अलसी की खेती

                                                                                      अलसी की खेती

                                                                        

      अलसी रबी की एक महत्वपूर्ण फसल है। यह बीज और रेशा प्राप्त करने के उद्देश्य भारत के कई राज्यों में उगाई जाती है। अलसी का पौधा लिनम वंश का सदस्य है, जो लीनेसी परिवार के अंतर्गत आता है। यह पौधा पूर्वी मध्य सागर एवं भारत के बीच वाले क्षेत्र का देशज है। इसकी खेती की शुरूआत पश्चिमी एशिया में हुई। अधिकांश वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि अलसी की उत्पत्ति फारस की खाड़ी तथा कैस्पियन सागर के बीच वाले स्थान पर हुई। वहीं कुछ विद्वान अफगानिस्तान को अलसी की उत्पत्ति का स्थान मानते हैं। प्राचीन भारतीय ग्रन्थ ‘मनुस्मृति‘ में भी अलसी का विवरण प्राप्त होता है।

                                                                                                                          प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता

बुआई का समयः- सिंचाई के साधनों, मृदा व जलवायु में विभिन्नता के कारण विभिन्न राज्यों में अलसी की बुवाई माह अक्टूबर से नवम्बर माह के मध्य तक की जाती है। अलसी की फसल की अगेती बुवाई से रस्ट, चूर्णिल आसिता एवं बर्ड फ्लाई आदि के संक्रमण से बचाया जा सकता है।

मृदाः- अच्छे जल-निकास वाली लगभग सभी मृदाओं (पी.एच.मान 5-7) में अलसी की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। मध्यम उपजाऊ मृदाएं अलसी की खेती के लिए अच्छी मानी जाती हैं। तराई क्षेत्रों की कंकरीली मृदाओं में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। अलसी की खेती के लिए जल-निकास की व्यवस्था उत्तम होनी आवश्यक है।

खेत की तैयारीः- अलसी की बुआई के लिए खेत की 2 या 3 जुताईयां ही पर्याप्त रहती हैं। भुरभुरी मृदा अलसी की बुआई के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है, क्योंकि इसका बीज आकार में बहुत ही छोटा होता है।

                                                                

बीज-दरः- बुआई से पूर्व बीज को काबेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करना अच्छा रहता है। ट्राईकोडरमा विरडी अथवा ट्राईकोडरमा हारिजएनम की 5 गाम मात्रा प्रति कि.ग्रा. से बीज को उपचारित कर बुआई करनी चाहिए। अलसी की बुआई के लिए 30 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टर की दर से पर्याप्त रहता है।

सिंचाईः- सामान्यतः अलसी को अधिसिंचित फसल के रूप में उगाया जाता है। पर्याप्त (मात्रा एवं संख्या में) सिंचाई करने से उपज में वृद्वि होती है। अलसी की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 2-3 सिंचाई पर्याप्त रहती है।

खादः- अलसी की फसल का अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद (4.5 टन/हैक्टर) अन्तिम जुताई के समय खेत में अच्छी तरह से मिला देना चाहिए। मृदा परीक्षण के अनुसार उर्वरकों का प्रयोग अधिक लाभकारी होता है। अलसी को असिंचित अवस्था में नाईट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश क्रमशः 40:20:20 कि.ग्रा./हैक्टर देनी चाहिए।

रोग प्रबन्धनः- विभिन्न प्रकार के रोग अलसी की फसल को प्रभावित करते हैं। इनमें रस्ट, झुलसा, उकठा, चूर्धिल आसिता, एवं फिलोडी आदि प्रमुख हैं। रोगों के कारण अलसी की उपज की गुणात्मक एवं मात्रात्मक हानि होती है।

