कुशल सिंचाई प्रबन्धन के लाभ

                                                                               कुशल सिंचाई प्रबन्धन के लाभ

                                                            

    भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 142 मिलियन हेक्टेयर है। जिसमें उपलब्ध कुल जल-संसाधनों का एक बहुत बड़ा भाग सिंचाई के रूप में उपयोग कर लिया जाता है। परन्तु दे में इस सिंचाई जल का कुशल उपयोग न के बराबर ही होता है जिसके परिणामस्वरूप जल की एक बड़ी मात्रा बहकर, रिसकर एवं उड़कर नष्ट हो जाती है। जल की यह हानि 60 प्रतिशत तक आंकी गई है।

केवल इतना ही नही फसल के उत्पादन में युक्त अन्य उत्पादन कारकों में सिंचाई संसाधनों का कोई तालमेल नही होता है। जिसके कारण की जाने वाली सिंचाई का पूरा लाभ भी प्राप्त नही होता है। एक ओर जहाँ हम नये क्षेत्रों में सतह सिंचाई के साधनों की सुविधा को उपलब्ध कराने में लगभग 40-50 हजार रूपये प्रति हेक्टेयर अलग से व्यय कर रहे हैं साथ ही इनके रखरखाव पर 500-1000 रूपये प्रति हेक्टेयर अलग से व्यय कर रहे हैं वहीं इस जल का दुरूपयोग तथा जल का पूरा लाभ भी प्राप्त नही कर पा रहे हैं।

                                                                   

क्योंकि कृषि के उपलब्ध सिंचाई जल की एक निश्चित् सीमा है, तो इस अवस्था में यह आवश्यक हो जाता है कि किसी भी स्तर पर जल की व्यर्थ बर्बादी न हो और इसका यथासम्भव कुशलतापूर्वक उपयोग सुनिश्चित् किया जाए जिससे कि जो भी अतिरिक्त जल बचे उसको अन्य असिंचित क्षेत्र को दिया जा सकें।

    सिंचाई जल का कुशलतापूर्वक प्रबन्धन कर निम्नानुसार कर कम जल व्यय के सापेक्ष अधिक लाभ प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए-

उपलब्ध सिंचाई जल के अनुसार ही फसलों का चयनः- कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा किये गये प्रयोगों से ज्ञात होता है कि जहाँ सिंचाई जल की उपलब्धता सीमित हो वहाँ गेहूँ की अपेक्षा जई, जौ, चनस आदि को उगाना अधिक लाभदायक सिद्व होता है, क्योंकि जई के जल उपयोग की क्षमता सबसे अधिक होती है इसके बाद चना, जौ तथा गेहूँ आदि का नम्बर आता है।

                                                                

सिचाई का निर्धारण भूमि की जलधारण क्षमता के आधार परः- बलुई भूमि की जल धारण क्षमता चिकनी भूमि की अपेक्षा बहुत कम होती है, जिससे बलुई भूमि में बाई गई फसलों को जल्दी-जल्दी पानी देने की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए बलुई भूमि की जल धारण क्षमता में वृद्वि हेतु इसमें गोबर की खाद को देना एक अच्छा उपाय है। 

फसलों की क्राँतिक अवस्था के आधार पर सिंचाई जल का निर्धारणः- विभिन्न फसलों की क्राँतिक अवस्थाएं भी भिन्न-भिन्न होती हैं और यदि इस अवस्था में जल की कमी की जाये तो उपज में भी भारी कमी आने की आशंका रहती है।

सही मात्रा में सिंचाई करनाः- अधिक मात्रा में पानी देने से जल जड़ों के प्रीाावी क्षेत्रों से रिसकर नीचे चला जाता है और पानी कम देने से उसकी कुशलता प्रभावित होती है। अतः अनाज, तिलहन, दलहन, बरसीम, सब्जी एवं आलू में 6-8 से.मी. पानी प्रति सिंचाई ही प्रयाप्त होता है।

सिंचाई करने की सही विधिः- सिंचाई के जल का अधिकतम उपयोग करने हेतु बोई गई फसल में टपक प्रणाली को अपनाया जाना चाहिए, ऊँची-नीची भूमि में फव्वारा विधि तथा समतल भूमि में क्यारी अथवा बार्डर/पट्टी विधि का अपनाने से सिंचाई जल का कुशल उपयोग किया जा सकता है।

                                                      

मौसम के अनुरूप सिंचाई का निर्धारणः- समय से बुआई किये गये गेहूँ में 4-5 सिंचाईयाँ ही पर्याप्त होती हैं। इसके विपरीत देरी से बुआई किये गये गेहूँ में कम समयान्तराल पर कम से कम 6-7 सिंचाईयाँ आवश्यक होती हैं।

सिंचई एवं उर्वरक मात्रा के तालमेल से सिंचाई के जल का कुशल उपयोगः- पर्याप्त नमी के उपलब्ध होने पर भूमि में दिये गये उर्वरकों का पूरा का पूरा लाभ प्राप्त होता है। यदि भूमि उपजाऊ नही है और उर्वरक भी पर्याप्त मात्रा में नही दिये गये हैं तो फसल में की गई सिंचाई का पूरा लाभ प्राप्त नही होता है।