सकी। योलना आयोग के द्वारा, अपने ही मूल्यांकन में कहा है कि ट्राइसेम के अन्तर्गत प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले लोगों में केवल 32.54 प्रतिशत लोग ही स्व-रोजगार में लग पाये जबकि इनमें से 12.41 प्रतिशत लोगों के द्वारा इस प्रकार के रोजगारों को अपनाया गया जिनका उनके प्रशिक्षण से कोई भी सम्बन्ध नही है।

यहाँ तक कि आधे से अधिक प्रशिक्षार्थियों के द्वारा तो आई.आर.डी.पी. के अन्तर्गत कर्ज लेने के लिए आवेदन ही नही किया गया। ऐसे प्रशिक्षार्थियों ने अपने प्रतिवेदन (ड्राफ्ट) में बाद में लिखा कि इन कार्यक्रमों की प्रमुख कमजोरी उपयुक्त प्रशिक्षण का अभाव था। इसलिए नवीं प्रचवर्षीय योजना में प्रशिक्षण को आई.आर.डी.पी. का एक अभिन्न अंग बनाने को प्रस्ताव किया गया था, जिसमें मानव संसाधन के विकास को विशेष बल दिया जाना प्रस्तावित था, जिससे कि उद्यमी को उपयुक्त उद्यम चयन, आर्थिक प्रबन्ध तथा सरकारी सुविधाओं के उपयोग करने की क्षमता आदि से युक्त हों। अतः कहा जा सकता है कि नवीं पंचवर्षीय योजना में भी ग्रामीण क्षेत्रों में उद्यमिता के विकास को प्राथमिकता प्रदान की गई।

यहाँ यह स्पष्ट कर देना समयानुकूल होगा कि 8वीं पंचवर्षीय योजनाके अन्तग्रत ट्राइसेम के तहत केवल ट्रेड की दक्षता का ही प्रशिक्षण दिया गया था। उन प्रशिक्षणों में मानवीय संसाधन विकास का कोई समावेश नही किया गया था, जिस कमी का अहसास पंचवर्षीय योजना के प्रारूप में अभिव्यक्त हुआ। हालांकि वह भी अधिक सुस्पष्ट नही है क्योंकि उद्यमिता के विकास के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्यमिता प्रेरक संवेदनशीलता (आंट्रीप्रीन्यूरियल मोटिवेशन) का प्रशिक्षण द्वारा विकास का उल्लेख नही किया गया है।

उद्यमिता विकास

    उद्यमिता के बारे में आगे चर्चा करने से पूर्व, इस वास्तविकता का उल्लेख करना आवश्यक है कि उद्यमिता बेरोजगारी को दूर करने का एक सम्पूर्ण साधन नही हैं। बेरोगारी की समस्या इतनी व्यापक है कि इसका समाधान बहुमुखी साधनों एवं उपायों के माध्यम से ही सम्भव है। इसके लिए उद्यमिता विकास के अतिरिक्त अत्याधुनिक तकनीक के प्रयोग के द्वारा कृषि की उत्पादकता में वृद्वि, कृषि औद्योगिकीकरण, कुटीर उद्योगों का विकास, ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध दस्तकारी का आधुनिकीकरण, व्यापार एवं संसाधन सुव्यवस्था के लिए सहयोग समितियों का विकास आदि विशेष बल देना होगा। इस प्रकार से यह तो कहा ही जा सकता है कि उद्यमिता ग्रामीण विकास के लिए एक सशक्त एवं दूरगामी साधन है।

    उद्यमिता एक ऐसी आर्थिक कार्य व्यवस्था है जिसका मुख्य उद्देश्य आर्थिक एवं सामाजिक लाभों को सुनिश्चित् करना है। यह कार्यव्यवस्था इतनी सहज नही है कि कोई भी इसे कर सके, चूँकि इसमें जोखिम है जिसे सब नही उठा सकते हैं। वह व्यक्ति जिसमें व्यक्तिगत उपलब्धि के लिए प्रचुर संवेदना हो, समाज कल्याण की भावना हो, जिसका व्यवहार प्रभावकारी हो, जिसके अन्दर प्रबन्ध क्षमता हो, आर्थिक दृष्टिकोण हो तथा भविष्य के लिए परिकल्पना हो वही उद्यमशीलता की ओर अग्रसर हाने में सक्षम व्यक्ति हो सकता है और वही इस जोखिमों से भरी कार्यव्यवस्था को विवेकपूर्वक अपनाकर सफलता की मंजिल तक पहुचनें में कामयाब हो सकता है।