झुलसाः- झुलसा एक बीज-जनित रोग है। इसके रोगजनक (अलटरनेरिया) का कवक तन्तु अलसी के बीजचोल में रहता है। संक्रमित बीज को यदि अंकुरण के समय उपयुक्त वातावरण प्राप्त हो जाए तो बीजचोल में पड़ा निष्क्रिय कवक तंतु सक्रिय हो जाता है। इसके रोग-लक्षण बिन्दुरूप में दिखाई देते हैं। रोग की तीव्रता बढ़नें पर छोटे-छोटे धब्बे आपस में मिलकर अनियंत्रित आकार ग्रहण कर लेते हैं।

ऐसा कोई पौधा जब किसी रोगजनक से प्रथमबार सक्रंमित होता है तो इसे प्राथमिक संक्रमण कहते हैं। द्वितीय संक्रमण (वायु द्वारा) प्राथमिक संक्रमण के फलस्वरूप उत्पन्न हुए परोपेगुलस द्वारा होता है जो रोग लक्षण पत्तियों के अतिरिक्त अलसी के तने तथा कैप्सूल पर भी दिखाई पड़ने लगते हैं।

अलसी के उपयोग

                                                                  

    अलसी के तेल का उपयोग वार्निश, रंग, साबुन एवं पेन्ट आदि के तैयार करने में किया जाता है। ओमेगा-3 अम्ल की उपस्थिति के कारण अलसी का औषधीय महत्व भी है। यह अम्ल उच्च कोलेस्ट्रॉल, उच्च रक्तचाप तथा शोथ आदि रोगों के निवारण हेतु अति लाभकारी है। इसके उपयोग का तरीका रोग की प्रकृति पर निर्भर करता है। अलसी में विभिन्न प्रकार के कैंसर रोधी तत्वों की खोज की जा चुकी है। अलसी की खली को दुधारू पशुओे के लिए एक उत्त्म खाद्य माना जाता है।

    आमेगा-3 एवं ओमेगा-6 का श्रेष्ठ अनुपात 1:1 का होता है। वसा अम्लों के अनुपात में भिन्नता ही मधुमेह रोग का एक बड़ा एवं प्रमुख कारण होता है। मधुमेह रोग का खराब प्रभाव गुर्दों पर पड़ता है, मधुमेह के रोगी में उच्च रक्तचाप की प्रबल संभावानाएं होती है। अलसी के बीजों के सेवन से महिलाओं व पुरूषों में यौन संबंधी समस्याओं को भी नियंत्रित किया जा सकता है। अलसी में 27 प्रतिशत घुलनशील (म्यूसिलेज) और अघुनशील दोनों ही अवस्थाओं के फाईबर होने के काण अलसी ईसबगोल की भूसी से भी अधिक लाभदायक है।

    अलसी के तने से रेशा प्राप्त किया जाता है। इसका उपयोग मानव द्वारा प्राचीन काल से किया जाता रहा है। अलसी के रेशे अकेले ही या कपास, रेशम अथवा ऊन के रेशों के साथ मिलाकर वरूत्र तैयार किए जाते हैं। इस प्रकार के मिश्रित धागों से निर्मित वस्त्र चमकदार व उच्च गुणवत्ता वाले होते हैं। उच्च कोटि के अलसी के रेशे से वस्त्र, रस्सियां और चटाई आदि बनाई जाती हैं।  

    अल्टरनेरिया का अंकुरण 35-50 सेल्सियस के मध्य किसी भी तापमान पर हो सकता है, परन्तु 25.0 सेल्सियस तापमान इसके अंकुरण के लिए अति उत्तम होता है।

पादप संरक्षण

                                                                     

खरपतवार प्रबन्धनः- अनचाहे पौधे, जो उगाई फसल के परिवार या फिर उससे भिन्न या उगाई गई फसल की किस्म से भिन्न हों, खरपतवार कहलाते हैं। यदि इन खरपवारों का प्रबंधन उचित समय या उचित तरीके से न किया जाए तो उपज में लगभग 30-40 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है। मोथा, गेहॅं का मामा, बथुआ आदि अलसी के प्रमुख खरपतवार हैं। अतः बुआई के 25 दिनों तक खेत को खरपतवार से मुक्त रखना अनिवार्य है।

