
फसल विविधीकरण से किसानों को टिकाऊ आमदनी Publish Date : 08/03/2025
फसल विविधीकरण से किसानों को टिकाऊ आमदनी
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, डॉ0 वर्षा रानी एवं हिबिस्का दत्त
पारंपरिक फसल प्रणाली धान-गेहूं के स्थान पर फसल विविधीकरण को अपनाकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के अधिकतम दोहन की प्रक्रिया को कम किया जा सकता है। इसके साथ ही साथ किसान भाई इससे अपनी आमदनी में भी बढ़ोतरी कर सकते हैं। सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में संभावित विकल्प के रूप में मक्का-सरसों-मूंग एवं मक्का-गेहूं-मूंग फसल प्रणाली से उत्पादन की लागत में 15-25 प्रतिशत की कमी एवं 20-35 प्रतिशत कुल आय में बढ़ोतरी कर सकते हैं। इस प्रणाली से 65 से 70 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत भी कर सकते हैं। फसल विविधीकरण से कार्बन का संचय एवं मृदा की उर्वराशक्ति बनी रहती है। इससे फसल से संबंधित कीटों एवं रोगों के रोगजनक प्रभाव को नियोजित किया जा सकता है।
सिंधु-गंगा के उत्तर-पश्चिमी मैदानी इलाकों में धान-गेहूं फसल पद्वति एक प्रमुख फसल प्रणाली है। यह लगभग 10.3 मिलियन हैक्टर में फैली हुई है। भारत के कुल खाद्यान्न का लगभग 30 प्रतिशत अनाज इसी क्षेत्र की धान-गेहूं फसल प्रणाली से आता है। निरंतर घटते कृषि संसाधनों एवं जलवायु परिवर्तन की स्थिति में बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्य मांग के लक्ष्य को पूरा करना एक बड़ी चुनौती है। देश में बढ़ती कृषि लागत, श्रम, ऊर्जा और जल की कमी के साथ ही साथ खाद्य उत्पादों के मूल्यों में अत्यधिक उतार-चढ़ाव, मौसमी और कम समय के लिए मूल्य वृद्धि और अनियमित मानसून को देखते हुए कृषि क्षेत्र में शामिल सभी हितधारकों के लिए यह एक कठिन चुनौती है। पारंपरिक धान की खेती में ज्यादा संसाधनों (पानी, श्रम तथा ऊर्जा) की आवश्यकता होती है। सिंधु-गंगा के मैदानी क्षेत्रों में इन सभी संसाधनों की लगातार हो रही कमी के कारण धान का उत्पादन पहले की तुलना में कम लाभप्रद हो गया है।
फसल विविधीकरण के विभिन्न विकल्प
पारंपरिक धान-गेहूं प्रणाली की जगह किसान विभिन्न फसल प्रणाली विकल्प अपना सकते हैं, जो इस प्रकार से हो सकते हैं:-
- अरहर-गेहूं-मूंग
- मक्का-सरसों-मूंग
- धान-आलू-स्प्रिंग मक्का
- मक्का-गेहूं
- अरहर-गेहूं
- मक्का-गेहूं-मूंग
- सोयाबीन-गेहूं-मूंग
एक ही फसल प्रणाली अपनाने से विभिन्न आदानों जैसे-उर्वरक, पीड़कनाशी आदि की दक्षता में भी कमी आ रही है। इसके कारण प्रति इकाई उत्पादन के लिए आदानों की आवश्यकता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इससे उत्पादन लागत में वृद्धि हो रही है। इसके साथ ही गेहूं की बुआई के समय पर पंजाब व हरियाणा राज्यों में धान की कटाई के बाद फसल अवशेषों को खेत में जला दिया जाता है। इससे काफी मात्रा में वायु प्रदूषण के साथ-साथ मृदा से पोषक तत्वों की हानि होती है एवं बहुत सारे लाभकारी सूक्ष्मजीवों को भी नुकसान होता है। अतः सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में फसल विविधीकरण को अपनाकर इसे अधिक लाभकारी व टिकाऊ बनाने की आवश्यकता है, ताकि उपलब्ध संसाधनों का सदुपयोग समय, स्थिति एवं प्रवृति के अनुरूप किया जा सके।
कृषि के सतत् सघनीकरण को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न विकल्पों जैसे संरक्षित खेती आधारित फसल प्रबंधन, फसल विविधीकरण, दलहनी फसलों को रिले एवं अंतर्वतीय फसल के रूप में शामिल करने, समन्वित कृषि प्रणाली अपनाने आदि तकनीकियों पर प्रचार व प्रसार की नितांत आवश्यकता है। मौजूदा कृषि प्रणालियों में उभरती चुनौतियों एवं खाद्यान्नों की बढ़ती मांग के मद्देनजर कृषि प्रणालियों में विविधीकरण को अहम् भूमिका अदा करनी होगी।