वहीं भारतीय समाज में कुछ लोगों में यह भ्रॉन्ति है कि उद्यमिता किसी जाति विशेष, परिवार तथा व्यवसाय के लोगों के लिए ही सम्भव है, सभी के लिए नही। जबकि वास्तविकता तो यह है कि जिस व्यक्ति में भी उद्यमशीलता के उपर्युक्त विशेषताएं विद्यमान होगी, वह उद्यमी पूर्ण रूप से सक्षम है। अनुसंधानों एवं अनुभवों के माध्यम से यह सिद्व किया जा चुका है कि उद्यमशीलता की यह सभी विशेषताएं ऐसी हैं जिन्हें सीखा अथवा विकसित किया जा सकता है, इनमें से कोई भी विशेषता जन्म-निर्धारक नही है, हालांकि यह जन्मजात हो सकती हैं।

उद्यमिता विकास के चार प्रमुख आयाम होते हैं- उपलब्धि प्रेरक, संवेदना (अचीवमेन्ट मोटिवेशन), उद्यम स्थापना तथा उसके लिए उपयुक्त सेसाधनों को जुटाना एवं उद्यम प्रबनध तथा सामाजिक उत्तरदायित्व आदि। इन चारों ही आयामों का विकास प्रशिक्षण के माध्यम से किसी भी सामान्य व्यक्ति के अन्दर किया जा सकता है।

    हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे लोग बड़ी संख्या में होते हैं जो कि बेरोजगारी अथवा आंशिक बेरोजगारी की समस्या से पीड़ित हैं। इनमें से कुछ शिक्षित हैं तो कुछ अशिक्षित, कुछ युवा हैं तो कुछ व्यस्यक, कुछ उत्साही हैं तो कुछ साधन सम्पन्न एवं कुछ साधन विपन्न, तो कुछ ऐसे भी हैं कि जिनके पास साधनों का सर्वथा अभाव तो नही है परन्तु जो उनके पास उपलब्ध हैं वे अपर्याप्त हैं।

इन समस्त वर्गों के लोग एक सफल उद्यमी बनने में सक्षम होते हैं, यदि वे प्रशिक्षण के माध्यम से अपने अन्दर उद्यमशीलता का विकास कर सके। यह सत्य है कि एक उद्यम केवल एक ही व्यक्ति को ही एक लाभकारी रोजगार नही देता है अपितु वह आस-पसा के अन्य लोगों को भी रोजगार उपलब्ध कराता है।

अतएव उद्यमिता का ग्रामीण जीवन एवं उसकी अर्थव्यवस्था पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है। यहाँ एक तथ्य और ध्यान देने के योग्य है कि यदि ग्रामीण उद्योग कृषि आधारित हो तो उसके सफल होने की सम्भावनाएं भी अधिक होंगी, क्योंकि इसके कुछ संसाधन तो स्थानीय रूप से ही उपलब्ध होते हैं तथा कृषि सामग्री से उद्यमीं का सुपरिचित होना भी उसकी व्यवस्था को सरल बनाने में सहायक होगा। ऐसी उपयोगी वस्तुएं (सामग्रियाँ) कृषि क्षेत्रों में अनेकों होती है जैसे दाल, मसाला उद्योग, मश्रूम उद्योग, फल एवं सब्जी जनित उद्योग, कृषि यन्त्र जनित उद्योग, बीज उद्योग, खाद्य-सामग्री उद्योग, पौधशाला उद्योग तथा पुष्प उद्योग आदि।