कीट प्रबंधनः- विश्व में अलसी की फसल को प्रभावित करने वाले कीटों की लगभग 36 प्रजातियां पाई गई हैं, परन्तु कीटों कुछ विशेष प्रजातियां ही अलसी की फस्ल को हानि पहुंचाती हैं। इन विशेष प्रजातियों में भी अधिकांश पॉलीफैगस (ऐसे कीट जो अपना भोजन एक से अधिक प्रकार के पौधो द्वारा प्राप्त कर सकते हैं) होते हैं। मोनोफैगस (ऐसे कीट जो अपना भोजन केवल एक ही प्रकार के पौधों से प्राप्त करते हैं), इन कीटों की संख्या बहुत ही कम होती है।

बड फ्लाईः- बड फ्लाई, ऐशियाई (भारत, बॉंग्लादेश, श्रीलंका एवं पाकिस्तान) आदि देशों में अलसी का भयंकर कीट है, जो पुष्प कलिका को हानि पहुंचाता है। यह कीट अलसी के बीज उपज में 90 प्रतिशत तक की हानि पहुंचा सकता है। वैलसिड इलेमस यूरीटोमा और टंट्रस्टिकस बड फ्लाई के मैगट हेतु अच्छे प्रभावकारी जैव-नियंत्रक हैं।

कटवर्मः- कटवर्म एक पॉलीफैगस कीट है, जो अलसी की फसल को गम्भीर रूप से हानि पहुंचाता है। कटवर्म का प्रबंध करने के लिए जैव-नियंत्रकों का उपयोग सस्ता तथा पर्यावरण अनुकूल होता है।

चना फलीबेधकः- यह एक विश्वव्यापी कीट है। पोष की दृष्टि से यह कीट भी पॉलीफैगस होता है, जिसका लार्वा अलसी की पत्तियों, पुष्प कलिका एवं कैप्सूल के माध्यम से अपना पोषण लेकर इनकों हानि पहुंचाता है। बहुत से परपोषी व परभक्षी कीटों का चना फलीबेधक का प्रबंध करने के लिए जैवनियंक के रूप में उपयोग करना वातावरण एवं आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है। 

थ्रिप्सः- थ्रिप्स एक पॉलीफैगस कीट है, जो तिलहन, दलहन, अनाज, सब्जी, मसालें एवं कुछ खरपतवारों से अपना भोजन प्राप्त करता है। विभिन्न परभक्षियों को जैवनियंत्रक के रूप में प्रयोग कर थ्रिप्स की संख्या को नियंत्रित किया जा सकता है।

बिहार हंअरी कैटर पिलरः- यह कीट भी पॉलीफैगस ही होता है। इसके लार्वा परपोषी कीटों को जैव नियंत्रक केे रूप में प्रयोग कर इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

                                                                 

प्रबन्धनः- इस रोग से बचने के लिए हमें पर्यावरण हितैषी क्रियाओं जैसे कृषि क्रियाओं का सहारा लेना चाहिए। बीज संशोधन, बुआई के समय में परिवर्तन, प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग आदि कृषि क्रियाओं के द्वारा झुलसा रोग का प्रबंधन किया जा सकता है। ट्राईकोडरमा विरिडी द्वारा बीज शोधन एवं पर्णीय छिड़काव, झुलसा रोग के प्रबंध करने का एक पर्यावरण हितैषी तथा प्रभावकारी उपाय है। जीवन, गौरव एवं के-2 आदि झुलसा रोग की प्रतिरोधी किस्में हैं। कार्बेन्डाजिम-12 तथा मैनकोजेब-63 का मिश्रण झुलसा रोग नियंत्रण हेतु बेहद प्रभावशाली रसायन है।