अनुसंधान परीक्षण के परिणाम
धान गेहूं फसल प्रणाली की टिकाऊ गहनता को मापने के लिए फसल विविधीकरण प्रणाली अपनायी जा रही है। इसमें जुताई, फसल स्थापना के तरीके (परमानेंट बेड, शून्य जुताई), फसल अवशेष प्रबंधन, सिंचाई विधि और फसल प्रबंधन के तरीकों के आधार पर अलग-अलग परिदृश्यों का मूल्यांकन किया गया। चावल-गेहूं फसल प्रणाली की विविधता के उद्देश्य से चार प्रमुख गैर-धान फसल प्रणालियों, जैसे मक्का-गेहूं-मूंग, मक्का-सरसों-मूंग, सोयाबीन-गेहूं-मूंग एवं अरहर-गेहूं-मूंग का मूल्यांकन संरक्षण कृषि विधियों को अपनाते हुए एक प्रयोग में किया गया। इस अध्ययन का परिणाम सारणी-1 में दिया गया है।
संरक्षण कृषि आधारित फसल विविधीकरण अनुसंधान के परिणामों से ज्ञात होता है कि क्र.सं. 1 की तुलना में क्र.सं. 2, 3, एवं 4 में प्रणाली उत्पादकता (धान समतुल्य) में 6-27 प्रितशत एवं लाभ में 10-35 प्रितशत तक की बढ़ोतरी के साथ-साथ 7-79 प्रतिशत सिंचाई जल में बचत आंकी गयी। क्र.सं. 5 एवं 6 में उपज तो परपंरागत धान-गेहूँ फसल प्रणाली के समानांतर प्राप्त हुई, लेकिन सिंचाई जल में 67-68 प्रतिशत की बचत एवं आय में वृद्धि 3-5 प्रतिशत की आंकी गयी। उपरोक्त क्रमांकों में क्र.सं. 3 में क्र.सं. 1 की तुलना में उत्पादकता (धान समतुल्य) में 28 प्रतिशत एवं शुद्ध लाभ में 35 प्रतिशत तक की वृद्धि के साथ-साथ 79 प्रतिशत सिंचाई जल में बचत पायी गयी। परंपरागत खेती आधारित धान-गेहूं फसल प्रणाली की तलुना में मक्का-सरसों-मूंग फसल प्रणाली से उत्पादन की लागत में 15-25 प्रितशत की कमी एवं 20-35 प्रतिशत की कुल आय में बढ़ोतरी कर सकते हैं।इसके साथ-साथ 65 से 70 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत भी कर सकते हैं। इस प्रकार गिरते भू जलस्तर को रोका जा सकता है।
परपंरागत फसल प्रणाली से नुकसान
भूमिगत जलस्तर का लगातार गिरना
पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में धान के बाद लगभग 95 प्रतिशत क्षेत्रफल में गेहूं की खेती की जाती है। धान और गेहूं की लगातार खेती से बहुत सी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। इसमें भूमिगत जल प्रतिवर्ष 0.1 से 1 मीटर तक नीचे जा रहा है, जो कि आने वाले समय में एक बड़ा संकट है।
मृदा स्वास्थ्य में लगातार गिरावट
धान व गेहूं दोनों ही अदलहनी फसलें है। इनकी पोषक तत्व मांग भी अधिक है। इस पद्धति के लगातार अपनाने से बहुत सारे प्रमुख एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी मृदा में होती जा रही है। इसके साथ ही कार्बनिक पदार्थ की कमी व मृदा से पोषक तत्वों का निक्षालन होने से मृदा उर्वरता में भी कमी आ रही है।
फसल उत्पादन लागत में वृद्धि
लगातार एक ही प्रकार की फसल उगाने से विभिन्न आदानों/संसाधनों जैसे-उर्वरक, पीड़कनाशी आदि की दक्षता में कमी आ रही है, जिसके कारण प्रति इकाई उत्पादन लागत में वृद्धि हो रही है।
पर्यावरण प्रदूषण
पंजाब व हरियाणा राज्यों में धान की कटाई के बाद फसल अवशेष को खेत में जला दिया जाता है। इससे काफी मात्रा में वायु प्रदूषण के साथ-साथ मृदा में उपस्थित पोषक तत्वों की हानि होती है। धान के खेत से जलमग्न दशा में मीथेन गैस निकलती है, जिसका वैश्विक तापमान बढ़ाने में प्रमुख योगदान है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।