    ग्रामीण विकास कार्यक्रम का आधार ही उद्यमशीलता का विकास होना चाहिए। इसके लिए ग्रामीण पुरूषों और महिलाओं का ही चयन कर उन्हे प्रशिक्ष्ण प्रदान किया जाना चाहिए, उद्यम की स्थापना के लिए तकनीकी मार्गदर्शन देना चाहिए, उपयुक्त संसाधनों के लिए आर्थिक सहयोग तथा सहायता को भी उपलब्ध कराया जाना चाहिए वह ग्रामीण उद्यम विकसित हो, फूले-फले तथा ग्रामीण जीवन में आर्थिक एवं सामाजिक सम्पन्नता का प्रादुर्भाव किया जा सकें और सम्पूर्ण कार्यक्रम का निरंतर निर्देशन करते रहना चाहिए जिससे कि इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को संचालित करने के लिए ग्रामीण विकास विभाग, कृषि प्रसार विभाग आदि कार्य कर रहें हैं, जो कि प्रखण्ड़ स्तर पर काम करते हुए तृण-मूल स्तर पर कार्य करते हैं। भारत सरकार के द्वारा उद्यमिता विकास के लिए व्यापक रूप से विभिन्न व्यवस्थाएं की गई है, जैसे कि आर्थिक सहयोग के लिए ग्रामीण बैंको की स्थापना, समाज के कमजोर वर्गों के लिए आई.आर.डी.पी. के अन्तर्गत आर्थिक अनुदान की व्यवस्था जो कि प्रखण्ड़ स्तर से प्रदान की जाती है तथा गाँवों में विद्युत व्यवस्था आदि।

    कृषि प्रसार कार्यकर्ताओं का तन्त्र सम्पूर्ण ग्रामीण क्षेत्र में व्यापक रूप से विस्तारित है और इसके सारे संसाधन कृषि विकास के कार्यों में ही संलग्न है, अतः कृषि कार्यकर्ताओं को अब कृषि विकास कार्यक्रम के स्वरूप में भी परिवर्तन करना चाहिए। वर्तमान समय में कृषक वैज्ञानिक विधि से खेती करने के प्रति आश्वस्त हैं, और कृषि के समस्त आधुनिक संसाधनों का स्वेच्छा से उपयोग भी कर रहे हैं। इसलिए अब कृषकों को उन्नत कृषि के सम्बन्ध में नई जानकारियों की दरकरार है और इसके साथ ही संसाधनों की उपलब्ध्ता को भी सुनिश्चित् कराया जाना चाहिए।

उसके लिए न तो प्रत्यक्षण की आवश्यकता है और न ही परसुएशन अथवा प्रोत्साहन आदि की। अब कृषि प्रसार कार्यकर्ताओं को कृषि प्रसार के पुराने तरीकों मसलन प्रत्यक्षण लगाना और किसानों को कृषि की विभिन्न तकनीकों के लिए प्रेरित करने के प्रयास को छोड़कर उद्यमिता के के विकास के कार्य में जुट जाना चाहिए।

अब समय प्रेरणा एवं प्रोत्साहन उपयुक्त उद्यम की स्थापना और उसे संचालित करने के लिए किसानो को देना का है, न कि कृषि तकनीकों को अपनाने के लिए। इनके लिए तो आज का किसान प्रोत्साहित हो ही चुका है, अब इस कार्यक्रम की कार्यशैली में परिवर्तन लाना होगा, और कृषि प्रसार कार्यकर्ताओं की कार्य पद्वति कुछ इस प्रकार की होनी चाहिए-

प्रशिक्षण

    उद्यमिता को केवल संवाद प्रक्रिया के माध्यम से ही विकसित नही किया जा सकता, बल्कि उद्यमियों का विवेकपूर्ण तरीकों से चयन करना होगा और उन्हें 8-10 दिन के प्रशिक्षण शिविरों अथवा संस्थाओं में प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा। इस प्रशिक्षण का प्रमुख उद्देश्य उद्यमिता प्रेरक संवेदनशीलता उत्पन्न करना है, जिसको एन्ट्रीप्रिन्युरियल मोटिवेशन कहा जाता है, यह सब नही कर सकता। इसके लिए दक्षता हासिल करनी पड़ती है तािा इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे प्रशिक्षकों भी तैयार करना होगा जो इस कार्य के लिए उपयुक्त दक्षता उत्पन्न करने में सहायक हो। ऐसे प्रशिक्षकों का विकास कर इन प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना प्रखण्ड़, उपमण्ड़ल अथवा जिला-स्तर पर की जा सकती है जो स्थानीय विद्यालय या पंचायत भवन में जाकर कृषकों को उद्यमिता का प्रशिक्षण प्रदान कर सके। कृषि विश्वविद्यालयों या राज्य के प्रसार तन्त्रों (मशीनरीज) को उद्यमिता विकास के लिए गतिमान करने की आवश्यकता है, जिससे कि इसे सुचारू रूप से संचालित किया जा सके।