उकठा रोग:- उकठा रोग का प्रबंधन करने के लिए सर्वप्रथम तीन वर्षीय फसल चक्र को अपनाना श्रेष्ठ उपाय है। पछेती बुआई (05 नवम्बर से 25 दिसंबर तक) का समय भी अलसी केा उकठा रोग से बचाने का एक प्रभावशाली उपाय है। मृदा सोलराईजेशन भी मृदा जनित रोगों की रोकथाम हेतु एक अच्छा विकल्प है। उकठा से बचाव हेतु जानकी, जीवन, हिमालिनी, हिम अलसी-1, हिम अलसी-2 अलसी की उकठा रोग प्रतिरोधक किस्में हैं अतः इनका उपयोग करना चाहिए। उकठा रोग एक मृदा-जनित रोग है अतः इसके संबंधी सभी उपाय बुआई से पूर्व अथवा बुआई के समय पर करने पर ही लाभदायक सिद्व होते हैं। बुआई के समय कार्बेन्डाजिम 1.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए।

रस्टः- रस्ट एक वायु-जनित रोग है, जो फरवरी-मार्च के मध्य अलसी की फसल सवंमित करता है। इसके द्वारा बीज एवं रेशा दोनों के ही गुण प्रभावित होते हैं। सर्वप्रथम इस रोग के लक्षण अलसी की पत्तियों पर पीले व चमकदार धब्बों के रूप में दिखाई पड़ते हैं, जो बाद में भूरे अथवा काले रंग में परिवर्तित हो जाते हैं।

रोग की तीव्रता के बढ़ने पर यही रोग लक्षण पौधें के तने पर भी दिखाई देने लगते हैं। पीले धब्बे रोगजनक के यूरेडोस्पोर्स होते हैं इसलिए हम इन रोगलक्षणों को यूरेडोपश्चुल्स भी कहते हैं। इस रोग की प्रतिरोधी किस्में उगाकर इस रोग से बचा जा सकता है।

चूर्णिल-आसिताः- रस्ट रोग की तरह से ही यह रोग भी एक पर्णीय रोग है। रोगजनक भूमि के ऊपर पौधे के संपूर्ण वायवीय भाग को प्रभावित करता है। फरवरी के अन्तिम दिन इस रोग के संक्रमण काल होते हैं। मार्च का द्वितीय सप्ताह जब तापमान 200-300 तथा आपेक्षिक आर्द्रता 35-75 प्रतिशत के बीच होती है, इस समय यह अपने चरम पर होता है।

    अलसी की पत्तियों पर छोटे-छोटे सफेद चूर्णिल धब्बों के रूप में इस रोग के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। सुरथि, जीवन, जानकी आदि अलसी की किस्में चूर्णिल आसिता रोग-रोधी किस्में हैं। जैसे ही फसल में चूर्णिल आसिता रोग के लक्षण दिखाई देना शुरू होते हैं तो एकदम सिंचाई कर देनी चाहिए, ऐसा करने से आर्द्रता बढ़ जाती है तथा रोग-जनक का स्पोर अंकुरित नही हो पाता है।

कटाईः- जब फसल की पत्तियां सूखने लगें और इसका कैप्सूल भूरे रंग का हो जाए तथा बीज चमकदार बन जाए तो अलसी की फसल को काट लेना चाहिए। सामान्यतः अलसी का पौधा उक्त अवस्था को फरवरी के अंत से मार्च माह के अंत तक प्राप्त कर लेता है।

अलसी का रेशा प्राप्त करने के लिए अलसी के पौधों की छोटी-छोटी गठरी बनाकर 3-4 दिनों तक पानी में सड़नें से इसका रेशा अलग हो जाता है। अच्छी तरह से सड़नें के बाद रेशों को हाथ की सहायता से अलग कर लिया जाता है, वैसे आजकल मशीनों के द्वारा रेशा अलग करने की सुविधा उपलब्ध है।

                                                           

उपजः- मृदा, जलवायु, किस्म और विभिन्न तकनीकों के कारण अलग-अलग क्षेत्रों में अलसी की उपज में अंतर पाया जाता है। अच्दी तरह से प्रबंधन कर उगाई गई अलसी की फसल 15-20 क्विंटल प्रति हैक्टर तक उपज प्राप्त की जा सकती है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।