कार्यकलाप एवं संचालन

    इस काम की क्रियाविधि एवं इसके संचालन के तरीकों में मौलिक परिवर्तन करने होंगे। कृषि प्रसार कार्यक्रम शिख उन्मुख होते हैं न कि अधोन्मुख- जो ऊपर से नीचे की ओर चलता है, और जिनमें कृषक लक्ष है, टारगेट होते हैं। उद्यमिता विकास उद्यमी की क्षमतओं के विकास पर आधारित होता हैं। इस प्रकार से उद्यमिता में कृषक बन्धुओं को लक्ष्य नही किया जाता है, अपितु लक्ष्यों की पूर्ती के लिए सक्षम सानों को लक्ष्य किया जाता है। अतः यह कार्यक्रम आधारोन्मुख होगा, शिखरोन्मुख नही। इसमें उद्यमी का सक्षम एवं आत्मनिर्भर होना अति आवश्यक है, यदि वह प्रसार कार्यकर्ताओं पर आश्रित हुआ तो वह सफलता को छू भी नही पायेगा।

इसलिए प्रसार कार्यकर्ताओं का कार्य उद्यमी को मार्गदर्शन प्रदान करना है, हालांकि वह यदा-कदा सूक्ष्म सहायोग (क्रिटिकल सपोर्ट) भी करेंगे, परन्तु उनके लिए स्वयं कार्य कर उनके अन्दर पराश्रय की भावना को जागृत एवं परिपोषित नही करेंगे। इसी प्रकार से उद्यमीं को विभिन्न सरकारी विभागों एवं संस्थाओं से सेवाएं एवं सहयोग प्राप्त करने की आवश्यकता पड़ती है, अतः इस कार्य के लिए उद्यमीं में प्रसार कार्यकर्ताओं पर आश्रित होने की प्रबल सम्भावनाएं होती है।

इसका विवेकपूर्ण निवारण करने की आवश्यकता है जिससे कि वह स्वयं एक प्रभावी उद्यमी बन सकें न कि पराश्रित उद्यमी। उद्यम के संचालन का मार्ग सरकारी नौकरशाही, भ्रष्टाचार, बाजारू दांव-पेंच और ऐसी ही अन्य कठिनाईयों से भरा पड़ा है और उद्यमी को इन सभी कठिनाईयों से जूझकर सफलता के सोपान पर चढ़नें की क्षमता को प्राप्त रिना होगा तथा इसके लिए किसी भी प्रसार कार्यकर्ता के सहयोग की आवश्यकता अपेक्षित होगी।

    चूँकि कृषि प्रसार अभी तक कृषकों तक कृषि तकनीकों को पहुँचाने में ही संलग्न था जिसमें उसे भरपूर सफलता भी प्राप्त हुई है। यह कार्य ऐसा है कि जो कभी भी पूर्ण नही होगा क्योंकि रोज नई तकनीकों का विकास किया जा रहा है, इसलिए इसे तो चलता ही रहना है और कृषि में उत्पादन वृद्वि के प्रयास भी सदैव जारी ही रहेंगे। किन्तु इस परिप्रेक्ष्य में कुछ आवश्यक परिवर्तन लाकर अब उद्यमिता विकास की चुनौतियों को साकार करने का समय आ गया है।

सम्पूर्ण प्रसार संसाधनों को समर्पण की भावना के साथ अब इस कार्य में भी जुटना होगा। प्रसार का यह नया स्वरूप चुनौति, उत्सुकता, सृजनता एवं सार्थकता से परिपूर्ण है, जिसे अंगीकार करना राष्ट्रीय वाँछनीयता तथा सामायिक अनिवार्यता का रूप धारण कर चुकी है।